महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-137
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्राद्धे निमन्त्रणार्हानर्हाणां लक्षणनिरूपणम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-137-1x |
कीदृशेभ्यः प्रदातव्यं भवेच्छ्राद्धं पितामह। द्विजेभ्यः कुरुशार्दूल तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-137-1a 13-137-1b |
भीष्म उवाच। | 13-137-2x |
ब्राह्मणान्न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित्। दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्यायमाहुः परीक्षणम्।। | 13-137-2a 13-137-2b |
देवताः पावयन्तीह दैवेनैवेह तेजसा। उपेत्य तस्माद्देवेभ्यः सर्वेभ्यो दापयेन्नरः।। | 13-137-3a 13-137-3b |
श्राद्धे त्वथ महाराज परीक्षेद्ब्राह्मणान्बुधः। कुलशीलवयोरूपैर्विद्ययाऽभिजनेन च।। | 13-137-4a 13-137-4b |
तेषामन्ये पङ्क्तिदूष्यास्तथाऽन्ये पङ्क्तिपावनाः। अपाङ्क्तेयास्तु ये राजन्कीर्तयिष्यामि ताञ्शृणु।। | 13-137-5a 13-137-5b |
कितवो भ्रूणहा यक्ष्मीं पशुपालो निराकृतिः। ग्रामप्रेष्यो वार्धुषिको गायनः सर्वविक्रयी।। | 13-137-6a 13-137-6b |
अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी। सामुद्रिको राजभृत्यस्तैलिकः कूटकारकः।। | 13-137-7a 13-137-7b |
पित्रा विभजमानश्च यस्य चोपपतिर्गृहे। अभिशस्तस्तथा स्तेनः शिल्पं यश्चोपजीवती।। | 13-137-8a 13-137-8b |
पर्वकारश्च सूची च मित्रध्रुक् पारदारिकः। अव्रतानामुपाध्यायः काण्डपृष्ठस्तथैव च।। | 13-137-9a 13-137-9b |
श्वभिश्च यः परिक्रामेद्यः शुना दष्ट एव च। परिवित्तिश्च यश्च स्याद्दुश्चर्मा गुरुतल्पगः। | 13-137-10a 13-137-10b |
कुशीलवो देवलको नक्षत्रैर्यश्च जीवती।। ईदृशैर्ब्राह्मणैर्भुक्तमपाङ्क्तेयैर्युधिष्ठिर। | 13-137-11a 13-137-11b |
रक्षांसि गच्छते हव्यमित्याहुर्ब्रह्मवादिनः।। श्राद्धं भुक्त्वा त्वधीयीत वृषलीतल्पगश्च यः। | 13-137-12a 13-137-12b |
पुरीषे तस्य ते मासं पितरस्तस्य शेरते। सोमविक्रयिणे विष्ठा भिषजे पूयशोणितम्।। | 13-137-13a 13-137-13b |
नष्टं देवलके दत्तमप्रतिष्ठं च वार्धुषे। यत्तु वाणिजके दत्तं नेह नामुत्र तद्भवेत्। भस्मनीव हुतं हव्यं तथा पौनर्भवे द्विजे।। | 13-137-14a 13-137-14b 13-137-14c |
ये तु धर्मव्यपेतेषु चारित्रापगतेषु च। हव्यं कव्यं प्रयच्छन्ति येषां तत्प्रेत्य नश्यति।। | 13-137-15a 13-137-15b |
ज्ञानपूर्वं तु ये तेभ्यः प्रयच्छन्त्यल्पबुद्धयः। पुरीषं भुञ्जते तस्य पितरः प्रेत्य निश्चयः।। | 13-137-16a 13-137-16b |
एतानिमान्विजानीयादपाङ्क्तेयान्द्विजाधमान्। शूद्राणामुपदेशं च ये कुर्वन्त्यल्पचेतसः।। | 13-137-17a 13-137-17b |
षष्टिं काणः शतं षण्डः श्वित्री यावत्प्रपश्यति। पङ्क्त्यां समुपविष्टायां तावद्दूषयते नृप।। | 13-137-18a 13-137-18b |
यद्वेष्टितशिरा भुङ्क्ते यद्भुङ्क्ते दक्षिणामुखः। सोपानत्कश्च यद्भुङ्क्ते सर्वं विद्यात्तदासुरम्।। | 13-137-19a 13-137-19b |
असूयता च यदत्तं यच्च श्रद्धाविवर्जितम्। सर्वं तदसुरेन्द्राय ब्रह्मा भागमकल्पयत्।। | 13-137-20a 13-137-20b |
श्वानश्च पङ्क्तिदूषाश्च नावेक्षेरन्कथञ्चन। तस्मात्परिसृते दद्यात्तिलांश्चान्ववकीरयेत्।। | 13-137-21a 13-137-21b |
तिलैर्विरहितं श्राद्धं कृतं क्रोधवशेन च। यातुधानाः पिशाचाश्च विप्रलुम्पन्ति तद्धविः।। | 13-137-22a 13-137-22b |
अपाङ्क्तो यावतः पाङ्क्तान्भुञ्जानाननुपश्यति। तावत्फलाद्धंशयति दातारं तस्य बालिशम्।। | 13-137-23a 13-137-23b |
इमे तु भरतश्रेष्ठ विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः। हेतुतस्तान्प्रवक्ष्यामि परीक्षस्वेह तान्द्विजान्।। | 13-137-24a 13-137-24b |
विद्यावेदव्रतस्नाता ब्राह्मणाः सर्व एव हि। सदाचारपराश्चैव विज्ञेयाः सर्वपावनाः।। | 13-137-25a 13-137-25b |
पाङ्क्तेयांस्तु प्रवक्ष्यामि ज्ञेयास्ते पङ्क्तिपावनाः। त्रिणाचिकेतः पञ्चाग्निस्त्रिसुपर्णः षडङ्गवित्।। | 13-137-26a 13-137-26b |
ब्रह्मदेयानुसन्तानश्छन्दोगो ज्येष्ठसामगः। मातापित्रोर्यश्च वश्यः श्रोत्रियो दशपूरुषः।। | 13-137-27a 13-137-27b |
ऋतुकालाभिगामी च धर्मपत्नीषु यः सदा। वेदविद्याव्रतस्नातो विप्रः पङ्क्तिं पुनात्युत।। | 13-137-28a 13-137-28b |
अथर्वशिरसोऽध्येता ब्रह्मचारी यतव्रतः। सत्यवादी धर्मशीलः स्वकर्मनिरतश्च सः।। | 13-137-29a 13-137-29b |
ये च पुण्येषु तीर्थेषु अभिषेककृतश्रमाः। मखेषु च समन्त्रेषु भन्त्यवभृथप्लुताः।। | 13-137-30a 13-137-30b |
अक्रोधना ह्यचपलाः क्षान्ताः दान्ता जितेन्द्रियाः। सर्वभूतहिता ये च श्राद्धेष्वेतान्निमन्त्रयेत्।। | 13-137-31a 13-137-31b |
एतेषु दत्तमक्षय्यमेते वै पङ्क्तिपावनाः। इमे परे महाभागा विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः।। | 13-137-32a 13-137-32b |
यतयो मोक्षधर्मज्ञा योगिनश्चरितव्रताः। `पञ्चरात्रविदो मुख्यास्तथा भागवताः परे।। | 13-137-33a 13-137-33b |
वैखानसाः कुलश्रेष्ठा वैदिकाचारचारिणः।' ये चेतिहासं प्रयताः श्रावयन्ति द्विजोत्तमान्।। | 13-137-34a 13-137-34b |
ये च भाष्यविदः केचिद्ये च व्याकरणे रताः। अधीयते पुराणं ये धर्मशास्त्राण्यथापि च।। | 13-137-35a 13-137-35b |
अधीत्य च यथान्यायं विधिवत्तस्य कारिणः। उपपन्नो गुरुकुले सत्यवादी सहस्रशः।। | 13-137-36a 13-137-36b |
अग्र्याः सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च। यावदेते प्रपश्यन्ति पङ्क्त्यास्तावत्पुनन्त्युत।। | 13-137-37a 13-137-37b |
ततो हि पावनात्पङ्क्त्याः पङ्क्तिपावन उच्यते। क्रोशादर्धतृतीयाच्च पावयेदेक एव हि। ब्रह्मदेयानुसन्तान इति ब्रह्मविदो विदुः।। | 13-137-38a 13-137-38b 13-137-38c |
अनुत्विगनुपाध्यायः स चेदग्रासनं व्रजेत्। ऋत्विग्भिरभ्यनुज्ञातः पङ्क्त्या हरति दुष्कृतम्।। | 13-137-39a 13-137-39b |
अथ चेद्वेदवित्सर्वैः पङ्क्तिदोषैर्विवर्जितः। न च स्यात्पतितो राजन्पङ्क्तिपावन एव सः।। | 13-137-40a 13-137-40b |
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन परीक्ष्यामन्त्रयेद्द्विजान्। स्वकर्मनिरतान्दान्तान्कुले जातान्बहुश्रतान्।। | 13-137-41a 13-137-41b |
यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च। न प्रीणन्ति पितॄन्देवान्स्वर्गं च न स गच्छति।। | 13-137-42a 13-137-42b |
यश्च श्राद्धे कुरुते सङ्गतानि न देवयानेन पथा स याति। स वै मुक्तः पिप्पलं बन्धनाद्वा स्वर्गाल्लोकच्च्यवते श्राद्धमित्रः।। | 13-137-43a 13-137-43b 13-137-43c 13-137-43d |
तस्मान्मित्रं श्राद्धकृन्नाद्रियेत दद्यान्मित्रेभ्यः सङ्ग्रहार्थं धनानि। यन्मन्यते नैव शत्रुं न मित्रं तं मध्यस्थं भोजयेद्धव्यकव्ये।। | 13-137-44a 13-137-44b 13-137-44c 13-137-44d |
यथोषरे बीजमुप्तं न रोहे- न्नचावप्ता प्राप्नुयाद्बीजभागम्। एवं श्राद्धं भुक्तमनर्हमाणै- र्न चेह नामुत्र फलं ददाति।। | 13-137-45a 13-137-45b 13-137-45c 13-137-45d |
ब्राह्मणो ह्यनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति। तस्मै श्राद्धं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते।। | 13-137-46a 13-137-46b |
सम्भोजनी नाम पिशाचदक्षिणा सा नैव देवान्न पितॄनुपैति। इहैव सा भ्राम्यति हीनपुण्या शालान्तरे गौरिव नष्टवत्सा।। | 13-137-47a 13-137-47b 13-137-47c 13-137-47d |
यथाऽग्नौ शान्ते घृतमाजुहोति तन्नैव देवान्न पितॄनुपैति। तथा दत्तं नर्तके गायके च यां चानृते दक्षिणामावृणोति।। | 13-137-48a 13-137-48b 13-137-48c 13-137-48d |
उभौ हिनस्ति न भुनक्ति चैषा या चानृते दक्षिणा दीयते वै। आघातिनी गर्हितैषा पतन्ती तेषां प्रेतान्पातयेद्देवयानात्।। | 13-137-49a 13-137-49b 13-137-49c 13-137-49d |
ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर। निश्चिताः सर्वधर्मज्ञास्तान्देवा ब्राह्मणान्विदुः।। | 13-137-50a 13-137-50b |
स्वाध्यायनिष्ठा ऋषयो ज्ञाननिष्ठास्तथैव च। तपोनिष्ठाश्च बोद्धव्याः कर्मनिष्ठाश्च भारत।। | 13-137-51a 13-137-51b |
कव्यानि ज्ञाननिष्ठेभ्यः प्रतिष्ठाप्यानि भारत। तत्र ये ब्राह्मणान्केचिन्न सीदन्ति हि ते नराः।। | 13-137-52a 13-137-52b |
ये तु निन्दन्ति जल्पेषु न ताञश्राद्धेषु भोजयत्। ब्राह्मणा निन्दिता राजन्हन्युस्त्रैपुरुषं कुलम्।। | 13-137-53a 13-137-53b |
वैखानसानां वचनमृषीणां श्रूयते नृप। दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणान्वेदपारगान्।। | 13-137-54a 13-137-54b |
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यस्तेषां तु श्राद्धमावपेत्।। | 13-137-55a |
यः सहस्रं सहस्राणां भोजयदेनृचो नरः। एकस्तान्मन्त्रवित्प्रीतः सर्वानर्हति भारत।। | 13-137-56a 13-137-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 137 ।। |
13-137-3 देवेभ्यो देवानुद्दिश्य। सर्वेभ्यो विप्रेभ्यः।। 13-137-5 तेषामन्ये पङ्क्तिदूषा इति झ.पाठः।। 13-137-6 निराकृतिरध्ययनादिशून्यः। वार्धुषिको वृद्ध्यर्थं धनप्रयोक्ता।। 13-137-7 कुण्डाशी भगभक्षः। तैलिकस्तत्कर्मकृत्। कूटसाक्षिक इति ट.पाठः।। 13-137-8 पित्रा विवदमानश्चेति झ.पाठः।। 13-137-9 पर्वकारो वेषान्तरधारी। सूची पिशुनः। अव्रतानां शूद्राणाम्। काण्डपृष्ठः शस्त्राजीवी।। 13-137-10 श्वभिः परिक्रामेन्मृगयां कुर्वन्।। 13-137-18 षष्टिंशतं पुरुषानिति शेषः।। 13-137-20 असुरेन्द्राय बलये।। 13-137-21 परिसृते आवृतदेशे।। 13-137-22 तिलदानेप्यदायादा ये च क्रोधवशा गणाः। यातुधानाः पिशाचाश्च न प्रलुपन्ति तद्धविरिति थ.ध.पाठः।। 13-137-26 त्रिसुपर्णं चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा इति बह्वृचानां मन्त्रत्रयं वा ब्रह्ममेतुमाम् इत्यादितैत्तिरीयप्रसिद्धं वा। षडङ्गानि शिक्षादीनि।। 13-137-27 ब्रह्म देवः परविद्या वा तदेव देयं येषां तेषामनुसन्तानः परम्परायामुत्पन्नः ब्रह्मदेयानुसन्तानः।। 13-137-30 मुखेषु च सहस्रेष्विति थ.पाठ।। 13-137-42 मित्रमेव प्रधानं न योग्यत्वादिकं येषु तानि।। 13-137-43 श्राद्धेन निमित्तेन सङ्गतानि सख्यानि।। 13-137-47 सम्भोजनी अन्योन्यं दीयमाना।। 13-137-48 यां च दक्षिणामनृते अपात्रे आवृणोति प्रयच्छति।। 13-137-49 न भुनक्ति न पालयति। आघातिनी हन्त्री।।
अनुशासनपर्व-136 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-138 |