महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-216
← अनुशासनपर्व-215 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-216 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-217 → |
महेश्वरेण पार्वतींप्रति त्रिवर्गनिरूपणम्।। 1 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-216-1x |
पशवः पशुबन्धेषु ये हन्यन्तेऽध्वरेषु च। यूपे निबध्य मन्त्रैश्च यथान्यायं यथाविधि। मन्त्राहुतिविपूतास्ते स्वर्गं यान्ति यशस्विनि।। | 13-216-1a 13-216-1b 13-216-1c |
तर्पिता यज्ञभागेषु तेषां मांसैर्वरानने। अग्नयस्त्रिदशाश्चैव लोकपाला महेश्वराः। | 13-216-2a 13-216-2b |
तेषु तुष्टेषु जायेत यस्य यज्ञस्य यत्फलम्। तेन संयुज्यते देवि यजमानो न संशयः।। | 13-216-3a 13-216-3b |
सपत्नीकः सपुत्रश्चि पित्रा च भ्रातृभिः सह। ये तत्र दीक्षिता देवि सर्वे स्वर्गं प्रयान्ति ते।। | 13-216-4a 13-216-4b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-216-5a |
उमोवाच। | 13-216-6x |
भगवन्सर्वभूतेश शूलपाणे महाद्युते। श्रोतुमिच्छाम्यहं वृत्तं सर्वेषां गृहमेधिनाम्।। | 13-216-6a 13-216-6b |
कीदृशं चरितं तेषां त्रिवर्गसहितं प्रभो। प्रत्यायतिः कथं तेषां जीवनार्थमुदाहृतम्।। | 13-216-7a 13-216-7b |
वर्तमानाः कथं सर्वे प्राप्नुवन्त्युत्तमां गतिम्। एतत्सर्वं समासेन वक्तुमर्हसि मानदः।। | 13-216-8a 13-216-8b |
महेश्वर उवाच। | 13-216-9x |
न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामाऽसि भामिनि। प्रायशो लोकसद्वृत्तमिष्यते गृहवासिनाम्।। | 13-216-9a 13-216-9b |
तेषां संरक्षणार्थाय राजानः संस्कृता भुवि। सर्वेषामथ मर्त्यानां वृत्तिं सामान्यतः शृणुः।। | 13-216-10a 13-216-10b |
विद्या वार्ता च सेवा च कारुत्वं नाट्यता तथा। इत्यते जीवनार्थाय मर्त्यानां विहिताः प्रिये।। | 13-216-11a 13-216-11b |
अपि जन्मफलं तावन्मानुषाणां विशेषतः। विहितं तत्स्ववृत्तेन तन्मे शृणु समाहिताः।। | 13-216-12a 13-216-12b |
कर्मक्षेत्रं हि मानुष्यं सुखदुःखयुताः परे। सर्वेषां प्राणिनां तस्मान्मानुष्ये वृत्तिरिष्यते।। | 13-216-13a 13-216-13b |
विद्यायोगस्तु सर्वेषां पूर्वमेव विधीयते। कार्याकार्यं विजानन्ति विद्यया देवि नान्यथा।। | 13-216-14a 13-216-14b |
विद्यया स्फीयते ज्ञानं ज्ञानात्तत्वनिदर्शनम्। दृष्टतत्वो विनीतात्मा सर्वार्थस्य च भाजनम्।। | 13-216-15a 13-216-15b |
शक्यं विद्याविनीतेन लोके संजीवनं शुभम्।। | 13-216-16a |
आत्मानं विद्यया तस्मात्पूर्वं वृत्वा तु भाजनम्। वश्येन्द्रियो जितक्रोधो भूतात्मानं तु भावयेत्। भावयित्वा तदाऽऽत्मानं पूजनीयः सतामपि।। | 13-216-17a 13-216-17b 13-216-17c |
कुलानुवृत्तं वृत्तं वा पूर्वमात्मा समाश्रयेत्। इत्येतत्कुलवासाय दानकर्म यथा पुरा।। | 13-216-18a 13-216-18b |
यदि चेद्विद्यया चैव वृत्तिं काङ्क्षेदथात्मनः। राजविद्यानुवादेऽपि लोकविद्यामथापि वा। तीर्थतश्चापि गृह्णीयाच्छुश्रूषादिगुणैर्युतः।। | 13-216-19a 13-216-19b 13-216-19c |
ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव दृढं कुर्यात्प्रयत्नतः। एवं विद्याफलं देवि प्राप्नुयान्नान्यथा नरः। न्यायाद्विद्याफलानीच्छेदधर्मं तत्र वर्जयेत्।। | 13-216-20a 13-216-20b 13-216-20c |
यदिच्छेद्वार्तया वृत्तिं काङ्क्षेत विधिपूर्वकम्। क्षेत्रे जलोपपन्ने च तद्योग्यां कृषिमाचरेत्।। | 13-216-21a 13-216-21b |
वाणिज्यं वा यथाकालं कुर्यात्तद्देशयोगतः। मूल्यमर्थं प्रयासं च विचार्यैव व्ययोदयौ।। | 13-216-22a 13-216-22b |
पशुसंजीवनं चैव दश गाः पोषयेद्ध्रुवम्। बहुप्रकारा बहवः पशवस्तस्य साधकाः।। | 13-216-23a 13-216-23b |
यः कश्चित्सेवया वृत्तिं काङ्क्षेत मतिमान्नरः। यतात्मा श्रवणीयानां भवेद्वै सम्प्रयोजकः।। | 13-216-24a 13-216-24b |
बुद्ध्या वा कर्मयोगाद्वा बोधनाद्वा समाश्रयेत्। मार्गतस्तु समाश्रित्य तदा तत्सम्प्रयोजयेत्।। | 13-216-25a 13-216-25b |
यथायथा सु तुष्येत तथा संतोषयेत्तु तम्। अनुजीविगुणोपेतः कुर्यादात्मार्थमाश्रितम्।। | 13-216-26a 13-216-26b |
विप्रियं नाचरेत्तस्य एषा सेवा समासतः। विप्रयोगात्पुरा तेन गतिमन्यां न लक्षयेत्।। | 13-216-27a 13-216-27b |
कारुकर्म च नाट्यं च प्रायशो नीचयोनिषु। तयोरपि यथायोगं न्यायतः कर्मवेतनम्।। | 13-216-28a 13-216-28b |
आजीवेभ्योऽपि सर्वभ्यः स्वार्जवाद्वेतनं हरेत्। अनार्जवादाहरतस्तत्तु पापाय कल्पते।। | 13-216-29a 13-216-29b |
सर्वेषां पूर्वमारम्भांश्चिन्तयेन्नयपूर्वकम्। आत्मशक्तिमुपायांश्च देशकालौ च युक्तितः। कारणानि प्रयासं च प्रक्षेपं च फलोदयम्।। | 13-216-30a 13-216-30b 13-216-30c |
एवमादीनि सञ्चिन्त्य दृष्ट्वा दैवानुकूलताम्। अतः परं समारम्भेद्यत्रात्महितमाहितम्।। | 13-216-31a 13-216-31b |
वृत्तिमेव समासाद्य तां सदा परिपालयेत्। देवमानुषविघ्नेभ्यो न पुनर्मन्यते यथा।। | 13-216-32a 13-216-32b |
पालयन्वर्धयन्भुञ्जंस्तां प्राप्य न विनाशयेत्। क्षीयते गिरिसङ्काशमश्नतो ह्यनपेक्षया।। | 13-216-33a 13-216-33b |
आजीवेभ्यो धनं प्राप्य चतुर्धा विभजेद्बुधः। धर्मायार्थाय कामाय आपत्प्रशमनाय च।। | 13-216-34a 13-216-34b |
चतुर्ष्वपि विभागेषु विधानं शृणु शोभने।। | 13-216-35a |
यज्ञार्थं चान्नदानार्थं दीनानुग्रहकारणात्। देवब्राह्मणपूजार्थं पितृपूजार्थमेव च।। | 13-216-36a 13-216-36b |
मूलार्थं सन्निवासार्थं क्रियानित्यैश्चि धार्मिकैः। एवमादिषु चान्येषु धर्मार्थं संत्यजेद्धनम्।। | 13-216-37a 13-216-37b |
धर्मकार्ये धनं दद्यादनवेक्ष्य फलोदयम्। ऐश्वर्यस्थानलाभार्थं राजवाल्लभ्यकारणात्।। | 13-216-38a 13-216-38b |
वार्तायां च समारम्भेऽमात्यमित्रपरिग्रहे। आवाहे च विवाहे च पुत्राणां वृत्तिकारणात्।। | 13-216-39a 13-216-39b |
अर्थोदयसमावाप्तावनर्थस्य विघातने। एवमादिषु चान्येषु अर्थार्थं विसृजेद्धनम्।। | 13-216-40a 13-216-40b |
अनुबन्धं हेतुयुक्तं दृष्ट्वा वित्तं परित्यजेत्। अनर्थं बाधते ह्यर्थो अर्तं चैव फलान्युत।। | 13-216-41a 13-216-41b |
नाधनाः प्राप्नुन्त्यर्थं नरा यत्नशतैरपि। तस्माद्धनं रक्षितव्यं दातव्यं च विधानतः।। | 13-216-42a 13-216-42b |
शरीरपोषणार्थाय आहारस्य विशोषणे। नट*****धर्वसंयोगे कामयात्राविहारयोः।। | 13-216-43a 13-216-43b |
मनःप्रियाणां संयोगे प्रीतिदाने तथैव च। एवमादिषु चान्येषु कामार्तं विसृजेद्धनम्।। | 13-216-44a 13-216-44b |
विचार्य गुणदोषांस्तु त्रयाणां तत्र संत्यजेत्। चतुर्थं सन्निदध्याच्च आपदर्थं शुचिस्मिते।। | 13-216-45a 13-216-45b |
राज्यभ्रंशविनाशार्थं दुर्भिक्षार्थं च शोभने। महाव्याधिविमोक्षार्थं वार्धकस्यैव कारणात्।। | 13-216-46a 13-216-46b |
शत्रूणां प्रतिकाराय साहसैश्चाप्यमर्षणात्। प्रस्थाने चान्यदेशार्थमापदां विप्रमोक्षणे। एवमादि समुद्दिश्य सन्निदध्यात्स्वकं धनम्।। | 13-216-47a 13-216-47b 13-216-47c |
सुखमर्थवतां लोके कृच्छ्राणां विप्रमोक्षणम्। यस्य नास्ति धनं किञ्चित्तस्य लोकद्वयं न च।। | 13-216-48a 13-216-48b |
अशनादिन्द्रियाणीव सर्वमर्थात्प्रवर्तते। निधानमात्रं यस्तेषामन्यथा विलयं व्रजेत्। एवं देवि मनुष्याणां लोकानां जीवनं प्रति।। | 13-216-49a 13-216-49b 13-216-49c |
एवं लोकस्य वृत्तस्य लोकवृत्तं पुनः शृणु। धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं च परमं यशः।। | 13-216-50a 13-216-50b |
त्रिवर्गो हि वशे युक्तः सर्वेषां संविधीयते। तथा संवर्तमानास्तु लोकयोर्हितमाप्नुयुः।। | 13-216-51a 13-216-51b |
काल्योत्थानं च शौचं च देवब्राह्मणभक्तितः। गुरुणामेव शुश्रूषा ब्राह्मणेष्वभिवादनम्।। | 13-216-52a 13-216-52b |
प्रत्युत्थानं च वृद्धानां देवस्थानप्रणामनम्। आभिमुख्यं पुरस्कृत्य अतिथीनां च पूजनम्।। | 13-216-53a 13-216-53b |
वृद्धोपदेशकरणं श्रवणं हितपथ्ययोः। पोषणं भूत्यवर्गस्य सान्त्वदानपरिग्रहे।। | 13-216-54a 13-216-54b |
न्यायतः कर्मकरणमन्यायाहितवर्जितम्। सम्यग्वृत्तं स्वदारेषु दोषाणां प्रतिषेधनम्।। | 13-216-55a 13-216-55b |
पुत्राणां विनयं कुर्यात्तत्तत्कार्यनियोजनम्। वर्जनं चाशुभार्थानां शुभानां जोषणं तथा।। | 13-216-56a 13-216-56b |
कुलोचितानां धर्माणां यतावत्परिपालनम्। कुलसन्धारणं चैव पौरुषेणैव सर्वशः। एवमादि शुभं सर्वं तस्य वृत्तमिति स्थितम्।। | 13-216-57a 13-216-57b 13-216-57c |
वृद्धसेवी भवेन्नित्यं हितार्थं ज्ञानकाङ्क्षया। परार्थं नाहरेद्द्रव्यमनामन्त्र्य तु सर्वथा। न याचेत परान्धीरः स्वबाहुबलमाश्रयेत्।। | 13-216-58a 13-216-58b 13-216-58c |
स्वशरीरं सदा रक्षेदाहाराचारयोरपि। हितं पथ्यं सदाहारं जीर्णं भुञ्जीत मात्रया।। | 13-216-59a 13-216-59b |
देवतातिथिसत्कारं कृत्वा सर्वं यथाविधि। शेषं भुञ्जेच्छुचिर्भूत्वा न च भाषेत विप्रियम्।। | 13-216-60a 13-216-60b |
प्रतिश्रयं च पानीयं बलिं भिक्षां च सर्वतः। गृहस्थवासी सततं तद्याद्गाश्चैव पोषयेत्।। | 13-216-61a 13-216-61b |
बहिर्निष्क्रमणं चैव कुर्यात्कारणतोपि वा। मध्याह्ने वाऽर्धरात्रे वा गमनाय न रोचयेत्।। | 13-216-62a 13-216-62b |
विषयान्नावगाहेत स्वशक्त्या तु समाचरेत्। यथाऽऽयव्ययता लोके गृहस्थानां प्रपूजितम्।। | 13-216-63a 13-216-63b |
अयशस्करमर्थघ्नं कर्म यत्परपीडनम्। भयाद्वा यदि लोभाद्वा न कुर्वीत कदाचन।। | 13-216-64a 13-216-64b |
बुद्धिपूर्वं समालोक्य दूरतो गुणदोषतः। आरभेत तदा कर्भ शुभं वा यदि वेतरत्।। | 13-216-65a 13-216-65b |
आत्मसाक्षी भवेन्नित्यमात्मनस्तु शुभाशुभे। मनसा कर्मणा वाचा न च काङ्क्षेत पातकम्।। | 13-216-66a 13-216-66b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 216 ।। |
अनुशासनपर्व-215 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-217 |