महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-094
← अनुशासनपर्व-093 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-094 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-095 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणप्रशंसनपूर्वकं तदाराधनविधानम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-94-1x |
यानीमानि बहिर्वेद्यां दानानि परिचक्षते। तेभ्यो विशिष्टं किं दानं मतं ते कुरुपुङ्गव।। | 13-94-1a 13-94-1b |
कौतूहलं हि परमं तत्र मे विद्यते प्रभो। दातारं दत्तमन्वेति यद्दानं तत्प्रचक्ष्व मे।। | 13-94-2a 13-94-2b |
भीष्म उवाच। | 13-94-3x |
अभयं सर्वभूतेभ्यो व्यसने चाप्यनुग्रहः। यच्चाभिलषितं दद्यात्तृषितायाभियाचते।। | 13-94-3a 13-94-3b |
भरणे पुत्रदाराणां तद्दानं श्रेष्ठमुच्यते। दत्तं दातारमन्वेति तद्दानं भरतर्षभ।। | 13-94-4a 13-94-4b |
हिरण्यदानं गोदानं पृथिवीदानमेव च। एतानि वै पवित्राणि तारयन्त्यपि दुष्कृतात्।। | 13-94-5a 13-94-5b |
एतानि पुरुषव्याघ्र साधुभ्यो देहि नित्यदा। दानानि हि नरं पापान्मोक्षयन्ति न संशयः।। | 13-94-6a 13-94-6b |
यद्यदिष्टतमं लोके यच्चास्य दयितं गृहे। तत्तद्गुणवते देयं तदेवाक्षयमिच्छता।। | 13-94-7a 13-94-7b |
प्रियाणि लभते नित्यं प्रियदः प्रियकृत्तथा। प्रियो भवति भूतानामिह चैव परत्र च।। | 13-94-8a 13-94-8b |
याचमानमभीमानादनासक्तमकिञ्चनम्। यो नार्चति यथाशक्ति स नृशंसो युधिष्ठिर।। | 13-94-9a 13-94-9b |
अमित्रमपि चेद्दीनं शरणैषिणमागतम्। व्यसने योऽनुगृह्णाति स वै पुरुषसत्तमः।। | 13-94-10a 13-94-10b |
कृशाय कृतविद्याय वृत्तिक्षीणाय सीदते। अपहन्यात्क्षुधां यस्तु न तेन पुरुषः समः।। | 13-94-11a 13-94-11b |
क्रियानियमितान्साधुन्पुत्रदारैश्च कर्शितान्। अयाचमानान्कौन्तेय सर्वोपायैर्निमन्त्रयेत्।। | 13-94-12a 13-94-12b |
आशिषं ये न देवेषु न च मर्त्येषु कुर्वते। अर्हन्तो नित्यसत्वस्था यथालब्धोपजीविनः।। | 13-94-13a 13-94-13b |
आशीविषसमेभ्यश्च तेभ्यो रक्षस्व भारत। तान्युक्तैरुपजिज्ञास्य भोगैर्निर्वप रक्ष च।। | 13-94-14a 13-94-14b |
कृतैरावसथैर्नित्यं सप्रेष्यैः सपरिच्छदैः। निमन्त्रयेथाः कौरव्य सर्वभूतसुखावहैः।। | 13-94-15a 13-94-15b |
यदि ते प्रतिगृह्णीयुः श्रद्धापूतं युधिष्ठिर। कार्यमित्येव मन्वाना धार्मिकाः पुण्यकर्मिणः।। | 13-94-16a 13-94-16b |
विद्यास्नाता व्रतस्नाता धर्ममाश्रित्य जीविनः। गूढस्वाध्यायतपसो ब्राह्म्णाः संशितव्रताः।। | 13-94-17a 13-94-17b |
तेषु शुद्धेषु दान्तेषु स्वदारनिरतेषु च। यत्करिष्यसि कल्याणं तत्ते लोके युधाम्पते।। | 13-94-18a 13-94-18b |
यथाऽग्निहोत्रं सुहुतं सायम्प्रातर्द्विजातिना। तथा भवति दत्तं वै विद्वद्भ्यो यत्कृतात्मना।। | 13-94-19a 13-94-19b |
एष ते विततो यज्ञः श्रद्धापूतः सदक्षिणः। विशिष्टः सर्वयज्ञेभ्यो ददतस्तात वर्तताम्।। | 13-94-20a 13-94-20b |
निवापो दानसदृशः सदृशेषु युधिष्ठिर। निवेदयन्पूजयन्वै तेष्वानृण्यं निगच्छति।। | 13-94-21a 13-94-21b |
य एवं नैव कुप्यन्ते न लुभ्यन्ति तृणेष्वपि। त एव नः पूज्यतमा ये चापि प्रियवादिनः।। | 13-94-22a 13-94-22b |
ये नो न बहुमन्यन्ते न प्रवर्तन्ति याचने। पुत्रवत्परिपाल्यास्ते नमस्तेभ्यस्तथाऽभयम्।। | 13-94-23a 13-94-23b |
ऋत्विक्पुरोहिताचार्या मृदुधर्मपरा हि ये। क्षात्रेणापि हि संसृष्टं तेजः शाम्यति तेष्वपि।। | 13-94-24a 13-94-24b |
ईश्वरो बलवानस्मि राजाऽस्मीति युधिष्ठिर। ब्राह्मणान्मास्म पर्यासीर्वासोभिरशनेन च।। | 13-94-25a 13-94-25b |
यच्छोभार्थं बलार्तं वा वित्तमस्ति तवानघ। तेन ते ब्राह्मणाः पूज्याः स्वधर्ममनुतिष्ठता।। | 13-94-26a 13-94-26b |
नमस्कार्यास्तथा विप्रा वर्तमाना यथातथम्। यथासुखं यथोत्साहं ललन्तु त्वयि पुत्रवत्।। | 13-94-27a 13-94-27b |
को ह्यक्षयप्रसादानां सुहृदामल्पतोषिणाम्। वृत्तिमर्हत्युपक्षेप्तुं त्वदन्यः कुरुसत्तम।। | 13-94-28a 13-94-28b |
यथाऽपत्याश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके सनातनः। सदैव सा गतिर्नान्या तथाऽस्माकं द्विजातयः।। | 13-94-29a 13-94-29b |
यदि नो ब्राह्मणास्तात संत्यजेयुरपूजिताः। पश्यन्तो दारुणं कर्म सततं क्षत्रिये स्थितम्।। | 13-94-30a 13-94-30b |
अवेदानामकीर्तीनामलोकानामयज्विनाम्। कोनु स्याज्जीवितेनार्थस्तद्धिनो ब्राह्मणाश्रयम्।। | 13-94-31a 13-94-31b |
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा धर्मं सनातनम्। राजन्यो ब्राह्मणान्राजन्पुरा परिचचार ह। वैश्यो राजन्यमित्येव शूद्रो वैश्यमिति श्रुतिः।। | 13-94-32a 13-94-32b 13-94-32c |
दूराच्छूद्रेणोपचर्यो ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन्। संस्पर्शपरिचर्यसल्तु वैश्येन क्षत्रियेण च।। | 13-94-33a 13-94-33b |
मृदुभावान्सत्यशीलान्सत्यधर्मानुपालकान्। आशीविषानिव क्रुद्धांस्तानुपाचरत द्विजान्।। | 13-94-34a 13-94-34b |
अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चापि ये परे। क्षत्रियाणां प्रतपतां तेजसा च बलेन च। ब्राह्मणेष्वेव शाम्यन्ति तेजांसि च तपांसि च।। | 13-94-35a 13-94-35b 13-94-35c |
न मे पिता प्रियतरो न त्वं तात तथा प्रियः। न मे पितुः पिता राजन्न चात्मा न च जीवितम्।। | 13-94-36a 13-94-36b |
त्वत्तश्च मे प्रियतरः पृथिव्यां नास्ति कश्चन। त्वत्तोऽपि मे प्रियतरा ब्राह्मणा भरतर्षभ।। | 13-94-37a 13-94-37b |
ब्रवीमि सत्यमेतच्च यथाऽहं पाण्डुनन्दन। तेन सत्येन गच्छेयं लोकान्यत्र स शान्तनुः।। | 13-94-38a 13-94-38b |
पश्येयं च सतां लोकाञ्छुचीन्ब्रह्मपुरस्कृतान्। तत्र मे तात गन्तव्यमह्नाय च चिराय च।। | 13-94-39a 13-94-39b |
सोहमेतादृशान्लोकान्दृष्ट्वा भरतसत्तम। यन्मे कृतं ब्राह्मणेषु न तप्ये तेन पार्थिव।। | 13-94-40a 13-94-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।। |
13-94-9 अभीमानादतिसमर्थोऽयमित्यभिमानं स्वमनस्येव कृत्वा याचमानम्। याचमानावमानाच्च आशावन्तमकिञ्चनमिति थ.ध.पाठः।। 13-94-11 कृशायेत्यादिचतुर्थी षष्ठ्यर्थ। कृशाय ह्रीमते तातेति ट.थ.ध.पाठः।। 13-94-12 क्रियानियमितान् स्वधर्मयन्त्रितान्। ह्रिया तु नियतानिति थ.ध.पाठ।। 13-94-16 धर्मार्थमेव धर्मं कुर्वन्ति नतु फलान्तरार्थमिति भावः।। 13-94-20 ददतः दातुस्तव वर्ततां सर्वदास्तु।। 13-94-21 निवापः पितृतर्पणम्। दानसदृशः इत्यत्र दानं महादानम्।। 13-94-26 ते त्वया।। 13-94-27 ललन्तु रमन्ताम्।। 13-94-28 उपक्षेप्तं समर्पितुम्।। 13-94-31 अवेदानामिति। तर्हि ब्राह्मणैरस्मत्त्यागे तत एव अवेदादीनामस्माकं जीवितेन कोर्थः। तत् जीवितं।। 13-94-35 क्षत्रियाणां प्रभावं च तेजांसि च तपांसि च। ब्राह्मणेष्वेव मन्यन्ते श्रीरयुर्बलमेव चेति ट.थ.ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-093 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-095 |