महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-005
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इन्द्रेण पुनर्ब्राह्मण्यप्राप्तये तपस्यते मतङ्गाय ब्राह्मण्यस्य दुष्प्रापत्वकथनपूर्वकमितराभीष्टवरदानम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-5-1x |
एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः। सहस्रमेकपादेन ततो ध्याने व्यतिष्ठत।। | 13-5-1a 13-5-1b |
तं सहस्रावरे काले शक्रो द्रष्टुमुपागमत्। तदेव च पुनर्वाक्यमुवाच बलवृत्रहा।। | 13-5-2a 13-5-2b |
मतङ्ग उवाच। | 13-5-3x |
इदं वर्षसहस्रं वै ब्रह्मचारी समाहितः। अतिष्ठमेकपादेन ब्राह्मण्यं नाप्नुयां कथम्।। | 13-5-3a 13-5-3b |
शक्र उवाच। | 13-5-4x |
चण्डालयोनो जातेन नावाप्यं वै कथञ्चन। अन्यं कामं वृणीष्व त्वं मा वृथा तेऽस्त्वयं श्रमः।। | 13-5-4a 13-5-4b |
एवमुक्तो मतङ्गस्तु भृशं शोकपरायणः। अध्यतिष्ठद्गयां गत्वा सोऽङ्गुष्टेन शतं समाः।। | 13-5-5a 13-5-5b |
सुदुर्वहं वहन्योगं कृशो धमनिसन्ततः। त्वगस्थिभूतो धर्मात्मा स ततापेति नः श्रुतम्।। | 13-5-6a 13-5-6b |
तं तपन्तमभिद्रुत्य पाणिं जग्राह वासवः। वराणामीश्वरो दाता सर्वभूतहिते रतः।। | 13-5-7a 13-5-7b |
शक्र उवाच। | 13-5-8x |
मतङ्ग ब्राह्मणत्वं ते विरुद्धमिह दृश्यते। ब्राह्मण्यं दुर्लभतरं संवृतं परिपन्थिभिः।। | 13-5-8a 13-5-8b |
पूजयन्सुखमाप्नोति दुःखमाप्नोत्यपूजयन्। ब्राह्मणे सर्वभूतानां योगक्षेमः समाहितः।। | 13-5-9a 13-5-9b |
ब्राह्मणेभ्योऽनुतृप्यन्ते पितरो देवतास्तथा। ब्राह्मणः सर्वभूतानां मतङ्ग पर उच्यते।। | 13-5-10a 13-5-10b |
ब्राह्मणः कुरुते तद्धि यथा यद्यच्च वाञ्छति।। | 13-5-11a |
बह्वीस्तु संसरन्योनीर्जायमानः पनुःपुनः। पर्याये तात कस्मिंश्चिद्ब्राह्मण्यमिह विन्दति।। | 13-5-12a 13-5-12b |
तदुत्सृज्येह दुष्प्रापं ब्राह्मण्यमकृतात्मभिः। अन्यं वरं वृणीष्व त्वं दुर्लभोऽयं हि ते वरः।। | 13-5-13a 13-5-13b |
किं मां तुदसि दुःखार्तं मृतं मारयसे च माम्। त्वां तु शोचामि यो लब्ध्वा ब्राह्मण्यं न बुभूषसे।। | 13-5-14a 13-5-14b |
ब्राह्मण्यं यदि दुष्प्रापं त्रिभिर्वर्णैर्दुरासदम्। सुदुर्लभं सदावाप्य नानुतिष्ठन्ति मानवाः।। | 13-5-15a 13-5-15b |
ये पापेभ्यः पापतमास्तेषामधम एव सः। ब्राह्मण्यं योऽवजानीते धनं लब्ध्वेव दुर्लभम्।। | 13-5-16a 13-5-16b |
दुष्प्रापं खलु विप्रत्वं प्राप्तं दुरनुपालनम्। दुरवापमवाप्यैतन्नानुतिष्ठन्ति मानवाः।। | 13-5-17a 13-5-17b |
एकारामो ह्यहं शक्र निर्न्द्वद्वो निष्परिग्रहः। अहिंसादममास्थाय कथं नार्हामि विप्रताम्।। | 13-5-18a 13-5-18b |
दैवं तु कथमेतद्वै यदहं मातृदोषतः। एतामवस्थां सम्प्राप्तो धर्मज्ञः सन्पुरन्दरं।। | 13-5-19a 13-5-19b |
नूनं दैवं न शक्यं हि पौरुषेणातिवर्तितुम्। यदर्थं यत्नवानेव न लभे विप्रतां विभो।। | 13-5-20a 13-5-20b |
एवंगते तु धर्मज्ञ दातुमर्हसि मे वरम्। यदि तेऽहमनुग्राह्यः किचिद्वा सुकृतं मम।। | 13-5-21a 13-5-21b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-5-22x |
वृणीष्वेति तदा प्राह ततस्तं बलवृत्रहा। चोदितस्तु महेन्द्रेण मतङ्गः प्राब्रवीदिदम्।। | 13-5-22a 13-5-22b |
यथा कामविहारी स्यां कामरूपी विहङ्गमः। ब्रह्मक्षत्राविरोधेन पूजां च प्राप्नुयामहम्।। | 13-5-23a 13-5-23b |
यथा ममाक्षया कीर्तिर्भवेच्चापि पुरन्दर। कर्तुमर्हसि तद्देव शिरसा त्वां प्रसादये।। | 13-5-24a 13-5-24b |
शक्र उवाच। | 13-5-25x |
मतङ्ग गम्यतां शीघ्रमेवमेतद्भविष्यति। स्त्रियः सर्वास्त्वया लोके यक्ष्यन्ते भूतिकर्मणि।। | 13-5-25a 13-5-25b |
छन्दोदेव इति ख्यातः स्त्रीणां पूज्यो भविष्यसि। कीर्तिश्च तेऽतुला वत्स त्रिषु लोकेषु यास्यति।। | 13-5-26a 13-5-26b |
एवं तस्मै वरं दत्त्वा वासवोऽन्तरधीयत। प्राणांस्त्यक्त्वा मतङ्गोपि प्राप तत्स्थानमुत्तमम्।। | 13-5-27a 13-5-27b |
एवमेव परं स्थानं मर्त्यानां भरतर्षभ। ब्राह्मण्यं नाम दुष्प्रापमिन्द्रेणोक्तं महात्मना।। | 13-5-28a 13-5-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चमोध्यायः।। 5 ।। |
13-5-1 सहस्रं वत्सराम्।। 13-5-7 अभिद्रुत्य गत्वा।। 13-5-8 परिपन्थिभिः कामाद्यैश्चोरैः संवृतमतो दुःसंरक्ष्यमपीत्यर्थः।। 13-5-9 अपूजयन् ब्राह्मण्यमिति शेषः।। 13-5-10 ब्राह्मणेभ्यस्तद्द्वारा देवादयस्तृप्यन्तीत्यर्थः।। 13-5-11 यद्यद्वाञ्छति तत्तत्कुरुते।। 13-5-15 नानुतिष्ठन्ति तदुचितान् शमदमादीन्न सेवन्तेऽतः प्राप्तमपि दुःसंरक्ष्यमिति भावः।। 13-5-16 अवजानीते अवज्ञां करोति। न रक्षतीति यावत्।। 13-5-19 दैवं प्राक्कर्म। यत् यतः एतां अब्राह्मणत्वरूपाम्।।
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