महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-205
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नारदेन कृष्णंप्रति उमामहेश्वरसंवदानुवादारम्भः।। 1 ।। नानामुनिगणाकीर्णहिमवत्तटमुपविष्टे महादेवे तत्पृष्ठभागमुपागतया पार्वत्या क्रीडार्थं स्वपाणिभ्यां तदीयनयनद्वयपिधानम्।। 2 ।। तदा जगत आन्ध्यप्राप्तौ देवेन स्वललाटे तृतीयनेत्रसर्जनम्।। 3 ।। तत्तेजसा निर्दग्धे गिरौ देवीप्रार्थनया देवेन पुनर्गिरेरुज्जीवनम्।। 4 ।।
नारद उवाच। | 13-205-1x |
भगवंस्तीर्थयात्रार्थं तथैव चरता मया। दिव्यमद्भुतसङ्काशं दृष्टं हैमवतं वनम्।। | 13-205-1a 13-205-1b |
नानावृक्षसमायुक्तं नानापक्षिगणैर्वृतम्। नानरत्नगणाकीर्णं नानाभावसमन्वितम्।। | 13-205-2a 13-205-2b |
दिव्यचन्दनसंयुक्तं दिव्यधूपेन धूपितम्। दिव्यपुष्पसमाकीर्णं दिव्यगन्धेन वासितम्।। | 13-205-3a 13-205-3b |
सिद्धचारणसंघातैर्भूतसङ्घैर्निषेवितम्। वरिष्ठाप्सरसाकीर्णं नागगन्धर्वसङ्कुलम्।। | 13-205-4a 13-205-4b |
मृदङ्गमुरजोद्धुष्टं शङ्खवीणाभिनादितम्। नृत्यद्भिर्भूतसङ्घैश्च सर्वतस्त्वभिशोभितम्।। | 13-205-5a 13-205-5b |
नानारूपैर्विरूपैश्च भीमरूपैर्भयानकैः। सिंहव्याघ्रोरगमृगैर्बिडालवदनैस्तथा।। | 13-205-6a 13-205-6b |
स्वरोष्ट्रद्वीपिवदनैर्गजवक्त्रैस्तथैव च। उलूकश्येनवदनैः काकगृध्रमुखैस्तथा।। | 13-205-7a 13-205-7b |
एवं बहुविधाकारैर्भूतसङ्घैर्भृशाकुलम्। नानद्यमानं बहुधा हरपारिषदैर्भृशम्।। | 13-205-8a 13-205-8b |
घोररूपं सुदुर्दर्शं रक्षोगणशतैर्वृतम्। समाजं तद्वने दृष्टं मया भूतपतेः पुरा।। | 13-205-9a 13-205-9b |
प्रनृत्ताप्सरसं दिव्यं देवगन्धर्वनादितम्। प्रथमे वर्षरात्रे तु मेघसङ्घनिनादितम्।। | 13-205-10a 13-205-10b |
नानाबर्हिणसंघुष्टं गजयूथसमाकुलम्। षट्पदैरुपगीतं च प्रथमे मासि माधवे।। | 13-205-11a 13-205-11b |
उत्क्रोशत्क्रौञ्चकुररैः सारसैर्जीवजीवकैः। मत्ताभिः परपुष्टाभिः कूजन्तीभिः समाकुलम्।। | 13-205-12a 13-205-12b |
उत्तमावाससङ्काशं भीमरूपतरं ततः। द्रष्टुं भवति धर्मस्य धर्मभागिजनस्य च।। | 13-205-13a 13-205-13b |
ये चोध्वरेतसः सिद्धास्तत्रतत्र समागताः। मार्ताण्डरश्मिसञ्चारा विश्वेदेवगणास्तथा।। | 13-205-14a 13-205-14b |
तथा नागास्तथा दिव्या लोकपाला हुताशनाः। वाताश्च सर्वे चायान्ति दिव्यपुष्पसमाकुलाः।। | 13-205-15a 13-205-15b |
किरन्तः सर्वपुष्पाणि किरन्तोऽद्भुतदर्शनाः। ओषध्यः प्रज्वलन्त्यश्च द्योतयन्त्यो दिशो दश।। | 13-205-16a 13-205-16b |
विहगाश्च मुदा युक्ता नृत्यन्ति च नदन्ति च। ततः समन्ततस्तत्र दिव्या दिव्यजनप्रियाः।। | 13-205-17a 13-205-17b |
तत्र देवो गिरितटे हेमधातुविभूषिते। पर्यङ्क इव बभ्राज उपविष्टो महाद्युतिः।। | 13-205-18a 13-205-18b |
व्याघ्रचर्मपरीधानो गजचर्मोत्तरच्छदः। व्यालयज्ञोपवीतश्च लोहितान्त्रविभूषितः।। | 13-205-19a 13-205-19b |
हरिश्मश्रुजटो भीमो भयकर्ताऽमरद्विषाम्। भयहेतुरभक्तानां भक्तानामभयङ्करः।। | 13-205-20a 13-205-20b |
किन्नरैर्देवगन्धर्वैः स्तूयमानस्ततस्ततः। ऋषिभिश्चाप्सरोभिश्च सर्वतश्चैव शोभितः।। | 13-205-21a 13-205-21b |
तत्र भूतपतेः स्थानं देवदानवसङ्कुलम्। सर्वतेजोमयं भूम्ना लोकपालनिषेवितम्।। | 13-205-22a 13-205-22b |
महोरगसमाकीर्णं सर्वेषां रोमहर्षणम्। भीमरूपमनिर्देश्यमप्रधृष्यतमं विभोः।। | 13-205-23a 13-205-23b |
तत्र भूतपतिं देवमासीनं शिखरोत्तमे। ऋषयो भूतसङ्घाश्च प्रणम्य शिरसा हरम्। गीर्भिः परमशुद्धाभिस्तुष्टुवुस्च मनोहरम्।। | 13-205-24a 13-205-24b 13-205-24c |
विमुक्ताश्चैव पापेभ्यो बभूवुर्विगतज्वराः। ऋषयो बालकिल्याश्च तथा विप्रर्षयश्च ये।। | 13-205-25a 13-205-25b |
अयोनिजा योनिजाश्च तपःसिद्धा महर्षयः। ततस्तं देवदेवेशं भगवन्तमुपासते। | 13-205-26a 13-205-26b |
ततस्तस्मिन्क्षणे देवी भूतस्त्रीगणसंवृता। हरतुल्याम्बरधरा समानव्रतचारिणी।। | 13-205-27a 13-205-27b |
काञ्चनं कलशं गृह्य सर्वतीर्थाम्बुपूरितम्। पुष्पवृष्ट्याऽभिवर्षन्ती दिव्यगन्धसमावृता।। | 13-205-28a 13-205-28b |
सरिद्वराभिः सर्वाभिः पृष्ठतोऽनुगता वरा। सेवितुं भगवत्पार्श्वमाजगाम शुचिस्मिता।। | 13-205-29a 13-205-29b |
आगम्य तु गिरेः पुत्री देवदेवस्य चान्तिकम्। मनःप्रियं चिकीर्षन्ती क्रीडार्थं शङ्करान्तिके।। | 13-205-30a 13-205-30b |
मनोहराभ्यां पाणिभ्यां हरनेत्रे पिधाय तु। अवेक्ष्य हृष्टा स्वगणान्स्मयन्ती पृष्ठतः स्थिता।। | 13-205-31a 13-205-31b |
देव्या चान्धीकृते देवे कश्मलं समपद्यत। निमीलिते भूतपतौ नष्टचन्द्रार्कतारकम्।। | 13-205-32a 13-205-32b |
निःस्वाध्यायवषट्कारं तमसा चाभिसंवृतम्। विषण्णं भयवित्रस्तं जगदासीद्भयाकुलम्।। | 13-205-33a 13-205-33b |
हाहाकारमृषीणां च लोकानामभवत्तदा। तमोभिभूते सम्भ्रान्ते लोके जीवनसंक्षये।। | 13-205-34a 13-205-34b |
तृतीयं चास्य सम्भूतं ललाटे नेत्रमायतम्। द्वादशादित्यसङ्काशं लोकान्भासाऽवभासयत्।। | 13-205-35a 13-205-35b |
तत्रक तेनाग्निना तेन युगान्ताग्निनिभेन वै। अदह्यत गिरिः सर्वो हिमवानग्रतः स्थितः।। | 13-205-36a 13-205-36b |
दह्यमाने गिरौ तस्मिन्मृगपक्षिसमाकुले। सविद्याधरगन्धर्वे दिव्यौषधसमाकुले।। | 13-205-37a 13-205-37b |
ततो गिरिसुता चापि विस्मयोत्फुल्ललोचना। बभूव च जगत्सर्वं तथा विस्मयसंयुतम्।। | 13-205-38a 13-205-38b |
पश्यतामेव सर्वेषां देवदानवरक्षसाम्। नेत्रजेनाग्निना तेन दग्ध एव नगोत्तमः।। | 13-205-39a 13-205-39b |
तं दृष्ट्वा मथितं शैलं शैलपुत्री सविक्लवा। पितुः सम्मानमिच्छन्ती पपात भुवि पादूयोः।। | 13-205-40a 13-205-40b |
तं दृष्ट्वा देवदेवेशो देव्या दुःखमनुत्तमम्। हैमवत्याः प्रियार्थं च गिरिं पुनरवैक्षत।। | 13-205-41a 13-205-41b |
दृष्टमात्रे भगवता सौम्ययुक्तेन चेतसा। क्षणेन हिमवाञ्शैलः प्रकृतिस्थोऽभवत्पुनः।। | 13-205-42a 13-205-42b |
हृष्टपुष्टविहङ्गैश्च प्रफुल्लद्रुमकाननः। सिद्धचारणसङ्घैश्च प्रीतियुक्तैः समाकुलः।। | 13-205-43a 13-205-43b |
पितरं प्रकृतिस्थं च दृष्ट्वा हैमवती भृशम्। अभवत्प्रीतिसंयुक्ता मुदितात्र पिनाकिनम्।। | 13-205-44a 13-205-44b |
देवी विस्मयसंयुक्ता प्रष्टुकामा महेश्वरम्। हितार्तं सर्वलोकानां प्रजानां हितकाम्यया। देवदेवं महादेवी बभाषेदं वचोऽर्थवत्।। | 13-205-45a 13-205-45b 13-205-45c |
भगवन्देवदेवेश शूलपाणे महाद्युते। विस्मयो मे महाञ्जातस्तस्मिन्नेत्राग्निसम्भवे।। | 13-205-46a 13-205-46b |
किमर्थं देवदेवेश ललाटेऽस्मिन्प्रकाशते। अतिसूर्याग्निसङ्काशं तृतीयं नेत्रमायतम्।। | 13-205-47a 13-205-47b |
नेत्राग्निना तु महता निर्दग्धो हिमवानसौ। पुनः संदृष्टमात्रस्तु प्रकृतिस्थः पिता मम।। | 13-205-48a 13-205-48b |
एष मे संशयो देव हृदि मे सम्प्रवर्तते। देवदेव नमस्तुभ्यं तन्मे संसितुमर्हसि।। | 13-205-49a 13-205-49b |
नारद उवाच। | 13-205-50x |
एवमुक्तस्तया देव्या प्रीयमाणोऽब्रवीद्भवः। स्थाने संशयितुं देवि धर्मज्ञे प्रियभाषिणि।। | 13-205-50a 13-205-50b |
त्वदृते मां हि वै प्रष्टुं न शक्यं केन चेत्प्रिये। प्रकाशं यदि वा गुह्यं प्रियार्थं प्रब्रवीम्यहम्।। | 13-205-51a 13-205-51b |
शृणु तत्सर्वमकिलमस्यां संसदि भामिनि। सर्वेषामेव लोकानां कूटस्थं विद्धि मां प्रिये।। | 13-205-52a 13-205-52b |
मदधीनास्त्रयो लोका यथा विष्णौ तथा मयि। स्रष्टा विष्णुरहं गोप्ता इत्येतद्विद्धि भामिनि।। | 13-205-53a 13-205-53b |
तस्माद्यदा मां स्पृशति शुभं वा यदि वेतरत्। तथैवेदं जगत्सर्वं तत्तद्भवति शोभने।। | 13-205-54a 13-205-54b |
एतद्गुह्यमजानन्त्या त्वया बाल्यादनिन्दिते। मन्नेत्रे पिहिते देवि क्रीडनार्थं दृढव्रते।। | 13-205-55a 13-205-55b |
तत्कृते नष्टचन्द्रार्कं जगदासीद्भयाकुलम्। नष्टादित्ये तमोभूते लोके गिरिसुते प्रिये।। | 13-205-56a 13-205-56b |
तृतीयं लोचनं सृष्टं लोकं संरक्षितुं मया। कथितं संशयस्थानं निर्विशङ्का भव प्रिये।। | 13-205-57a 13-205-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 205 ।। |
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