महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-178
← अनुशासनपर्व-177 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-178 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-179 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मांसगतगुणकथनपूर्वकं तद्भक्षणगर्हणम्।। 1 ।। तथा दयाया अहिंसायाश्च प्रशंसनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-178-1x |
इमे वै मानवा लोके भृशं मांसेषु गृद्धिनः। विसृज्य विविधान्भक्ष्यान्महारक्षोगणा इव।। | 13-178-1a 13-178-1b |
अपूपान्विविधाकाराञ्शाकानि विविधानि च। पादपान्रससंयुक्तान्न चेच्छन्ति यथाऽऽमिषम्।। | 13-178-2a 13-178-2b |
तत्र मे बुद्धिरत्रेव विषये परिमुह्यते। न मन्ये रसतः किञ्चिन्मांसतोऽस्तीति किञ्चन।। | 13-178-3a 13-178-3b |
तदिच्छामि गुणाञ्श्रोतुं मांसस्याभक्षणे प्रभो। भक्षणे चैव ये दोषास्तांश्चैव पुरुषर्षभ।। | 13-178-4a 13-178-4b |
सर्वसत्त्वेन धर्मज्ञ यथावदिह धर्मतः। किं वा भक्ष्यमभक्ष्यं वा सर्वमेतद्वदस्व मे।। | 13-178-5a 13-178-5b |
यथैतद्यादृशं चैव गुणा ये चास्य वर्जने। दोषा भक्षयतो येऽपि तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-178-6a 13-178-6b |
भीष्म उवाच। | 13-178-7x |
सर्वमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत। न मांसात्परमं किञ्चिद्रसतो विद्यते भुवि।। | 13-178-7a 13-178-7b |
क्षतक्षीणाभितप्तानां ग्राम्यधर्मरतात्मनाम्। अध्वना कर्शितानां च न मांसाद्विद्यते परम्।। | 13-178-8a 13-178-8b |
सद्यो वर्धयति प्राणान्पुष्टिमग्र्यां दधाति च। `नाशो भक्षणदोषः स्याद्दानमेव सदा मतम्।। | 13-178-9a 13-178-9b |
क्षुधितानां द्विजानां च सर्वेषां चापि जीवितम्। दत्त्वा भवति पूतात्मा श्रद्धया लोभवर्जितः।। | 13-178-10a 13-178-10b |
शिक्षयन्ति न याचन्ते दर्शयन्ति स्वमूर्तिभिः। अवस्थेयमदानस्य मा भूदेवं भवानिति। दानाद्यः सुशुचिर्मांसं पुनर्नैव च भक्षयेत्।। | 13-178-11a 13-178-11b 13-178-11c |
न भक्ष्योऽभ्याधिकः कश्चिन्मांसादस्ति परंतप। विवर्जने तु बहवो गुणाः कौरवनन्दन। ये भवन्ति मनुष्याणां तान्मे निगदतः शृणु।। | 13-178-12a 13-178-12b 13-178-12c |
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति। नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नरः।। | 13-178-13a 13-178-13b |
न हि प्राणात्प्रियतरं लोके किञ्चन विद्यते। तस्माद्दयां नरः कुर्याद्यथाऽऽत्मनि तथा परे।। | 13-178-14a 13-178-14b |
शुक्राच्च तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशयः। भक्षणे तु महान्दोषो मलेन स हि कल्प्यते।। | 13-178-15a 13-178-15b |
`अहिंसालक्षणो धर्म इति वेदविदो विदुः। यदहिंस्रं भवेत्कर्म तत्कुर्यादात्मविन्नरः।। | 13-178-16a 13-178-16b |
पितृदैवतयज्ञेषु प्रोक्षितं हविरुच्यते।' विधिना वेददृष्टेन तद्भुक्त्वेह न दुष्यति।। | 13-178-17a 13-178-17b |
यज्ञार्थे पशवः सृष्टा इत्यपि श्रूयते श्रुतिः। अतोऽन्यथा प्रवृत्तानां राक्षसो विधिरुच्यते।। | 13-178-18a 13-178-18b |
क्षत्रियाणां तु यो दृष्टो विधिस्तमपि मे शृणु। वीर्येणोपार्जितं मांसं यथा भुञ्जन्न दुष्यति।। | 13-178-19a 13-178-19b |
आरण्याः सर्वदैवत्याः सर्वशः प्रोक्षिता मृगाः। अगस्त्येन पुरा राजन्मृगया येन पूज्यते।। | 13-178-20a 13-178-20b |
`रक्षणार्थाय भूतानां हिंस्रान्हन्यान्मृगान्पुनः। नात्मानमपरित्यज्य मृगया नाम विद्यते।। | 13-178-21a 13-178-21b |
समतामुपसङ्गम्य रूपं हन्यान्न वा नृप। अतो राजर्षयः सर्वे मृगयां यान्ति भारत। न हि लिप्यन्ति पापेन न चैतत्पातकं भुवि।। | 13-178-22a 13-178-22b 13-178-22c |
न ह्यतः सदृशं किञ्चिदिह लोके परत्र च। यत्सर्वेष्विह भूतेषु दया कौरवन्दन।। | 13-178-23a 13-178-23b |
न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः। दयावतामिमे लोकाः परे चापि तपस्विनाम्।। | 13-178-24a 13-178-24b |
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः। अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम।। | 13-178-25a 13-178-25b |
क्षतं च स्खलितं चैव पतितं क्लिन्नमाहतम्। सर्वभूतानि रक्षन्ति समेषु विषमेषु च। | 13-178-26a 13-178-26b |
नैनं व्यालमृगा घ्नन्ति न पिशाचा न राक्षसाः। मुच्यते भयकालेषु मोक्षयेद्यो भये परान्।। | 13-178-27a 13-178-27b |
प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति। न ह्यात्मनः प्रियतरं किञ्चिदस्तीह निश्चितम्।। | 13-178-28a 13-178-28b |
अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत। मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायति वेपथुः।। | 13-178-29a 13-178-29b |
व्याधिजन्मजरादुःखैर्नित्यं संसारसागरे। जन्तवः परिवर्तन्ते मरणादुद्विजन्ति च।। | 13-178-30a 13-178-30b |
गर्भवासेषु पच्यन्ते क्षाराम्लकटुकै रसैः। मूत्रस्वेदपुरीषाणां परुषैर्भृशदारुणैः।। | 13-178-31a 13-178-31b |
जाताश्चाप्यवशास्तत्र च्छिद्यमानाः पुनःपुनः। हन्यमानाश्च दृश्यन्ते विवशा मांसगृद्धिनः।। | 13-178-32a 13-178-32b |
कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः। आक्रम्य मार्यमाणाश्च त्रास्यन्त्यन्ये पुनःपुनः।। | 13-178-33a 13-178-33b |
नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिवीमनुसृत्य ह। तस्मात्प्राणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान्भवेत्।। | 13-178-34a 13-178-34b |
सर्वमांसानि यो राजन्यावज्जीवं न भक्षयेत्। आश्वासं विपुलं स्थानं प्राप्नुयान्नात्र संशयः।। | 13-178-35a 13-178-35b |
ये भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम्। भक्ष्यन्ते तेऽपि भूतैस्तैरिति मे नास्ति संशयः।। | 13-178-36a 13-178-36b |
मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम्। एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत।। | 13-178-37a 13-178-37b |
घातको वध्यते नित्यं तथा बध्येत बन्धकः। आक्रोष्टा क्रुध्यते राजन्द्वेष्टा द्वेष्यत्वमाप्नुते।। | 13-178-38a 13-178-38b |
येनयेन शरीरेण यद्यत्कर्म करोति यः। तेनतेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते।। | 13-178-39a 13-178-39b |
अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः।। | 13-178-40a 13-178-40b |
अहिंसा परमं मिमहिंसा परमं सुखम्।। सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वा प्लुतम्। | 13-178-41a 13-178-41b |
सर्वदानफलं वाऽपि नैतत्तुल्यमहिंसया।। अहिंसस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो जयते सदा। | 13-178-42a 13-178-42b |
अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता।। एतत्फलमहिंसायां भूयश्च कुरुपुङ्गव। | 13-178-43a 13-178-43b |
न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि।। | 13-178-44a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 178 ।। |
13-178-15 दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यत इति झ.पाठः।। 15 ।। 13-178-21 किञ्च हन्यमानात्पशोः स्ववधस्यापि सम्भवात् प्राणपणेनेयं क्रियमाणा मृगया न दोषायेत्याह नात्मानमिति ।। 21 ।। 13-178-37 मां सः पूर्वजन्मनि भक्षितवानत एव तस्य मांसमहं भक्षयिष्यामीति व्यवहारान्मांसपदनिरुक्तिः।।
अनुशासनपर्व-177 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-179 |