महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-156
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति बलिदीपप्रदानकथनोपयोगितया नहुषचरितकथनारम्भः।। 1 ।। देवैर्वरदानपूर्वकमिन्द्रपदं प्रापितेन नहुषेण पर्पात्सप्तर्ष्यादिभिः पर्यायेण स्वयानवाहनम्।। 2 ।। अगस्त्यस्य तद्यानवहनपर्याये भृगुणाऽगस्त्यंप्रति स्वेन नहुषस्याधःपातनप्रतिज्ञानम्।। 3 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-156-1x |
श्रुतं मे भरतश्रेष्ठ पुष्पधूपप्रदायिनाम्। फलं बलिविधाने च तद्भूयो वक्तुमर्हसि।। | 13-156-1a 13-156-1b |
धूपप्रदानस्य फलं प्रदीपस्य तथैव च। बलयश्च किमर्थं वै क्षिप्यन्ते गृहमेधिभिः।। | 13-156-2a 13-156-2b |
भीष्म उवाच। | 13-156-3x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। नहुषस्य च संवादमगस्त्यस्य भृगोस्तता।। | 13-156-3a 13-156-3b |
नहुषो हि महाराज राजर्षिः सुमहातपाः। देवराज्यमनुप्राप्तः सुकृतेनेह कर्मणा।। | 13-156-4a 13-156-4b |
तत्रापि प्रयतो राजन्नहुषस्त्रिदिवे वसन्। मानुषीश्चैव दिव्याश्च कुर्वाणो विविधाः क्रियाः।। | 13-156-5a 13-156-5b |
मानुष्यस्तत्र सर्वाः स्म क्रियास्तस्य महात्मनः। प्रवृत्तास्त्रिदिवे राजन्दिव्याश्चैव सनातनाः।। | 13-156-6a 13-156-6b |
अग्निकार्याणि समिधः कुशाः सुमनसस्तथा। बलयश्चान्नलाजाभिर्धूपनं दीपकर्म च।। | 13-156-7a 13-156-7b |
सर्वं तस्य गृहे राज्ञः प्रावर्तत महात्मनः। जपयज्ञान्मनोयज्ञांस्त्रिदिवेऽपि चकार सः।। | 13-156-8a 13-156-8b |
देवानभ्यर्चयच्चापि विधिवत्स सुरेश्वरः। सर्वानेव यथान्यायं यथापूर्वमरिंदम।। | 13-156-9a 13-156-9b |
अथेनद्रोऽहमिति ज्ञात्वा अहङ्कारं समाविशत्। सर्वाश्चैव क्रियास्तस्य पर्यहीयन्त भूपतेः।। | 13-156-10a 13-156-10b |
सप्तर्षीन्वाहयामास वरदानदमान्वितः। परिहीनक्रियश्चैव दुर्बलत्वमुपेयिवान्।। | 13-156-11a 13-156-11b |
तस्य वाहयतः कालो मुनिमुख्यांस्तपोधनान्। अहङ्काराभिभूतस्य सुमहानत्यवर्तत।। | 13-156-12a 13-156-12b |
अथ पर्यायशः सर्वान्वाहनायोपचक्रमे। पर्यायश्चाप्यगस्त्यस्य समपद्यत भारत।। | 13-156-13a 13-156-13b |
अथागत्य महातेजा भृगुर्ब्रह्मविदांवरः। अगस्त्यमाश्रमस्थं वै समुपेत्येदमब्रवीत्।। | 13-156-14a 13-156-14b |
एवं वयमसत्कारं देवेन्द्रस्यास्य दुर्मतेः। नहुषस्य किमर्थं वै मर्षयाम महामुने।। | 13-156-15a 13-156-15b |
अगस्त्य उवाच। | 13-156-16x |
कथमेष मया शक्यः शप्तुं यस्य महामुने। वरदेन वरो दत्तो भवतो विदितश्च सः।। | 13-156-16a 13-156-16b |
यो मे दृष्टिपथं गच्छेत्स मे वश्यो भवेदिति। इत्यनेन वरं देवो याचितो गच्छता दिवम्।। | 13-156-17a 13-156-17b |
एवं न दग्धः स मया भवता च न संशयः। अन्येनाप्यृषिमुख्येन न दग्धो न च पातितः।। | 13-156-18a 13-156-18b |
अमृतं चैव पानाय दत्तमस्मै पुरा विभो। महात्मना तदर्तं च नास्माभिर्विनिपात्यते।। | 13-156-19a 13-156-19b |
प्रायच्छत वरं देवः प्रजानां दुःखकारणम्। द्विजेष्वधर्मयुक्तानि स करोति नराधमः।। | 13-156-20a 13-156-20b |
तत्र यत्प्राप्तकालं नस्तद्ब्रू वदतांवर। भवांश्चापि यथा ब्रूयात्तत्कर्तास्मि न संशयः।। | 13-156-21a 13-156-21b |
भृगुरुवाच। | 13-156-22x |
पितामहनियोगेन भवन्तं सोऽहमागतः। प्रतिकर्तुं बलवति नहुषे दर्पमोहिते।। | 13-156-22a 13-156-22b |
अद्य हि त्वां सुदुर्बुद्धी रथे योक्ष्यति देवराट्। अद्यैनमहमुद्वृत्तं करिष्येऽनिन्द्रमोजसा।। | 13-156-23a 13-156-23b |
अद्येन्द्रं स्थापयिष्यामि पश्यतस्ते शतक्रतुम्। सञ्चाल्य पापकर्माणमैन्द्रात्स्थानात्सुदुर्मतिम्। | 13-156-24a 13-156-24b |
अद्य चासौ कुदेवेन्द्रस्त्वां पदा धर्षयिष्यति। दैवोपहतचित्तत्वादात्मनाशाय मन्दधीः।। | 13-156-25a 13-156-25b |
व्युत्क्रान्तधर्मं तमहं धर्षणामर्षितो भृशम्। अहिर्भवस्वेति रुषा शप्स्ये पापं द्विजद्रुहम्।। | 13-156-26a 13-156-26b |
तत एनं सुदुर्बुद्धिं धिक्शब्दाभिहतत्विषम्। धरण्यां पातयिष्यामि पश्यतस्ते महामुने।। | 13-156-27a 13-156-27b |
नहुषं पापकर्माणमैश्वर्यबलमोहितम्। यथा च रोचते तुभ्यं तथा कर्तास्म्यहं मुने।। | 13-156-28a 13-156-28b |
एवमुक्तस्तु भृगुणा मैत्रावरुणिरव्ययः। अगस्त्यः परमप्रीतो बभूव विगतज्वरः।। | 13-156-29a 13-156-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 156 ।। |
13-156-7 लाजाभिः। आर्षं स्त्रीत्वम्।। 13-156-10 अथेन्द्रस्य भविष्यत्वादहङ्कारः समाविशत् इति ध.पाठः।। 13-156-18 न शप्तो विनिपातिन इति थ.ध.पाठः।। 13-156-26 शपिष्ये पापमोहितमिति थ.ध.पाठः।।
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