महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-210
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ईश्वरेण पार्वतींप्रति ऋषीणां कर्मफलविशेषादिकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-210-1x |
भगवन्देवदेवेश तेषां कर्मफलं प्रभो। श्रोतुमिच्छाम्यहं देव प्रसादात्ते वरप्रद।। | 13-210-1a 13-210-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-210-2x |
वानप्रस्थगतं सर्वं फलपाकं शृणु प्रिये।। | 13-210-2a |
अग्नियोगं व्रजन्ग्रीष्मे ततो द्वादशवार्षिकम्। रुद्रलोकेऽभिजायेत विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 13-210-3a 13-210-3b |
उपवासव्रतं कुर्वन्वर्षाकाले दृढव्रतः। सोमलोकेऽभिजायेत नरो द्वादशवार्षिकम्।। | 13-210-4a 13-210-4b |
काष्ठवन्मौनमास्थाय नरो द्वादशवार्षिकम्। मरुतां लोकमास्थाय तत्र भोगैश्च युज्यते।। | 13-210-5a 13-210-5b |
कुशशर्करसंयुक्ते स्थण्डिले संविशन्मुनिः। यक्षलोकेऽभिजायेत सहस्राणि चतुर्दश।। | 13-210-6a 13-210-6b |
वर्षाणां भोगसंयुक्तो नरो द्वादशवार्षिकम्। वीरासनगतो यस्तु कण्टकाफलकाश्रितः। गन्धर्वेष्वभिजायेत नरो द्वादशवार्षिकम्।। | 13-210-7a 13-210-7b 13-210-7c |
वीरस्थायी चोर्ध्वबाहुर्नरो द्वादशवार्षिकम्। देवलोकेऽभिजायेत दिव्यभोगसमन्वितः।। | 13-210-8a 13-210-8b |
पादाङ्गुष्ठेन यस्तिष्ठेदूर्ध्वबाहुर्जितेन्द्रियः। इन्द्रलोकेऽभिजायेत सहस्राणि चतुर्दश। | 13-210-9a 13-210-9b |
आहारनियमं कृत्वा मुनिर्द्वादशवार्षिकम्। नागलोकेऽभिजायेत संवत्सरगणान्बहून्।। | 13-210-10a 13-210-10b |
एवं दृढव्रता देवि वानप्रस्थाश्च कर्मभिः। स्थानेषु तत्र तिष्ठन्ति तत्तद्भोगसमन्विताः।। | 13-210-11a 13-210-11b |
तेभ्यो भ्रष्टाः पुनर्देवि जायन्ते नृषु भोगिनः। वर्णोत्तमकुलेष्वेव धनधान्यसमन्विताः।। | 13-210-12a 13-210-12b |
एतत्ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-210-13a |
उमोवाच। | 13-210-14x |
एषां यथा वराणां तु धर्ममिच्छामि मानद। कृपया परयाऽऽविष्टस्तन्मे ब्रूहि महेश्वर।। | 13-210-14a 13-210-14b |
महेश्वर उवाच। | 13-210-15x |
धर्मं यथा वराणां त्वं शृणु भामिनि तत्परा।। | 13-210-15a |
व्रतोपवासशुद्धाङ्गास्तीर्थस्नानपरायणाः। धृतिमन्तःक क्षमायुक्ताः सत्यव्रतपरायणाः।। | 13-210-16a 13-210-16b |
पक्षमासोपवासैश्च कर्शिता धर्मदर्शिनः। वर्षैः शीतातपैश्चैव कुर्वन्तः परमं तपः।। | 13-210-17a 13-210-17b |
कालयोगेन गच्छन्ति शक्रलोकं शुचिस्मिते। तत्र ते भोगसंयुक्ता दिव्यगन्धसमन्विताः।। | 13-210-18a 13-210-18b |
दिव्यभूषणसंयुक्ता विमानवरसंयुताः। विचरन्ति यथाकामं दिव्यस्त्रीगणसंयुताः। एतत्ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-210-19a 13-210-19b 13-210-19c |
उमोवाच। | 13-210-20x |
तेषां चक्रचराणां च धर्ममिच्छामि वै प्रभो।। | 13-210-20a |
महेश्वर उवाच। | 13-210-21x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु शाकटिकं शुभे।। | 13-210-21a |
संवहन्तो धुरं दानैः शकटानां तु सर्वदा। प्रार्थयन्ते यथाकालं शकटैर्भैक्षचर्यया।। | 13-210-22a 13-210-22b |
तपोर्जनपरा धीरास्तपसा क्षीणकल्मषाः। पर्यटन्तो दिशः सर्वाः कामक्रोधविवर्जिताः।। | 13-210-23a 13-210-23b |
तेनैव कालयोगेन त्रिदिवं यान्ति शोभने। तत्र प्रमुदिता भोगैर्विचरन्ति यथासुखम्।। | 13-210-24a 13-210-24b |
एतत्ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-210-25a |
उमोवाच। | 13-210-26x |
वैखानसानां वै धर्मं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो।। | 13-210-26a |
महेश्वर उवाच। | 13-210-27x |
ते वै वैखानसा नाम वानप्रस्थाः शुभेक्षणे। तीव्रेण तपसा युक्ता दीप्तिमन्तः स्वतेजसा। सत्यव्रतपरा धीरास्तेषां निष्कल्मषं तपः।। | 13-210-27a 13-210-27b 13-210-27c |
अश्मकुट्टास्तथाऽन्ये च दन्तोलूखलिनस्तथा। शीर्णपर्णाशिनश्चान्ये उञ्छवृत्तास्तथा परे।। | 13-210-28a 13-210-28b |
कपोतवृत्तयश्चान्ये कापोतीं वृत्तिमाश्रिताः। पशुप्रचारनिरताः फेनपाश्च तथा परे।। | 13-210-29a 13-210-29b |
मृगवन्मृगचर्यायां सञ्चरन्ति तथा परे। अब्भक्षा वायुभक्षाश्च निराहारास्तथैव च।। | 13-210-30a 13-210-30b |
केचिच्चरन्ति सद्विष्णोः पादपूजनमुत्तमम्। सञ्चरन्ति तपो घोरं व्याधिमृत्युविवर्जिताः। स्ववशादेव ते मृत्युं भीषयन्ति च नित्यशः।। | 13-210-31a 13-210-31b 13-210-31c |
इन्द्रलोके तथा तेषां निर्मिता भोगसञ्चयाः। अमरैः समतां यान्ति देववद्भोगसंयुताः।। | 13-210-32a 13-210-32b |
वराप्सरोभिः संयुक्ताश्चिरकालमनिन्दिते। एतत्ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-210-33a 13-210-33b |
उमोवाच। | 13-210-34x |
भगवञ्श्रोतुमिच्छामि वालखिल्यांस्तपोधनान्।। | 13-210-34a |
महेस्वर उवाच। | 13-210-35x |
धर्मचर्यां तथा देवि वालखिल्यगतां शृणु।। | 13-210-35a |
मृगनिर्मोकवसना निर्द्वन्द्वास्ते तपोधनाः। अङ्गुष्ठमात्राः सुश्रोणि तेष्वेवाङ्गेषु संश्रिताः।। | 13-210-36a 13-210-36b |
उद्यन्तं सततं सूर्यं स्तुवन्तो विविधैः स्तवैः। भास्करस्येव किरणैः सहसा यान्ति नित्यदा। द्योतयन्तो दिशः सर्वा धर्मज्ञाः सत्यवादिनः।। | 13-210-37a 13-210-37b 13-210-37c |
तेष्वेव निर्मलं सत्यं लोकार्थं तु प्रतिष्ठितम्। लोकोऽयं धार्यते देवि तेषामेव तपोबलात्।। | 13-210-38a 13-210-38b |
महात्मनां तु तपसा सत्येन च शुचिस्मिते। क्षमया च महाभागे भूतानां संस्थितिं विदुः।। | 13-210-39a 13-210-39b |
प्रजार्थमपि लोकार्थं महद्भिः क्रियते तपः। तपसा प्राप्यते सर्वं तपसा प्राप्यते फलम्। दुष्प्रापमपि यल्लोके तपसा प्राप्यते हि तत्।। | 13-210-40a 13-210-40b 13-210-40c |
पञ्चभूतार्थतत्वे च लोकसृष्टिविर्धनम्। एतत्सर्वं समासेन तपोयोगाद्विनिर्मितम्।। | 13-210-41a 13-210-41b |
तस्मादयं त्वृषिगणस्तपस्तप इति प्रिये। धर्मान्वेषी तपः कर्तुं यतते सततं प्रिये।। | 13-210-42a 13-210-42b |
अमरत्वं शिवत्वं च तपसा प्रापयेत्सदा। एतत्ते कथितं सर्वं शृण्वन्त्यास्ते श्रुतं प्रिये। प्रियार्थमृषिसङ्घस्य प्रजानां हितकाम्यया।। | 13-210-43a 13-210-43b 13-210-43c |
नारद उवाच। | 13-210-44x |
एवं ब्रुवन्तं देवेशमृषयश्चापि तुष्टुवुः। भूयः परतरं यत्तु तदाप्रभृति चक्रिरे।। | 13-210-44a 13-210-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 210 ।। |
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