महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-172
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शरीरसौन्दर्यादिफलकचान्द्रव्रताचरणप्रकारकथनम्।। 1 ।।
[वैशम्पायन उवाच। | 13-172-1x |
शरतल्पगतं भीष्मं वृद्धं कुरुपितामहम्। उपगम्य महाप्राज्ञः पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 13-172-1a 13-172-1b |
अङ्गानां रूपसौभाग्यं प्रियं चैव कथं भवेत्। धर्मार्थकामसंयुक्तः सुखभागी कथं भवेत्।। | 13-172-2a 13-172-2b |
भीष्म उवाच। | 13-172-3x |
मार्गशीर्षस्य मासस्य चन्द्रे मूलेन संयुते। पादौ मूलेन राजेन्द्रि जङ्घायामथ रोहिणीम्।। | 13-172-3a 13-172-3b |
अश्विन्यां सक्थिनी चैव ऊरू चाषाढयोस्तथा। गुह्यं तु फाल्गुनी विद्यात्कृत्तिका कटिकास्तथा।। | 13-172-4a 13-172-4b |
नाभिं भाद्रपदे विद्याद्रेवत्यामक्षिमण्डलम्। पृष्ठमेव धनिष्ठासु अनुराधोत्तरास्तथा।। | 13-172-5a 13-172-5b |
बाहुभ्यां तु विशाखासु हस्तौ हस्तेन निर्दिशेत्। पुनर्वस्वङ्गुली राजन्नाश्लेषासु नखास्तथा।। | 13-172-6a 13-172-6b |
ग्रीवां ज्येष्ठा च राजेन्द्र श्रवणेन तु कर्णयोः। मुखं पुष्येण दानेन दन्तोष्ठौ स्वातिरुच्यते।। | 13-172-7a 13-172-7b |
हासं शतभिषां चैव मघां चैवाथ नासिकाम्। नेत्रे मृगशिरो विद्याल्ललाटे मित्रमेव तु।। | 13-172-8a 13-172-8b |
भरण्यां तु शिरो विद्यात्केशानार्द्रां नराधिप। समाप्ते तु घृतं दद्याद्ब्राह्मणे वेदपारगे।। | 13-172-9a 13-172-9b |
सुभगो दर्शनीयश्च ज्ञानभाग्यथ जानते। जायते परिपूर्णाङ्गः पौर्णमास्येव चन्द्रमाः।।] | 13-172-10a 13-172-10b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 172 ।। |
13-172-3 इष्टकामनासिद्ध्यर्थं चान्द्रव्रतमाह मार्गेति। मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदि मूलनक्षत्रयोगे स्तीदं चान्द्रं व्रतमारभेत। तत्र चन्द्रावयवेषु नक्षत्राणि न्यसेत् पादौ मूलेनेत्यादिना। स्वदेवतासहितेन मूलेन चन्द्रस्य पादौ कल्पयेदित्यर्थः। एवं रोहिण्यादिभिः सदेवताभिर्जङ्घादयः कल्पनीयाः। सर्वत्र विभक्तिव्यत्यय आर्षः।। 13-172-4 आषाढाद्वयं फाल्गुनीद्वयं भाद्रपदाद्वयं च ज्ञेयम्।। 13-172-10 एवं कुर्वन्विकलाङ्गोऽपि पौर्णमास्यां सकलाङ्गो भवति एतत्सदृष्टान्तमाह परिपूर्णाङ्ग इति।।
टिप्पणी
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