महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-077
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गुरुनियोगाद्दिव्यपुष्पनयनार्थं गतेन विपुलेन मध्येमार्गं नरवरमिथुनात्स्वगतिनिन्दाश्रवणम्।। 1 ।। निन्दितगतिप्रापकस्वदुश्चरितं चिन्तयता तेन चिराय तदनुस्मरणम्।। 2 ।।
भीष्म उवाच। | 13-77-1x |
विपुलस्त्वकरोत्तीव्रं तपः कृत्वा गुरोर्वचः। तपोयुक्तमथात्मानममन्यत स वीर्यवान्।। | 13-77-1a 13-77-1b |
स तेन कर्मणा स्वर्गं पृथिवीं पृथिवीपते। चचार गतभीः प्रीतो लब्धकीर्तिवरो नृप।। | 13-77-2a 13-77-2b |
उभौ लोकौ जितौ चापि तथैवामन्यत प्रभुः। कर्मणा तेन कौरव्य तपसा विपुलेन च।। | 13-77-3a 13-77-3b |
अथ काले व्यतिक्रान्ते कस्मिंश्चित्कुरुनन्दन। रुच्या भगिन्या आदानं प्रभूतदनधान्यवत्।। | 13-77-4a 13-77-4b |
एतस्मिन्नेव काले तु दिव्या काचिद्वराङ्गना। बिभ्रती परमं रूपं जगामाथ विहायसा।। | 13-77-5a 13-77-5b |
तस्याः शरीरात्पुष्पाणि पतितानि महीतले। तस्याश्रमस्याविदूरे दिव्यगन्धानि भारत।। | 13-77-6a 13-77-6b |
तान्यगृह्णात्ततो राजन्रुचिर्ललितलोचना। तदा निमन्त्रकस्तस्या अङ्गेभ्यः क्षिप्रमागमत्।। | 13-77-7a 13-77-7b |
तस्या हि भगिनी तात ज्येष्ठा नाम्ना प्रभावती। भार्या चित्ररथस्याथ बभूवाङ्गेश्वरस्य वै।। | 13-77-8a 13-77-8b |
पिनह्य तानि पुष्पाणि केशेषु वरवर्णिनी। आमन्त्रिता ततोऽगच्छद्रुचिरङ्गपतेर्गृहम्।। | 13-77-9a 13-77-9b |
पुष्पाणि तानि दृष्ट्वा तु तदाङ्गेन्द्रवराङ्गना। भगिनीं चोदयामास पुष्पार्थे चारुलोचना।। | 13-77-10a 13-77-10b |
सा भर्त्रे सर्वमाचष्ट रुचिः सुरुचिरानना। भगिन्या भाषितं सर्वमृषिस्तच्चाभ्यनन्दत।। | 13-77-11a 13-77-11b |
ततो विपुलमानाय्य देवशर्मा महातपाः। पुष्पार्थे चोदयामास गच्छगच्छेति भारत।। | 13-77-12a 13-77-12b |
विपुलस्तु गुरोर्वाक्यमविचार्य महातपाः। स तथेत्यब्रवीद्राजंस्तं च देशं जगाम ह।। | 13-77-13a 13-77-13b |
यस्मिन्देशे तु तान्यासन्पतितानि नभस्तलात्। अम्लानान्यपि तत्रासन्कुसुमान्यपराण्यपि।। | 13-77-14a 13-77-14b |
स ततस्तानि जग्राह दिव्यानि रुचिराणि च। प्राप्तानि स्वेन तपसा दिव्यगन्धानि भारत।। | 13-77-15a 13-77-15b |
सम्प्राप्य तानि प्रीतात्मा गुरोर्वचनकारकः। तदा जगाम तूर्णं च चम्पां चम्पकमालिनीम्।। | 13-77-16a 13-77-16b |
स वने निर्जने तात ददर्श मिथुनं नृणाम्। चक्रवत्परिवर्तन्तं गृहीत्वा पाणिना करम्।। | 13-77-17a 13-77-17b |
तत्रैकस्तूर्णमगमत्तत्पदे च विवर्तयन्। एकस्तु न तदा राजंश्चक्रतुः कलहं ततः।। | 13-77-18a 13-77-18b |
त्वं शीघ्रं गच्छसीत्येकोऽब्रवीन्नेति तथाऽपरः। पतितेति च तौ राजन्परस्परमथोचतुः।। | 13-77-19a 13-77-19b |
तयोर्विस्पर्धतोरेवं शपथोऽयमभूत्तदा। सहसोद्दिश्य विपुलं ततो वाक्यमथोचतुः।। | 13-77-20a 13-77-20b |
आवयोरनृतं प्राह यस्तस्याभूद्द्विजस्य वै। विपुलस्य परे लोके या गतिः सा भवेदिति।। | 13-77-21a 13-77-21b |
एतच्छ्रुत्वा तु विपुलो विषण्णवदनोऽभवत्। एवं तीव्रतपाश्चाहं कष्टश्चायं परिश्रमः।। | 13-77-22a 13-77-22b |
मिथुनस्यास्य किं मे स्यात्कृतं पापं यथा गतिः। अनिष्टा सर्वभूतानां कीर्तिताऽनेन मेऽद्य वै।। | 13-77-23a 13-77-23b |
एवं सञ्चिन्तयन्नेव विपुलो राजसत्तम। अवाङ्मुखो दीनमना दध्यौ दुष्कृतमात्मनः।। | 13-77-24a 13-77-24b |
ततः षडन्यान्पुरुषानक्षैः काञ्चनराजतैः। अपश्यद्दीव्यमानान्वै लोभामर्षान्वितांस्तथा।। | 13-77-25a 13-77-25b |
कुर्वतः शपथं तेन यः कृतो मिथुनेन तु। विपुलं वै समुद्दिश्य तेपि वाक्यमथाब्रुवन्।। | 13-77-26a 13-77-26b |
लोभमास्थाय योऽस्माकं विषमं कर्तुमुत्सहेत्। विपुलस्य परे लोके या गतिस्तामवाप्नुयात्। | 13-77-27a 13-77-27b |
एतच्छ्रुत्वा तु विपुलो नापश्यद्धर्मसङ्करम्।। जन्मप्रभृति कौरव्य कृतपूर्वमथात्मनः।। | 13-77-28a 13-77-28b |
स प्रदध्यौ तथा राजन्नग्नावग्निरिवाहितः। दह्यमानेन मनसा शापं श्रुत्वा तथाविधम्।। | 13-77-29a 13-77-29b |
तस्य चिन्तयतस्तात बह्वीर्वाचो निशम्य तु। इदमासीन्मनसि च रुच्या रक्षणकारितम्।। | 13-77-30a 13-77-30b |
लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च। विधाय न मया चोक्तं सत्यमेतद्गुरोस्तथा।। | 13-77-31a 13-77-31b |
एतदात्मनि कौरव्य दुष्कृतं विपुलस्तदा। अमन्यत महाभाग तथा तच्च न संशयः।। | 13-77-32a 13-77-32b |
स चम्पां नगरीमेत्य पुष्पाणि गुरवे ददौ। पूजयामास च गुरुं विधिवत्स गुरुप्रियः।। | 13-77-33a 13-77-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।। |
13-77-4 आदीयतेऽस्मिन्बान्धवैर्दत्तं उपायनादिकं स आदानं ******द्युत्सवः। प्रभूतं बहुधनादिकं यत्र।। 13-77-7 निमन्त्रकः आकारणार्थं दूतः।। 13-77-18 तत्पदे इतरस्य पदे पांसुषु व्यक्ते आकर्षणेन विवर्तयन् विषमतां नयन्।। 13-77-21 वचः श्रुत्वा तथाविधमिति ध.पाठः।। 13-77-30 रुच्याः गुरुभार्यायाः।। 13-77-31 लक्षणं स्त्रीपुंसयोरसाधारणं चिह्नं विधाय एकीकृत्य।।
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