महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-052
← अनुशासनपर्व-051 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-052 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-053 → |
उत्तरदिगभिमानिदेवतया स्वीयप्रार्थनायाः स्त्रीचापलप्रदर्शनाद्यर्थकत्वकथनपूर्वकमष्टावक्रस्य धर्मोपदेशेन स्वगृहम्प्रति प्रेषणम्।। 1 ।। अष्टावक्रेण वदान्यकन्यापाणिग्रहणेन स्वाश्रमे सुखनिवासः।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-52-1x |
न बिभेति कथं सा स्त्री शापाच्च परमद्युते। कथं निवृत्तो भगवांस्तद्भवान्प्रब्रवीतु मे।। | 13-52-1a 13-52-1b |
भीष्म उवाच। | 13-52-2x |
अष्टावक्रोऽन्वपृच्छत्तां रूपं विकुरुषे कथम्। न चानृतं ते वक्तव्यं ब्रूहि ब्राह्मणकाम्यया।। | 13-52-2a 13-52-2b |
स्त्र्युवाच। | 13-52-3x |
द्यावापृथिव्योर्यत्रैषा काम्या ब्राह्मणसत्तम। शृणुष्वावहितः सर्वं यदिदं सत्यविक्रम।। | 13-52-3a 13-52-3b |
जिज्ञासेयं प्रयुक्ता मे स्थैर्यं कर्तुं तवानघ। अव्युत्थानेन ते लोका जिताः सत्यपराक्रम।। | 13-52-4a 13-52-4b |
उत्तरां मां दिशं विद्धि दृष्टं स्त्रीचापलं च ते। स्थविराणामपि स्त्रीणां बाधते मैथुनज्वरः।। | 13-52-5a 13-52-5b |
`अविश्वासो न व्यसनी नातिसक्तोऽप्रवासकः। विद्वान्सुशीलः पुरुषः सदारः सुखमश्नुते।।' | 13-52-6a 13-52-6b |
तुष्टः पितामहस्तेऽद्य तथा देवाः सवासवाः।। | 13-52-7a |
सत्वं येन च कार्येण सम्प्राप्तो भगवानिह। प्रेषितस्तेन विप्रेण कन्यापित्रा द्विजर्षभः।। | 13-52-8a 13-52-8b |
प्रेषितश्चोपदेशाय तच्च सर्वं श्रुतं त्वया।। | 13-52-9a |
`नितान्तं स्त्री भोगपरा प्रियवादाप्रवासनात्। रक्ष्यते चाकुचेलाद्यैरप्रसङ्गानुवर्तनैः।। | 13-52-10a 13-52-10b |
अपर्वस्वनिषिद्धासु रात्रिष्वप्यनृतौ व्रजेत्। रात्रौ च नातिनियमो न वै ह्यनियमो भवेत्।।'।। | 13-52-11a 13-52-11b |
क्षेमैर्गमिष्यसि गृहं श्रमश्च न भविष्यति। कन्यां प्राप्स्यसि तां विप्र पुत्रिणी च भविष्यति।। | 13-52-12a 13-52-12b |
काम्यया पृष्टवांस्त्वं मां ततो व्याहृतमुत्तरम्। अनतिक्रमणीया साकृत्स्नैर्लोकैस्त्रिभिः सदा।। | 13-52-13a 13-52-13b |
गच्छस्व कृतकृत्यस्त्वं किं वाऽन्यच्छ्रोतुमिच्छसि। यावद्ब्रवीमि विप्रर्षे अष्टावक्र यथातथम्।। | 13-52-14a 13-52-14b |
ऋषिणा प्रसादिता चास्मि तव हेतोर्द्विजर्षभ। तस्य सम्माननार्थं मे त्वयि वाक्यं प्रभाषितम्।। | 13-52-15a 13-52-15b |
भीष्म उवाच। | 13-52-16x |
श्रुत्वा तु वचनं तस्याः स विप्रः प्राञ्जलिः स्थितः। अनुज्ञातस्तया चापि स्वगृहं पुनराव्रजत्।। | 13-52-16a 13-52-16b |
गृहमागत्य विश्रान्तः स्वजनं परिपृच्छ्य च। अभ्यागच्छच्च तं विप्रं न्यायतः कुरुनन्दन।। | 13-52-17a 13-52-17b |
पृष्टश्च तेन विप्रेण दृष्टं त्वेतन्निदर्शनम्। प्राह विप्रं तदा विप्रः सुप्रीतेनान्तरात्मना।। | 13-52-18a 13-52-18b |
भवताऽहमनुज्ञातः प्रास्थितो गन्धमादनम्। तस्य चोत्तरतो देशे दृष्टं मे दैवतं महत्।। | 13-52-19a 13-52-19b |
तया चाहमनुज्ञातो भवांश्चापि प्रकीर्तितः। श्रावितश्चापि तद्वाक्यं गृहं चाभ्यागतः प्रभो।। | 13-52-20a 13-52-20b |
तमुवाच तदा विप्रः सुतां प्रतिगृहाण मे। नक्षत्रतिथिसंयोगे पात्रं हि परमं भवान्।। | 13-52-21a 13-52-21b |
भीष्म उवाच। | 13-52-22x |
अष्टावक्रस्तथेत्युक्त्वा प्रतिगृह्य च तां प्रभो। कन्यां परमधर्मात्मा प्रीतिमांश्चाभवत्तदा।। | 13-52-22a 13-52-22b |
कन्यां तां प्रतिगृह्यैव भार्यां परमशोभनाम्। उवास मुदितस्तत्र श्वाश्रमे विगतज्वरः।। | 13-52-23a 13-52-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणिः द्विपञ्चाशोऽध्यायः।। 52 ।। |
13-52-2 विकुरुषेऽन्यथान्यथा करोषि। ब्राह्मणकाम्यया ब्राह्मणमानलिप्सया।। 13-52-3 द्यावापृथिव्योः दिवि पृथिव्यां च यत्र स्थीयते तत्र एषा काम्या स्त्रीपुंसयोः अन्योन्याभिलाषरूपा इच्छास्तीत्यर्थः।। 13-52-4 मे मया।। 13-52-8 तत्कार्यं ज्ञापयामीति शेषः। 13-52-13 सा काम्याऽनतिक्रमणीया।। 13-52-15 ऋषिणा वदान्येन।।
अनुशासनपर्व-051 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-053 |