महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-267
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति धर्मप्रमाणनिरूपणम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-267-1x |
इत्युक्तवति तद्वाक्यं कृष्णे देवकिनन्दने। भीष्मं शान्तनवं भूयः पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 13-267-1a 13-267-1b |
निर्णये वा महाबुद्धे सर्वधर्मविदांवर। प्रत्यक्षमागमो वेति किं तयोः कारणं भवेत्।। | 13-267-2a 13-267-2b |
भीष्म उवाच। | 13-267-3x |
नास्त्यत्रि संशयः कश्चिदिति मे वर्तते मतिः। शृणु वक्ष्यामि ते प्राज्ञ सम्यक्त्वं मेऽनुपृच्छसि।। | 13-267-3a 13-267-3b |
संशयः सुगमस्तत्र दुर्गमस्तस्य निर्णयः। दृष्टं श्रुतमनन्तं हि यत्र संशयदर्शन्।। | 13-267-4a 13-267-4b |
प्रत्यक्षं कारणं दृष्टं हैतुकं प्राज्ञमानिनः। नास्तीत्येवं व्यवस्यन्ति सत्यमागममेव वा।। | 13-267-5a 13-267-5b |
तदयुक्तं व्यवस्यन्ति बालाः पण्डितमानिनः। अथ सञ्चिन्त्यमेवैकं कारणं किं भवेदिति।। | 13-267-6a 13-267-6b |
शक्यं दीर्घेण कालेन युक्तेनामन्त्रितेन च। प्राणयात्रामनेकां च कल्पयानेन भारत।। | 13-267-7a 13-267-7b |
तत्परेणैव नान्येन शक्यते तत्तु कारणम्। हेतूनामन्तमासाद्य विपुलं ज्ञानमुत्तमम्।। | 13-267-8a 13-267-8b |
ज्योतिः सर्वस्य लोकस्य विपुलं प्रतिपद्यते। न त्वेव गमनं राजन्हेतुतो गमनं तथा। अग्राह्यमनिबद्धं च वाचा सम्परिवर्जयेत्।। | 13-267-9a 13-267-9b 13-267-9c |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-267-10x |
प्रत्यिक्षं लोकतः सिद्धिर्लोकश्चागमपूर्वकः। शिष्टाचारो बहुविधस्तन्मे ब्रूहि पितामहः।। | 13-267-10a 13-267-10b |
भीष्म उवाच। | 13-267-11x |
धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः। संस्था यत्नैरपि कृता कालेन प्रतिभिद्यते।। | 13-267-11a 13-267-11b |
अधर्मो धर्मरूपेण तृणैः कूप इवावृतः। ततस्तैर्भिद्यते वृत्तं शृणु चैव युधिष्ठिर।। | 13-267-12a 13-267-12b |
अवृत्त्या ये तु निन्दनि श्रुतत्यागपरायणाः। धर्मविद्वेषिणो मन्दा इत्युक्तस्तेषु संशयः।। | 13-267-13a 13-267-13b |
अतृप्यन्तस्तु साधूनां यावदागमबुद्धयः। परमित्येव सन्तुष्टास्तानुपास्स्व च पृच्छ च।। | 13-267-14a 13-267-14b |
कामार्थौ पृष्ठतः कृत्वा लोभमोहानुसारिणौ। धर्म इत्येव सम्बुद्धस्तानुपास्स्व च पृच्छ च।। | 13-267-15a 13-267-15b |
न तेषां भिद्यते वृत्तं यज्ञाः स्वाध्यायकर्म च। आचारः कारणं चैव धर्मश्चैकस्त्रयं पुनः।। | 13-267-16a 13-267-16b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-267-17x |
पुनरेव हि मे बुद्धि संशये परिमुह्यति। अपरो मज्जमानस्य परं तीरमपश्यतः।। | 13-267-17a 13-267-17b |
वेदः प्रत्यक्षमाचारः प्रमाणं तत्त्रयं यदि। पृथक्त्वं लभ्यते चैषां धर्मश्चैतत्त्रयं कथम्।। | 13-267-18a 13-267-18b |
भीष्म उवाच। | 13-267-19x |
धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः। यद्येवं मन्यसे राजंस्त्रिधा धर्मविचारणा।। | 13-267-19a 13-267-19b |
एक एवेति जानीहि त्रिधा धर्मस्य दर्शनम्। पृथक्त्वे च न मे बुद्धिस्त्रयाणामपि वै तथा।। | 13-267-20a 13-267-20b |
[उक्तो मार्गस्त्रयाणां च तत्तथैव समाचर। जिज्ञासा न तु कर्तव्या धर्मस्य परितर्कणात्।। | 13-267-21a 13-267-21b |
सदैव भरतश्रेष्ठ मा ते भूदत्र संशयः। अन्धो जड इवाशङ्की यद्ब्रवीमि तदाचर।। | 13-267-22a 13-267-22b |
अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतच्चतुष्टयम्। अजातशत्रो सेवस्य धर्म एष सनातनः।।] | 13-267-23a 13-267-23b |
ब्राह्मणेषु च वृत्तिर्या पितृपैतामहोचिता। तामन्वेहि महाबाहो धर्मस्यैते हि देशिकाः।। | 13-267-24a 13-267-24b |
प्रमाणमप्रमाणं वै यः कुर्यादबुधो जनः। न स प्रमाणतामर्हो विषादजननो हि सः।। | 13-267-25a 13-267-25b |
ब्राह्मणानेव सेवस्व सत्कृत्य बहुमान्य च। एतेष्वेव त्विमे लोकाः कृत्स्ना इति निबोध तान्।। | 13-267-26a 13-267-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 267 ।। |
13-267-2 श्रुतिप्रत्यक्षयोः किं बलवदिति प्रश्नः।। 13-267-4 श्रुत्यपेक्षया प्रत्यक्षं प्रबलं क्वचित्प्रत्यक्षापेक्षया श्रुतिरित्यर्थः।। 13-267-6 यदि त्वमपि एकमसंहतं ब्रह्म कारणं कथं भवेदिति संशयवानसि तर्हि दीर्घकालसेवनादिनाऽयमर्थो युक्तेन योगेन वेदितुं शक्यः।। 13-267-8 हेतूनामन्त्रिते वापि धर्मशास्त्रेण चोत्तमम् इति क.ट.थ.पाठः।। 13-267-9 लोकस्य प्रकाशं प्रतिपद्यत इति। तत्वागमसमे राजन्हेत्वन्तगमने तथेति च क.ट.थ.पाठः।। 13-267-10 लोकतः सिद्धिरनुमानं आगमपूर्वः शिष्टचारश्चेति प्रमाणानि एतेषां मध्ये किं प्रबलमिति प्रश्नार्थः।। 13-267-11 धर्मस्य प्रीयमाणस्य बलवद्भिर्महात्मभिः इति, काले विपरिविद्यत इति च क.ट.थ.पाठः।। 13-267-12 वृत्तं शिष्टाचारः।। 13-267-13 निन्दन्ति वृत्तम्। तेषु प्रत्यक्षानुमानाचारेषु।। 13-267-14 अतृप्यन्तो नित्यं सोत्कण्ठाः। आगमजन्या बुद्धयो येषां ते। परं श्रेष्ठं प्रमाणमित्यन्वयः।। 13-267-16 वृत्तं शीलम्। आचारः शौचादिः। कारणं वेदः। त्रयं मिलित्वा एको धर्मः। स धर्मः साधानीय इत्यर्थः। येनैषां भिद्यते वृत्तं यज्ञस्वाध्यायकर्मभिः। मूलावारस्तु साधूनां यज्ञस्वाध्यायवृत्तत इति क.ट.थ.पाठः।। 13-267-19 हे राजन्, यद्येवं धर्मत्रयं मन्यसे तन्नेति शेषः। किन्तु ह्रियमाणस्यैकस्यैव धर्मस्य त्रिधा त्रिप्रकारा विचारणा। एकएव प्रमाणत्रयुसंवादेन परीक्षणीय इत्यर्थः।। 13-267-20 त्रिधेत्यस्य व्याख्यानं एकएवेति। त्रयाणां प्रमाणानां पृथक्त्वे प्रत्येकं स्वातन्त्र्येण धर्मप्रतिपादकत्वे मम बुद्धिर्न च। एवमेव विजानीहि इति क.ट.थ.पाठः।। 13-267-22 अशङ्की शङ्काशून्यः ।।
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