महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-096
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भीष्मेणि युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणप्रशंसनपूर्वकं ब्राह्मणानां प्रजानां च रक्षणस्यावश्यकर्तव्यत्वकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठर उवाच। | 13-96-1x |
दानं यज्ञः क्रिया चेह किंस्वित्प्रेत्य महाफलम्। कस्य ज्यायः फलं प्रोक्तं कीदृशेभ्यः कथं कदा।। | 13-96-1a 13-96-1b |
एतदिच्छामि विज्ञातुं याथातथ्येनि भारत। विद्वञ्जिज्ञासमानाय दानधर्मान्प्रचक्ष्व मे।। | 13-96-2a 13-96-2b |
अन्तर्वेद्यां च यद्दत्तं श्रद्धया चानृशंस्यतः। किंस्विन्नैःश्रेयसं तात तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-96-3a 13-96-3b |
भीष्म उवाच। | 13-96-4x |
रौद्रं कर्म क्षत्रियस्य सततं तात वर्तते। नास्य वैतानिकफलं विना दानं सुपावनम्।। | 13-96-4a 13-96-4b |
न तु पापकृतां राज्ञां याजका द्विजसत्तमाः।। धने सत्यप्रदातॄणां प्रतिगृह्णन्ति साधवः।। | 13-96-5a 13-96-5b |
प्रतिगृह्णन्ति न तु चेद्यद्रोषादाप्तदक्षिणैः। एतस्मात्कारणाद्यज्ञैर्यजेद्राजाऽऽप्तदक्षिणैः।। | 13-96-6a 13-96-6b |
अथ चेत्प्रतिगृह्णीयुर्दद्यादहरहर्नृपः। श्रद्धामास्थाय परमां पावनं ह्येतुदुत्तमम्।। | 13-96-7a 13-96-7b |
ब्राह्मणांस्तर्पयन्द्रव्यैः स वै यज्ञोऽनुपद्रवः। मैत्रान्साधून्वेदविदः शीलवृत्ततपोर्जितान्।। | 13-96-8a 13-96-8b |
यत्ते ते न करिष्यन्ति कृतं ते न भविष्यति। यज्ञान्साधय साधुभ्यः स्वाद्वन्नान्दक्षिणावतः।। | 13-96-9a 13-96-9b |
इष्टं दत्तं च मन्येथा आत्मानं दानकर्मणा। पूजयेथा यायजूकांस्तवाप्यंशो भवेद्यथा।। | 13-96-10a 13-96-10b |
`विद्वद्भ्यः सम्प्रदानेन तत्राप्यंशोऽस्य पूजया। यज्वभ्यश्चाथ विद्वद्भ्यो दत्त्वा लोकं प्रदापयेत्। प्रदद्याज्ज्ञानदातॄणां ज्ञानदानांशभाग्यभवेत्।।' | 13-96-11a 13-96-11b 13-96-11c |
प्रजावतो भरेथाश्च ब्राह्मणान्बहुभारिणः। प्रजावांस्तेन भवति यथा जनयिता तथा।। | 13-96-12a 13-96-12b |
यावतः साधुधर्मान्वै सन्तः संवर्धयन्त्युत। सर्वस्वैश्चापि भर्तव्या नरा ये बहुकारिणः।। | 13-96-13a 13-96-13b |
समृद्धः सम्प्रयच्छ त्वं ब्राह्म्णेभ्यो युधिष्ठिर। धेनूरनडुहोऽन्नानि च्छत्रं वासांस्युपानहौ।। | 13-96-14a 13-96-14b |
आज्यानि यजमानेभ्यस्तथाऽन्नानि च भारत। अश्ववन्ति च यानानि वेश्मानि शयनानि च।। | 13-96-15a 13-96-15b |
एते देयाः पुष्टिमद्भिर्लघूपायाश्च भारत। अजुगुप्सांश्च विज्ञाय ब्राह्मणान्वृत्तिकर्शितान्।। | 13-96-16a 13-96-16b |
उपच्छन्नं प्रकाशं वा वृत्त्या तान्प्रतिपालय। राजसूयाश्वमेधाभ्यां श्रेयस्तत्क्षत्रियान्प्रति।। | 13-96-17a 13-96-17b |
एवं पापैर्विनिर्मुक्तस्त्वं पूतः स्वर्गमाप्स्यसि। सञ्चयित्वा पुनः कोशं यद्राष्ट्रं पालयिष्यसि।। | 13-96-18a 13-96-18b |
तेन त्वं ब्रह्मभूयत्वमवाप्स्यसि धनानि च। आत्मनश्च परेषां च वृत्तिं संरक्ष भारत।। | 13-96-19a 13-96-19b |
पुत्रवच्चापि भृत्यान्स्वान्प्रजाश्च परिपालय। [योगः क्षेमश्च ते नित्यं ब्राह्मणेष्वस्तु भारत।। | 13-96-20a 13-96-20b |
तदर्थं जीवितं तेऽस्तु मा तेभ्योऽप्रतिपालनम्। अनर्थो ब्राह्मणस्यैष यद्वित्तनिचयो महान्।। | 13-96-21a 13-96-21b |
क्षिया ह्यभीक्ष्णं संवासो दर्पयेत्सम्प्रमोहयेत्। ब्राह्मणेषु प्रमूढेषु धर्मो विप्रणशेद्धुवम्। धर्मप्रणाशे भूतानामभावः स्यान्न संशयः।। | 13-96-22a 13-96-22b 13-96-22c |
यो रक्षिभ्यः सम्प्रदाय राजा राष्ट्रं विलुम्पति। यज्ञे राष्ट्राद्धनं तस्मादानयध्वमिति ब्रुवन्।। | 13-96-23a 13-96-23b |
यच्चादाय तदाज्ञप्तं भीतं दत्तं सुदारुणम्। यजेद्राजा न तं यज्ञं प्रशंसन्त्यस्य साधवः।। | 13-96-24a 13-96-24b |
अपीडिताः सुसंवृद्धा ये ददत्यनुकूलतः। तादृशेनाप्युपायेन यष्टव्यं नोद्यमाहृतैः।। | 13-96-25a 13-96-25b |
यदा परिनिषिच्येत निहितो वै यथाविधि। तदा राजा महायज्ञैर्यजेत बहुदक्षिणैः।। | 13-96-26a 13-96-26b |
वृद्धबालधनं रक्ष्यमन्धस्य कृपणस्य च। न खातपूर्वं कुर्वीत न रुदन्तीधनं हरेत्।। | 13-96-27a 13-96-27b |
हृतं कृपणवित्तं हि राष्ट्रं हन्ति नृप श्रियम्। दद्याच्च महतो भोगान्क्षुद्भयं प्रणुदेत्सताम्।। | 13-96-28a 13-96-28b |
येषां स्वादूनि भोज्यानि समवेक्ष्यन्ति बालकाः। नाश्नन्ति विधिवत्तानि किन्नु पापतरं ततः।। | 13-96-29a 13-96-29b |
यदि ते तादृशो राष्ट्रे विद्वान्त्सीदेत्क्षुधा द्विजः। भ्रूणहत्यां च गच्छेथाः कृत्वा पापमिवोत्तमम्।। | 13-96-30a 13-96-30b |
धिक्तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रे यस्यावसीदति। द्विजोऽन्यो वा मनुष्योपि शिबिराह वचो यथा।। | 13-96-31a 13-96-31b |
यस्य स्म विषये राज्ञः स्नातकः सीदति क्षुधा। अवृद्धिमेति तद्राष्ट्रं विन्दते सह राजकम्।। | 13-96-32a 13-96-32b |
क्रोशन्त्यो यस्य वै राष्ट्राद्ध्रियन्ते तरसा स्त्रियः। क्रोशतां पतिपुत्राणां मृतोऽसौ न च जीवति]।। | 13-96-33a 13-96-33b |
अरक्षितारं हर्तारं विलोप्तारमनायकम्। तं वै राजकलिं हन्युः प्रजाः सन्नह्य निर्घृणं।। | 13-96-34a 13-96-34b |
अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिपः। स संहत्य निहन्तव्यः श्वेव सोन्माद आतुरः।। | 13-96-35a 13-96-35b |
पापं कुर्वन्ति यत्किञ्चित्प्रजा राज्ञा ह्यरक्षिताः। चतुर्थं तस्य पापस्य राजा विन्दति भारत।। | 13-96-36a 13-96-36b |
अथाहुः सर्वमेवैति भूयोऽर्धमिति निश्चयः। चतुर्थं मतमस्माकं मनोः श्रुत्वानुशासनम्।। | 13-96-37a 13-96-37b |
शुभं वा यच्च कुर्वन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः। चतुर्थं तस्य पुण्यस्य राजा चाप्नोति भारत।। | 13-96-38a 13-96-38b |
जीवन्तं त्वानुजीवन्तु प्रजाः सर्वा युधिष्ठिर। पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिवाण्डजाः।। | 13-96-39a 13-96-39b |
कुबेरमिव रक्षांसि शतक्रतुमिवामराः। ज्ञातयस्त्वाऽनुजीवन्तु सुहृदश्च परन्तप।। | 13-96-40a 13-96-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः।। 96 ।। |
13-96-1 यज्ञः क्रिया यज्ञरूपाक्रियेत्यर्थः। कीदृशेभ्यो दानं कथं यज्ञक्रियेति। कदेत्युभयत्र सम्बन्धः।। 13-96-7 एतद्दानम्।। 13-96-9 यद्यदि ते ब्राह्मणास्ते तव न करिष्यन्ति प्रतिग्रहमिति शेषः। तर्हि कृतं सुकृतं ते तव न भविष्यति। तदा सुकृतोत्पत्त्यर्थं यज्ञान्साधय।। 13-96-10 दाने यज्ञादिकमन्तर्भवतीत्यर्थः।। 13-96-12 जनयिता प्रजापतिः।। 13-96-13 तस्य राज्ञस्ते सन्तो बहुकारिणोऽत्यन्तमुपकर्तारो भवन्ति। नरा ये बहुभाषिण इति त.थ.पाठः।। 13-96-19 ब्रह्मणो भूयं भावोऽस्यास्ति स ब्राह्मणो ब्रह्मभूयस्तस्य भावो ब्रह्मभूयत्वं ब्राह्मणत्वम्।। 13-96-23 यो राजा रक्षिभ्यः सङ्ग्रहपरेभ्यो धनं दत्त्वा यज्ञे यज्ञार्थं धनमानयध्वमिति ब्रुवन् यजेत् तर्हि राष्ट्रं विलुम्पति।। 13-96-24 यच्चासौ तद्धनिभिर्भातं भययुक्तं यथास्यात्तथा दत्तं प्रजाभ्य आदाय सुदारुणं यथास्यात्तथा यजेत्तं यज्ञं न प्रशंसन्ति ।। 13-96-25 उद्यमः प्रजापीडनात्मकोऽतियत्नः।। 13-96-26 निहितः प्रजानां नितरां हितो राजा यदा प्रजाभिर्निषिच्येत धनैरभिषिच्येत।। 13-96-27 स्वातपूर्वं धनं न कुर्वीत स्वाधीनं न कुर्वीतेत्यर्थः।। 13-96-29 समवेक्ष्यन्त्येव नतु लभन्ते।। 13-96-32 सहयुगपत्। राजकं राजसमूहं प्रतिपक्षभूतं विन्दते।। 13-96-37 सर्वं पापं एति राजानम्।।
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