महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-192
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लोमशेन धर्मरहस्यकथनम्।। 1 ।।
लोमश उवाच। | 13-192-1x |
परदारेषु ये सक्ता अकृत्वा दारसङ्ग्रहम्। निराशाः पितरस्तेषां श्राद्धकाले भवन्ति वै।। | 13-192-1a 13-192-1b |
परदाररतिर्यश्च यश्च वन्ध्यामुपासते। ब्रह्मस्वं हरते यश्च समदोषा भवन्ति ते।। | 13-192-2a 13-192-2b |
असम्भाष्या भवन्त्येते पितॄणां नात्र संशयः। देवताः पितरश्चैषां नाभिनन्दन्ति तद्धविः।। | 13-192-3a 13-192-3b |
तस्मात्परस्य वै दारांस्त्यजेद्वन्ध्यां च योषितम्। ब्रह्मस्वं हि न हर्तव्यमात्मनो हितमिच्छता।। | 13-192-4a 13-192-4b |
श्रूयतां चापरं गुह्यं रहस्यं धर्मसंहितम्। श्रद्दधानेन कर्तव्यं गुरुणां वचनं सदा।। | 13-192-5a 13-192-5b |
द्वादश्यां पौर्णमास्यां च मासिमासि घृताक्षतम्। ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छेत तस्य पुण्यं निबोधत।। | 13-192-6a 13-192-6b |
सोमश्च वर्धते तेन समुद्रश्च महोदधिः। अश्वमेधचतुर्भागं फलं सृजति वासवः।। | 13-192-7a 13-192-7b |
दानेनैतेन तेजस्वी वीर्यवांश्च भवेन्नरः। प्रीतश्च भगवान्सोम इष्टान्कामान्प्रयच्छति।। | 13-192-8a 13-192-8b |
श्रूयतां चापरो धर्मः सरहस्यो महाफलः। इदं कलियुगं प्राप्य मनुष्याणां सुखावहः।। | 13-192-9a 13-192-9b |
कल्यमुत्थाय यो मर्त्यः स्नातः शुक्लेन वाससा। तिलपात्रं प्रयच्छेत ब्राह्मणेभ्यः समाहितः।। | 13-192-10a 13-192-10b |
तिलोदकं च यो दद्यात्पितॄणां मधुना सह। दीपकं कृसंर चैव श्रूयतां तस्य यत्फलम्।। | 13-192-11a 13-192-11b |
तिलपात्रे फलं प्राह भगवान्पाकशांसनः। गोप्रदानं च यः कुर्याद्भूमिदानं च शाश्वतम्।। | 13-192-12a 13-192-12b |
अग्निष्टोमं च यो यज्ञं यजेत बहुदक्षिणम्। तिलपात्रं सहैतेन समं मन्यन्ति देवताः।। | 13-192-13a 13-192-13b |
तिलोदकं सदा श्राद्धे मन्यन्ते पितरोऽक्षयम्। दीपे च कृसरे चैव तुष्यन्तेऽस्य पितामहाः।। | 13-192-14a 13-192-14b |
स्वर्गे च पितृलोके च पितृदेवाभिपूजितम्। एवमेतन्मयोद्दिष्टपिदृष्टं पुरातनम्।।] | 13-192-15a 13-192-15b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 192 ।। |
13-192-7 महान्त्युदकानि धीयन्तेऽस्मिन्निति। यद्वा महानामुत्सवानामुदधिरिव।।
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