महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-134
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति प्रतिपदादितिथिषु श्राद्धकरणस्य प्रत्येकं फलकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-134-1x |
चातुर्वर्ण्यस्य धर्मात्मन्धर्माः प्रोक्ता यथा त्वया। तथैव मे श्राद्धविधिं कृत्स्नं प्रब्रूहि पार्थिव।। | 13-134-1a 13-134-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-134-2x |
युधिष्ठिरेणैवमुक्तो भीष्मः शान्तनवस्तदा। इमं श्राद्धविधिं कृत्स्नं वक्तुं समुपचक्रमे।। | 13-134-2a 13-134-2b |
भीष्म उवाच। | 13-134-3x |
शृणुष्वावहितो राजञ्श्राद्धकर्मविधिं शुभम्। धन्यं यशस्यं पुत्रीयं पितृयज्ञं परन्तप।। | 13-134-3a 13-134-3b |
देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्। पिशाचकिन्नराणां च पूज्या वै पितरः सदा।। | 13-134-4a 13-134-4b |
पितॄन्पूज्यादितः पश्चाद्देवतास्तर्पयन्ति वै। तस्मात्तान्सर्वयत्नेन पुरुषः पूजयेत्सदा।। | 13-134-5a 13-134-5b |
अन्वाहार्यं महाराज पितॄणां श्राद्धमुच्यते। तस्माद्विशेषविधिना विधिः प्रथमकल्पितः।। | 13-134-6a 13-134-6b |
सर्वेष्वहःसु प्रीयन्ते कृते श्राद्धे पितामहाः। `पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम्। पितृयज्ञं तु निर्वर्त्य विप्रश्चन्द्रक्षयेऽग्निमान्।। | 13-134-7a 13-134-7b 13-134-7c |
पिण्डानां मासिकश्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधाः। तदामिषेण कुर्वीत प्रयतः प्राञ्जलिः शुचिः।।' | 13-134-8a 13-134-8b |
प्रवक्ष्यामि तु ते सर्वांस्तिथ्यांतिथ्यां दिने गुणान्। येष्वहःसु कृतैः श्राद्धैर्यत्फलं प्राप्यतेऽनघ। तत्सर्वं कीर्तयिष्यामि यथावत्तन्निबोध मे।। | 13-134-9a 13-134-9b 13-134-9c |
पितॄनर्च्य प्रतिपदि प्राप्नुयात्स्वगृहे स्त्रियः। अभिरूपप्रजायिन्यो दर्शनीया बहुप्रजाः।। | 13-134-10a 13-134-10b |
स्त्रियो द्वितीयां जायन्ते तृतीयायां तु वाजिनः। चतुर्थ्यां क्षुद्रपशवो भवन्ति बहवो गृहे।। | 13-134-11a 13-134-11b |
पञ्चम्यां बहवः पुत्रा जायन्ते कुर्वतां नृप। कुर्वाणास्तु नराः षष्ठ्यां भवन्ति द्युतिभागिनः।। | 13-134-12a 13-134-12b |
कृषिभागी भवेच्छ्राद्धं कुर्वाणः सप्तमीं नृप। अष्टम्यां तु प्रकुर्वाणो वाणिज्ये लाभमाप्नुयात्।। | 13-134-13a 13-134-13b |
नवम्यां कुर्वतः श्राद्धं भवत्येकशफं बहु। विवर्धन्ते तु दशमीं गावः श्राद्धानि कुर्वतः।। | 13-134-14a 13-134-14b |
कुप्यभागी भवेन्मर्त्यः कुर्वन्नेकादशीं नृप। ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते तस्य वेश्मनि।। | 13-134-15a 13-134-15b |
द्वादश्यामीहमानस्य नित्यमेव प्रदृश्यते। रजतं बहुवित्तं च सुवर्णं च मनोरमम्।। | 13-134-16a 13-134-16b |
ज्ञातीनां तु भवेच्छ्रेष्ठः कुर्वञ्श्राद्धं त्रयोदशीम्।। | 13-134-17a |
अवश्यं तु युवानोऽस्य प्रमीयन्ते नरा गृहे। युद्धभागी भवेन्मर्त्यः कुर्वञ्श्राद्धं चतुर्दशीम्।। | 13-134-18a 13-134-18b |
अमावास्यां तु निवपन्सर्वकामानवाप्नुयात्।। | 13-134-19a |
कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम्। श्राद्धकर्मणि तिथ्यस्तु प्रशस्ता न तथेतराः।। | 13-134-20a 13-134-20b |
यथा चैवापरः पक्षः पूर्वपक्षाद्विशिष्यते। तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णादपराह्णो विशिष्यते।। | 13-134-21a 13-134-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 134 ।। |
13-134-5 आदितः अमावास्यायां। पश्चात्प्रतिपदि।। 13-134-6 तच्चामिषेण विधिनेति क.ट.थ.ध.पाठः।। 13-134-10 गृहे स्त्रियो भार्याः।। 13-134-11 स्त्रियो दुहितरः।। 13-134-12 भवन्ति द्यूतभागिन इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-134-15 कुप्यं वस्त्रपात्रादि।।
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