महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-010
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शुभाशुभकर्मफलप्रतिपादनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-10-1x |
कर्मणां च समस्तानां फलिनां भरतर्षभ। फलानि महतां श्रेष्ट प्रब्रूहि परिपृच्छतः।। | 13-10-1a 13-10-1b |
भीष्म उवाच। | 13-10-2x |
हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां पृच्छसि भारत। रहस्यं यदृषीणां तु तच्छृणुष्व युधिष्ठिर। या गतिः प्राप्यते येन प्रेत्यभावे चिरेप्सिता।। | 13-10-2a 13-10-2b 13-10-2c |
येनयेन शरीरेण यद्यत्कर्म करोति यः। तेनतेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते।। | 13-10-3a 13-10-3b |
यस्यांयस्यामवस्थायां यत्करोति शुभाशुभम्। तस्यांतस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनिजन्मनि।। | 13-10-4a 13-10-4b |
न नश्यति कृतं कर्म चित्तपञ्चेन्द्रियैरिह। ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा शुभाशुभे।। | 13-10-5a 13-10-5b |
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्। अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः।। | 13-10-6a 13-10-6b |
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते। श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्।। | 13-10-7a 13-10-7b |
स्थण्डिलेषु शयानानां गृहाणि शयनानि च। चीरवल्कलसंवीते वासांस्याभरणानि च।। | 13-10-8a 13-10-8b |
वाहनानि च यानानि योगात्मनि तपोधने। अग्नीनुपशयानस्य राज्ञः पौरुषमेव च।। | 13-10-9a 13-10-9b |
रसानां प्रतिसंहारे सौभाग्यमनुगच्छति। आमिषप्रतिसंहारे पशून्पुत्रांश्च विन्दति।। | 13-10-10a 13-10-10b |
अवाक्शिरास्तु यो लम्बेदुदवासं च यो वसेत्। मण्डूकशायी च नरो लभते चेप्सितां गतिम्।। | 13-10-11a 13-10-11b |
पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम्। दद्यादतिथिपूजार्थं स यज्ञः पञ्चदक्षिणः।। | 13-10-12a 13-10-12b |
वीरासनं वीरशय्यां वीरस्थानमुपासतः। अक्षयास्तस्य वै लोकाः सर्वकामगमास्तथा।। | 13-10-13a 13-10-13b |
धनं लभेत दानेन मौनेनाज्ञां विशांपते। उपभोगांश्च तपसा ब्रह्मचर्येण जीवितम्।। | 13-10-14a 13-10-14b |
रूपमैश्वर्यमारोग्यमहिंसाफलमश्नुते। फलमूलाशिनो राज्यं स्वर्गः पर्णाशिनां भवेत्।। | 13-10-15a 13-10-15b |
प्रायोपवेशिनो राजन्सर्वत्र सुखमुच्यते। गवाढ्यः शाकदीक्षायां स्वर्गगामी तृणाशनः।। | 13-10-16a 13-10-16b |
स्त्रियस्त्रिषवणं स्नात्वा वायुं पीत्वा क्रतुं लभेत्। स्वर्गं सत्येन लभते दीक्षया कुलमुत्तमम्।। | 13-10-17a 13-10-17b |
सलिलाशी भवेद्यस्तु सदाग्निः संस्कृतो द्विजः। मरुत्साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशिने।। | 13-10-18a 13-10-18b |
उपवासं च दीक्षायामभिषेकं च पार्थिव। कृत्वा द्वादशवर्षाणि वीरस्थानाद्विशिष्यते।। | 13-10-19a 13-10-19b |
अधीत्य सर्ववेदान्वै सद्यो दुःखाद्विमुच्यते। `तत्पाठधारणात्स्वर्गमर्थज्ञानात्परां गतिम्।। | 13-10-20a 13-10-20b |
वितृष्णानां वेदजपात्स्वर्गमोक्षफलं स्मृतम्।' मानसं हि चरन्धर्म स्वर्गलोकमुपाश्नुते।। | 13-10-21a 13-10-21b |
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः। योसौप्राणान्तिकोरोगस्तांतृष्णां त्यजतः सुखं।। | 13-10-22a 13-10-22b |
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।। | 13-10-23a 13-10-23b |
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च। स्वकालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम्।। | 13-10-24a 13-10-24b |
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः। चक्षुः श्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका न तु जीर्यते।। | 13-10-25a 13-10-25b |
येन प्रीणन्ति पितरस्तेन प्रीतः प्रजापतिः। माता च येन प्रीणाति पृथिवी तेन पूजिता। येन प्रीणात्युपाध्यायस्तेन स्याद्ब्रह्म पूजितम्।। | 13-10-26a 13-10-26b 13-10-26c |
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः। अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः।। | 13-10-27a 13-10-27b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-10-28x |
भीष्मस्यैतद्वचः श्रुत्वा विस्मिताः कुरुपुङ्गवाः। आसन्प्रहृष्टमनसः प्रीतिमन्तोऽभवंस्तदा।। | 13-10-28a 13-10-28b |
यन्मन्त्रे भवति वृथोपयुज्यमाने यत्सोमे भवति वृथाऽभिषूयमाणे। यच्चाग्नौ भवति वृथाऽभिहूयमाने तत्सर्वं भवति वृथाऽभिधीयमाने।। | 13-10-29a 13-10-29b 13-10-29c 13-10-29d |
इत्येतदृषिणा प्रोक्तमुक्तवानस्मि भारत। शुभाशुभफलप्राप्तौ किमतः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-10-30a 13-10-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दशमोऽध्यायः।। 10 ।। |
13-10-2 गतिः फलम्। येन कर्मणा। प्रेत्यभावे मरणोत्तरं देहान्तरप्राप्तौ।। 13-10-5 अस्य कर्तुः।। 13-10-6 दद्यादभ्यागतायेति शेषः।। 13-10-8 वानप्रस्थधर्माणां फलान्याह स्थण्डिलेष्वित्यादिना।। 13-10-9 योगात्मनि योगयुक्तचित्ते।। 13-10-11 सततं चैकशायी यः स इति झ.पाठः। तत्र एकशायी ब्रह्मचर्यवान्।। 13-10-13 वीरा आसतेऽस्मिन्निति वीरासनं रणदेशं उपेत्य वीरशय्यां तत्र दीर्घनिद्रां च प्राप्य वीरस्थानं स्वर्गलोकम्।। 13-10-14 आज्ञामविच्छिन्नामिति शेषः। तपसा कृच्छ्रादिना जीवितमायुः।। 13-10-16 शाकदीक्षायां शाकमात्राशननियमे।। 13-10-17 क्रतुं संकल्पं सत्यसंकल्पत्वमिति यावत्। दीक्षया यज्ञेन।। 13-10-18 सदाग्निः अविच्छिन्नाग्निहोत्रः।। 13-10-19 अभिषेकं तीर्थाटनम्। वीरस्थानात्स्वर्गादपि विशिष्यते।। 13-10-22 मानसं धर्मं विवृणोति येति।।
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