महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-239
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति दानत्रैविध्यात्तत्फलत्रैविध्यादिकथनम्।। 1 ।। तथा दानफलस्य पञ्चविधत्वप्रतिपादनम्।। 2 ।। तथा नानाधर्मतत्फलप्रतिपादनम्।। 3 ।।
उमोवाच। | 13-239-1x |
एवं कृतस्य धर्मस्य श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो। प्रमाणं फलमानानां तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-239-1a 13-239-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-239-2x |
प्रमाणकल्पनां देवि दानस्य शृणु भामिनि।। | 13-239-2a |
यत्सारस्तु नरो लोके तद्दानं चोत्तमं स्मृतम्। सर्वदानविधिं प्राहुस्तदेव भुवि शोभने।। | 13-239-3a 13-239-3b |
प्रस्थं सारं दरिद्रस्य शतं कोटिधनस्य च। प्रस्थसारस्तु तत्प्रस्थं ददन्महदषाप्नुयात्।। | 13-239-4a 13-239-4b |
कोटिसारस्तु तां कोटिं ददान्महदवाप्नुयात्। उभयं तन्महत्तच्च फलेनैव समं स्मृतम्।। | 13-239-5a 13-239-5b |
धर्मार्थकामभोगेषु शक्त्यभावस्तु मध्यमम्। स्वद्रव्यादतिहीनं तु तद्दानमधमं स्मृतम्।। | 13-239-6a 13-239-6b |
शृणु दत्तस्य वै देवि पञ्चधा फलकल्पनाम्। आनन्त्यं च महच्चैव समं हीनं हि पातकम्।। | 13-239-7a 13-239-7b |
तेषां विशेषं वक्ष्यामि शृणु देवि समाहिता। दुस्त्यजस्य च वै दानं पात्र आनन्त्यमुच्यते।। | 13-239-8a 13-239-8b |
दानं षङ्गुणयुक्तं तु महदित्यभिधीयते। यथाश्रद्धं तु वै दानं यथार्हं सममुच्यते।। | 13-239-9a 13-239-9b |
गुणतस्तु तथा हीनं दानं हीनमिति स्मृतम्। दानं पातकमित्याहुः षड्गुणानां विपर्यये।। | 13-239-10a 13-239-10b |
देवलोके महत्कालमान्त्यस्य फलं विदुः। महतस्तु तथा कालं स्वर्गलोके तु पूज्यते।। | 13-239-11a 13-239-11b |
समस्य तु तदा दानं मानुष्यं भोगमावहेत्। दानं निष्फलमित्याहुर्विहीनं क्रियया शुभे।। | 13-239-12a 13-239-12b |
अथवा म्लेच्छदेशेषु तत्र तत्फलतां व्रजेत्। नरकं प्रेत्य तिर्यक्षु गच्छेदशुभदानतः।। | 13-239-13a 13-239-13b |
उमोवाच। | 13-239-14x |
अशुभस्यापि दानस्य शुभं स्याच्च फलं कथम्।। | 13-239-14a |
महेश्वर उवाच। | 13-239-15x |
मनसा तत्वतः शुद्धमानृशंस्यपुरःसरम्। प्रीत्या तु सर्वदानानि दत्त्वा फलमवाप्नुयात्।। | 13-239-15a 13-239-15b |
रहस्यं सर्वदानानामेतद्विद्धि शुभेक्षणे। अन्यानि धर्मकार्याणि शृणु सद्भिः कृतानि च।। | 13-239-16a 13-239-16b |
आरामदेवगोष्ठानि संक्रमाः कूप एव च। गोवाटश्च तटाकश्च सभा शाला च सर्वशः।। | 13-239-17a 13-239-17b |
पाषण्डावसथश्चैव पानीयं गोतृणानि च। व्याधितानां च भैषज्यमनाथानां च पोषणम्।। | 13-239-18a 13-239-18b |
अनाथशवसंस्कारस्तीर्थमार्गविशोधनम्। व्यसनाभ्यवपत्तिश्च सर्वेषां च स्वशक्तितः।। | 13-239-19a 13-239-19b |
एतत्सर्वं समासेन धर्मकार्यमिति स्मृतम्। तत्कर्तव्यं मनुष्येण स्वशक्त्या श्रद्धया शुभे।। | 13-239-20a 13-239-20b |
प्रेत्यभावे लभेत्पुण्यं नास्ति तत्र विचारणा। रूपं सौभाग्यमारोग्यं बलं सौख्यं लभेन्नरः। स्वर्गो वा मानुषे वाऽपि तैस्तैराप्यायते हि सः।। | 13-239-21a 13-239-21b 13-239-21c |
उमोवाच। | 13-239-22x |
भगवन्लोकपालेश धर्मस्तु कतिभेदकः। दृश्यते परितः सद्भिस्तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-239-22a 13-239-22b |
महेश्वर उवाच। | 13-239-23x |
शृणु देवि समुद्देशान्नानात्वं धर्मसङ्कटे। धर्मा बहुविधा लोके श्रुतिभेदमुखोद्भवाः।। | 13-239-23a 13-239-23b |
स्मृतिधर्मश्च बहुधा सद्भिराचार इष्यते।। | 13-239-24a |
देशधर्माश्च दृश्यन्ते कुलधर्मास्तथैव च। जातिधर्माश्च वै धर्मा गणधर्माश्च शोभने।। | 13-239-25a 13-239-25b |
शरीरकालवैषम्यादापद्धर्मश्च दृश्यते। एतद्धर्मस्य नानात्वं क्रियते लोकवासिभिः।। | 13-239-26a 13-239-26b |
कारणात्तत्रतत्रैव फलं धर्मस्य चेष्यते। तत्कारणसमायोगे लभेत्कुर्वन्फलं नरः।। | 13-239-27a 13-239-27b |
अन्यथा न लभेत्पुण्यमतदर्हः समाविशेत्। एवं धर्मस्य नानात्वं फलं कुर्वल्लँभेन्नरः।। | 13-239-28a 13-239-28b |
श्रौतस्मार्तस्तु धर्माणां प्राकृतो धर्म उच्यते। इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-239-29a 13-239-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 239 ।। |
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