महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-092
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति तत्तद्दानानां विशिष्यफलकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-92-1x |
मुह्यामीति निशम्याद्य चिन्तयानः पुनःपुनः। हीनां पार्थिवसिंहैस्तैः श्रीमद्भिः पृथिवीमिमाम्।। | 13-92-1a 13-92-1b |
प्राप्य राज्यानि शतशो महीं जित्वाऽपि भारत। कोटिशः पुरुषान्हत्वा परितप्ये पितामह।। | 13-92-2a 13-92-2b |
का नु तासां वरस्त्रीणामवस्थाऽद्य भविष्यति। या हीनाः पतिभिः पुत्रैर्मातुलैर्भ्रातृभिस्तथा।। | 13-92-3a 13-92-3b |
वयं हि तान्कुरुन्हत्वा ज्ञातींश्च सुहृदोऽपि च। अवाक्शीर्षाः पतिष्यामो नरके नात्रं संशयः।। | 13-92-4a 13-92-4b |
शरीरं योक्तुमिच्छामि तपसोग्रेण भारत। उपदिष्टमिहेच्छामि तत्त्वतोऽहं विशाम्पते।। | 13-92-5a 13-92-5b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-92-6x |
युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा भीष्मो महामनाः। परीक्ष्य निपुणं बुद्ध्या युधिष्ठिरमभाषत।। | 13-92-6a 13-92-6b |
रहस्यमद्भुतं चैव शृणु वक्ष्यामि भारत। या गतिः प्राप्यते वेन प्रेत्यभावे विशाम्पते।। | 13-92-7a 13-92-7b |
तपसा प्राप्यते स्वर्गस्तपसा प्राप्यते यशः। आयुःप्रकर्षो भोगाश्च लभ्यन्ते तपसा विभो।। | 13-92-8a 13-92-8b |
ज्ञानं विज्ञानमारोग्यं रूपं सम्पत्तथैव च। सौभाग्यं चैव तपसा प्राप्यते भरतर्षभ।। | 13-92-9a 13-92-9b |
धनं प्राप्नोति तपसा मौनं ज्ञानं प्रयच्छति। उपभोगांस्तु दानेन ब्रह्मचर्येण जीवितम्।। | 13-92-10a 13-92-10b |
अहिंसायाः फलं रूपं दीक्षाया जन्म वै कुले। फलमूलाशनाद्राज्यं स्वर्गः पर्णशनाद्भवेत्।। | 13-92-11a 13-92-11b |
पयोभक्षो दिवं याति दानेन द्रविणाधिकः। गुरुशुश्रूषया विद्या नित्यश्राद्धेन सन्ततिः।। | 13-92-12a 13-92-12b |
गवाढ्यः शाकदीक्षाभिः स्वर्गमाहुस्तृणाशनात्। स्त्रियस्त्रिषवण्सनानाद्वायुं पीत्वा क्रतुं लभेत्।। | 13-92-13a 13-92-13b |
नित्यस्नायी दीर्घजीवी सन्ध्ये तु द्वे जपन्द्विजः। मन्त्रं साधयतो राजन्नाकपृष्ठमनाशने।। | 13-92-14a 13-92-14b |
स्थण्डिलेषु शयानानां गृहाणि शयनानि च। चीरवल्कलवासोभिर्वासांस्याभाणानि च।। | 13-92-15a 13-92-15b |
शय्यासनानि यानानि योगयुक्ते तपोधने। अग्निप्रवेशे नियतं ब्रह्मलोके महीयते।। | 13-92-16a 13-92-16b |
रसानां प्रतिसंहारात्सौभाग्यमिह विन्दति। आमिषप्रतिसंहारात्प्रजा ह्यायुष्मती भवेत्।। | 13-92-17a 13-92-17b |
उदवासं वसेद्यस्तु स नराधिपतिर्भवेत्। सत्यवादी नरश्रेष्ठ दैवतैः सह मोदते।। | 13-92-18a 13-92-18b |
कीर्तिर्भवति दानेन तथाऽऽरोग्यमहिंसया। द्विजशुश्रूषया राज्यं द्विजत्वं चापि पुष्कलम्।। | 13-92-19a 13-92-19b |
पानीयस्य प्रदानेन कीर्तिर्भवति शाश्वती। अन्नस्य तु प्रदानेन तृप्यन्ते कामभोगतः।। | 13-92-20a 13-92-20b |
सान्त्वदः सर्वभूतानां सर्वशोकैर्विमुच्यते। देवशुश्रूषया राज्यं दिव्यं रूपं निगच्छति।। | 13-92-21a 13-92-21b |
दीपालोकप्रदानेन चक्षुष्मान्बुद्धिमान्भवेत्। प्रेक्षणीयप्रदानेन स्मृतिं मेधां च विन्दति।। | 13-92-22a 13-92-22b |
गन्धमाल्यप्रदानेन कीर्तिर्भवति पुष्कला। केशश्मश्रू धारंयतामग्र्या भवति सन्ततिः।। | 13-92-23a 13-92-23b |
उपवासं च दीक्षां च अभिषेकं च पार्थिव। कृत्वा द्वादशवर्षाणि वीरस्थानाद्विशिष्यते।। | 13-92-24a 13-92-24b |
दासीदासमलङ्कारान्क्षेत्राणि च गृहाणि च। ब्रह्मदेयां सुतां दत्त्वा प्राप्नोति मनुजर्षभ।। | 13-92-25a 13-92-25b |
क्रतुभिश्चोपवासैश्च त्रिदिवं याति भारत। लभते च शिवं ज्ञानं फलपुष्पप्रदो नरः।। | 13-92-26a 13-92-26b |
सुवर्णशृङ्गैस्तु विराजितानां गवां सहस्रस्य नरः प्रदानात्। प्राप्नोति पुण्यं दिवि देवलोक- मित्येवमाहुर्दिवि वेदसङ्घाः।। | 13-92-27a 13-92-27b 13-92-27c 13-92-27d |
प्रयच्छते यः कपिलां सवत्सां कांस्योपदोहां कनकाग्रशृङ्गीम्। तैस्तैर्गुणैः कामदुघाऽस्य भूत्वा नरं प्रदातारमुपैति सा गौः।। | 13-92-28a 13-92-28b 13-92-28c 13-92-28d |
यावन्ति रोमाणि भवन्ति धेन्वा- स्तावत्फलं प्राप्य स गोप्रदानात्। पुत्रांश्च पौत्रांश्च कुलं च सर्व- मासप्तमं तारयते परत्र।। | 13-92-29a 13-92-29b 13-92-29c 13-92-29d |
सदक्षिणां काञ्चनचारुशृङ्गीं कांस्योपदोहां द्रविणोत्तरीयाम्। धेनुं तिलानां ददतो द्विजाय लोका वसूनां सुलभा भवन्ति।। | 13-92-30a 13-92-30b 13-92-30c 13-92-30d |
स्वकर्मभिर्मानवं संनिरुद्धं तीव्रान्धकारे नरके पतन्तम्। मंहार्णवे नौरिव वायुयुक्ता दानं गवां तारयते परत्र।। | 13-92-31a 13-92-31b 13-92-31c 13-92-31d |
यो ब्रह्मदेयां तु ददाति कन्यां भूमिप्रदानं च करोति विप्रे। ददाति चान्नं विधिवच्च यश्च स लोकमाप्नोति पुरंदरस्य।। | 13-92-32a 13-92-32b 13-92-32c 13-92-32d |
नैवेशिकं सर्वगुणोपपन्नं ददाति वै यस्तु नरो द्विजाय। स्वाध्यायचारित्र्यगुणान्विताय तस्यापि लोकाः कुरुषूत्तरेषु।। | 13-92-33a 13-92-33b 13-92-33c 13-92-33d |
धुर्यप्रदानेन गवां तथा वै लोकानवाप्नोति नरो वसूनाम्। स्वर्गाय चाहुस्तु हिरण्यदानं ततो विशिष्टं कनकप्रदानम्।। | 13-92-34a 13-92-34b 13-92-34c 13-92-34d |
छत्रप्रदानेन गृहं वरिष्ठं यानं तथोपानहसम्प्रदाने। वस्रप्रदानेन फलं सुरूपं गन्धप्रदानात्सुरभिर्नरः स्यात्।। | 13-92-35a 13-92-35b 13-92-35c 13-92-35d |
पुष्पोपगं वाऽथ फलोपगं वा यः पादपं स्पर्शयते द्विजाय। सश्रीकमृद्धं बहुरत्नपूर्णं लभत्ययत्नोपगतं गृहं वै।। | 13-92-36a 13-92-36b 13-92-36c 13-92-36d |
भक्ष्यान्नपानीयरसप्रदाता सर्वान्समाप्नोति रसान्प्रकामम्। प्रतिश्रयाच्छानसम्प्रदाता प्राप्नोति तान्येव न संशयोऽत्र।। | 13-92-37a 13-92-37b 13-92-37c 13-92-37d |
स्रग्धूपगन्धाननुलेपनानि स्नानानि माल्यानि च मानवो यः। दद्याद्द्विजेभ्यः स भवेदरोग- स्तथाऽभिरूपश्च नरेन्द्रलोके।। | 13-92-38a 13-92-38b 13-92-38c 13-92-38d |
बीजैरशून्यं शयनैरुपेतं दद्याद्गृहं यः पुरुषो द्विजाय। पुण्याभिरामं बहुरत्नपूर्णं लभत्यधिष्ठानवरं स राजन्।। | 13-92-39a 13-92-39b 13-92-39c 13-92-39d |
सुगन्धचित्रास्तरणोपधानं दद्यान्नरो यः शयनं द्विजाय। रूपान्वितां पक्षवतीं मनोज्ञां भार्यामयत्नोपगतां लभेत्सः।। | 13-92-40a 13-92-40b 13-92-40c 13-92-40d |
पितामहस्यानवरो वीरशायी भवेन्नरः। नाधिकं विद्यते यस्मादित्याहुः परमर्षयः।। | 13-92-41a 13-92-41b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-92-42x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रीतात्मा कुरुनन्दनः। नाश्रमेऽरोचयद्वासं वीरमार्गाभिकाङ्क्षया।। | 13-92-42a 13-92-42b |
ततो युधिष्ठिरः प्राह पाण्डवान्पुरुषर्षभ। पितामहस्य यद्वाक्यं तद्वो रोचत्विति प्रभुः।। | 13-92-43a 13-92-43b |
ततस्तु पाण्डवाः सर्वे द्रौपदी च यशस्विनी। युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं बाढमित्यभ्यपूजयन्।। | 13-92-44a 13-92-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विनवतितमोऽध्यायः।। 92 ।। |
13-92-7 या गतिः फलं, येन साधनेन, प्रेत्यभावे मरणानन्तरम्।। 13-92-10 जीवितं आयुः।। 13-92-13 क्रतुं प्रजापतिम्। प्रणायामैः प्रजापतिलोकं प्राप्नोतीत्यर्थः।। 13-92-14 अनाशनं अनाहारः। नित्यस्नायी भवेद्दक्ष इति झ.पाठः।। 13-92-17 प्रतिसंहारात्यागात।। 13-92-24 उपवार्सः सर्वभोगत्यागः। दीक्षा जपादिनियमखीकारः। अभिषेकस्त्रिषवणं स्नानम्।। 13-92-33 नैवेशिकं गृहोपस्करं शय्यादि।। 13-92-40 पक्षवतीं महाकुलोद्भवाम्।। 13-92-41 अनवरः रामानः। यस्मात् पितामहात्।।
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