महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-183
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दानादिप्रशंसापरव्यासमैत्रेयसंवादानुवादः।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-183-1x |
एवमुक्तः प्रत्युवाच मैत्रेयः कर्मपूर्वकः। अत्यन्तं श्रीमति कुले जातः प्राज्ञो बहुश्रुतः।। | 13-183-1a 13-183-1b |
असंशयं महाप्राज्ञ यथैवात्थ तथैव तत्। अनुज्ञातश्च भवता किञ्चिद्ब्रूयामहं विभो।। | 13-183-2a 13-183-2b |
व्यास उवाच। | 13-183-3x |
यद्यदिच्छसि मैत्रेय यावद्यावद्यथायथा। ब्रूहि तत्वं महाप्राज्ञ शुश्रुषे वचनं तव।। | 13-183-3a 13-183-3b |
मैत्रेय उवाच। | 13-183-4x |
निर्दोषं निर्मलं चैव वचनं सत्यसंहितम्। विद्यातपोभ्यां हि भवान्भावितात्मा न संशयः।। | 13-183-4a 13-183-4b |
भवतो भावितात्मत्वाल्लाभोऽयं सुमहान्मम। भूयो बुद्ध्याऽनुपश्यामि सुसमृद्धतपा इव।। | 13-183-5a 13-183-5b |
अपि मे दर्शनादेव भवतोऽभ्युदयो महान्। मन्ये भवत्प्रसादोऽयं बुद्धिकर्मस्वभावतः।। | 13-183-6a 13-183-6b |
तपः श्रुतं च योनिश्चाप्येतद्ब्राह्मण्यकारणम्। त्रिभिर्गुणैः समुदितः स्नातो भवति वै द्विजः।। | 13-183-7a 13-183-7b |
अस्मिंस्तृप्ते च तृप्यन्ति पितरो दैवतानि च। न हि श्रुतवतां किञ्चिदधिकं ब्राह्मणादृते।। | 13-183-8a 13-183-8b |
`असंस्कारात्क्षत्रवैश्यौ नश्येते ब्राह्मणादृते। शूद्रो नश्यत्यशुश्रूषुराश्रमाणां यथार्हतः।।' | 13-183-9a 13-183-9b |
[अन्धं स्यात्तम एवेदं न प्रज्ञायेत किञ्चन। चातुर्वर्ण्यं न वर्तेत धर्माधर्मावृतानृते।।] | 13-183-10a 13-183-10b |
यथाहि सुकृते क्षेत्रे फलं विन्दति मानवः। एवं दत्त्वा श्रुतवते फलं दाता समश्नुते।। | 13-183-11a 13-183-11b |
ब्राह्मणश्चेन्न विन्देत श्रुतवृत्तोपसंहितः। प्रतिग्रहीता दानस्य मोघं स्याद्धनिनां धनम्।। | 13-183-12a 13-183-12b |
अन्नं ह्यविद्वान्हन्त्येवमविद्वांसं च हन्ति तत्। तच्चान्यं हन्ति यच्चान्यत्स भुक्त्वा हन्यतेऽबुधः।। | 13-183-13a 13-183-13b |
प्राहुर्ह्यन्नमदन्विद्वान्पुनर्जनयतीश्वरः। स चान्नाज्जायते तस्मात्सूक्ष्म एष व्यतिक्रमः।। | 13-183-14a 13-183-14b |
`ब्राह्मं ह्यनुपयोगी यो ददंश्चान्नमसंशयम्। यस्तारयति वै विद्वान्पितॄन्देवान्सदाऽमृतान्' | 13-183-15a 13-183-15b |
यदेव ददतः पुण्यं तदेव प्रतिगृह्णतः। न ह्येकचक्रं वर्तेत इत्येवमृषयो विदुः।। | 13-183-16a 13-183-16b |
यत्र वै ब्राह्मणाः सन्ति श्रुतवृत्तोपसंहिताः। तत्र दानफलं पुण्यमिह चामुत्र चाश्नुते।। | 13-183-17a 13-183-17b |
ये योनिशुद्धाः सततं तपस्यभिरता भृशम्। दानाध्ययनसम्पन्नास्ते वै पूज्यतमाः सदा।। | 13-183-18a 13-183-18b |
तैर्हि सद्भिः कृतः पन्था देवयानो न मुह्यते। ते हि स्वर्गस्य नेतारो यज्ञवाहाः सनातनाः।। | 13-183-19a 13-183-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्र्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 183 ।। |
13-183-7 श्रुतं शास्त्रज्ञानम्। 13-183-8 ब्राह्मणादृते इदमन्धन्तम एव स्याद्यतो वर्णधर्मादिकं तेन विना न प्रज्ञायेतेति सम्बन्धः।। 13-183-14 ईश्वरत्वाच्च क्षेत्रभूतः सन् पुनर्जनयति दात्रे अनेकगुणितं प्रयच्छतीत्यर्थः। सच दातुरन्नाज्जायते प्रजारूपेण। गृहस्थश्चेत्तत्र यस्यान्नं तस्य सन्ततिरिति सूक्ष्मो व्यतिक्रमोऽस्ति। तेन गृहस्थः परपाकं नाश्नीयादिति गम्यते।। 13-183-15 प्रतिग्रहीत्रभावे अन्नस्य वृद्धिर्न स्यात्। वद्ध्यभावे दातुर्दाने प्रवृत्तिर्न स्यादिति दातृप्रतिग्रहीतारौ चक्रवल्लोकतन्त्रं वहत इत्यर्थः।।
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