महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-017
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति भक्तिश्रद्धादीनां भुक्तिसाधनताप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1 ।।
`द्वैपायन उवाच। | 13-17-1x |
श्रद्दात्यागं निर्वृतिं चापि पूजां सत्यं धर्मं यः कृतं चाभ्युपैति। कामद्वेषौ त्यज्य सर्वेषु तुल्यः श्रद्धापूतः सर्वयज्ञेषु योग्यः।। | 13-17-1a 13-17-1b 13-17-1c 13-17-1d |
यस्मिन्यज्ञे सर्वभूताः प्रहृष्टाः सर्वे चारम्भाः शास्त्रदृष्टाः प्रवृत्ताः। धर्म्यैरर्थ्यैर्ये यजन्ते ध्रुवं ते पूतात्मानो धर्ममेकं भजन्ते।। | 13-17-2a 13-17-2b 13-17-2c 13-17-2d |
एकाक्षरं द्व्यक्षरमेकमेव सदा यजन्ते नियताः प्रतीताः। दृष्ट्वा मनागर्चयित्वा स्म विप्राः सतां मार्गं तं ध्रुवं सम्भजन्ते।। | 13-17-3a 13-17-3b 13-17-3c 13-17-3d |
पापात्मानः क्रोधरगाभिभूताः कृष्णे भक्ता नाम सङ्कीर्तयन्तः। पूतात्मानो यज्ञशीलाः सुमेधा यज्ञस्यान्ते कीर्तिलोकान्भजन्ते।। | 13-17-4a 13-17-4b 13-17-4c 13-17-4d |
एको वेदो ब्राह्मणानां बभूव चतुष्पादस्त्रिगुणो ब्रह्मशीर्षः। पादंपादं ब्राह्मणा वेदमाहु- स्त्रेताकाले तं च तं विद्धि शीर्षम्।।' | 13-17-5a 13-17-5b 13-17-5c 13-17-5d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
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