महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-039
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सनत्कुमारेण नारदम्प्रति प्रलयप्रकारादिकथनम्।। 1 ।। तथा भूतादिनिरूपणम्।। 2 ।।
`सनत्कुमार उवाच। | 13-39-1x |
अधःस्रोतसि सर्गे च तिर्यक्स्रोतसि चैव हि। एताभ्यामीश्वरं विन्द्यादूर्ध्वस्रोतस्तथैव च।। | 13-39-1a 13-39-1b |
कर्मेन्द्रियाणां पञ्चानामीश्वरो बुद्धिगोचरः। बुद्धीन्द्रियाणामपि तु ईश्वरो मन उच्यते।। | 13-39-2a 13-39-2b |
मनसः पञ्चभूतानि सगुणान्याहुरीश्वरम्। भूतानामीश्वरं विद्याद्ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्।। | 13-39-3a 13-39-3b |
भवान्हि कुशलश्चैव धर्मेष्वेषु परेषु वै। कालाग्निरह्नः कल्पान्ते जगद्दहति चांशुभिः।। | 13-39-4a 13-39-4b |
ततः सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च। महाभूतानि दग्धानि स्वां योनिं गमितानि वै।। | 13-39-5a 13-39-5b |
कूर्मपृष्ठनिभा भूमिर्निर्दग्धकुशकण्टका। निर्वृक्षा निस्तृणा चैव दग्धा कालाग्निना तदा।। | 13-39-6a 13-39-6b |
जगत्प्रलीनं जगति जगच्चापि प्रलीयते। नष्टिगन्धा तदा सूक्ष्मा जलमेवाभवत्तदा।। | 13-39-7a 13-39-7b |
ततो मयूखजालेन सूर्यस्त्वापीयते जलम्। रसात्मा लीयते चार्के तथा ब्राह्मणसत्तम।। | 13-39-8a 13-39-8b |
अन्तरिक्षगतान्भूतान्प्रदहत्यनलस्तदा। अग्निभूतं तदा व्योम भवतीत्यभिचक्षते।। | 13-39-9a 13-39-9b |
तं तथा विस्फुरद्वह्निं वायुर्जरयते महान्। महता बलवेगेन आदत्ते तं हि भानुमान्।। | 13-39-10a 13-39-10b |
वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते यदा। प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्ठति नानदत्।। | 13-39-11a 13-39-11b |
तस्य तं निनदं शब्दमादत्ते वै मनस्तदा। स शब्दगुणहीनात्मा तिष्ठते मूर्तिमांस्तु वै।। | 13-39-12a 13-39-12b |
भुङ्क्ते च स तदा व्योम मनस्तात दिगात्मकम्। व्योमात्मनि विनष्टे तु सङ्कल्पात्मा विवर्धते।। | 13-39-13a 13-39-13b |
सङ्कल्पात्मानमादत्ते चित्तं वै स्वेन तेजसा। चित्तं ग्रसत्यहङ्कारस्तदा वै मुनिसत्तम।। | 13-39-14a 13-39-14b |
विनष्टे च तदा चित्ते अहङ्कारोऽभवन्महान्। अहङ्कारं तदादत्ते महान्ब्रह्मा प्रजापतिः।। | 13-39-15a 13-39-15b |
अभिमाने विनष्टे तु महान्ब्रह्मा विराजते। तं तदा त्रिषु लोकेषु मूर्तिष्वेवाग्रमूर्तिजम्।। | 13-39-16a 13-39-16b |
येन विश्वमिदं कृत्स्नं निर्मितं वै गुणार्थिना। मूर्तं जलेचरमपि व्यवसायगुणात्मकम्। ग्रसिष्णुर्भगवान्ब्रह्मा व्यक्ताव्यक्तमसंशयम्।। | 13-39-17a 13-39-17b 13-39-17c |
एषोऽव्ययस्य प्रलयो मया ते परिकीर्तितः। अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं च श्रूयताम्।। | 13-39-18a 13-39-18b |
आकाशं प्रथमं भूतं श्रोत्रमध्यात्मं शब्दोधिभूतं दिशोधिदैवतं।। | 13-39-19a |
वायुर्द्वितीयं भूतं त्वगध्यात्मं स्पर्शोधिभूतं विद्युदधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-20a |
ज्योतिस्तृतीयं भूतं चक्षुरध्यात्मं रूपमधिभूतं सूर्योधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-21a |
आपश्चतुर्थं भूतं जिह्वाध्यात्मं रसोधिभूतं वरुणोधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-22a |
पृथिवी पञ्चमं भूतं ध्राणमध्यात्मं गन्धोधिभूतं वायुरधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-23a |
पाञ्चभौतिकमेतच्चतुष्टयं वर्णितम्। अत ऊर्ध्वमिन्द्रियमनुवर्णयिष्यामः।। | 13-39-24a |
पादावध्यात्मं गन्तव्यमधिभूतं विष्णुरधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-25a |
हस्तावध्यात्मं कर्तव्यमधिभूतमिन्द्रोऽधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-26a |
पायुरध्यात्मं विसर्गोऽधिभूतं मित्रोऽधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-27a |
उपस्थोऽध्यात्ममानन्दोऽधिभूतं प्रजापतिरवधिदैवतं स्यात्। | 13-39-28a |
वागध्यात्मं वक्तव्यमधिभूतमग्निरधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-29a |
मनोऽध्यात्मं मन्तव्यमधिभूतं चन्द्रमा अधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-30a |
अहङ्कारोऽध्यात्ममभिमानोऽधिभूतं विरिञ्चोऽधिदैवतं स्यात्। | 13-39-31a |
बुद्धिरध्यात्मं व्यवसायोऽधिभूतं ब्रह्माधिदैवतं स्यात्।। | 13-39-32a |
एवमव्यक्तो भगवान्सकृत्कृत्स्नान्कुरुते सम्हरते च। कस्मात्क्रीडार्थम्।। | 13-39-33a |
यथाऽऽदित्योंऽशुजालं क्षिपति सम्हरते च एवमव्यक्तो गुणान्सृजति सम्हरते च।। | 13-39-34a |
यथाऽर्णवादूर्मिमालानिच यश्चोर्ध्वमुत्तिष्ठते सम्हरते च। यथा चान्तरिक्षादभ्रमाकाशमुत्तिष्ठति स्तनितगर्जितोन्मिश्रं तद्वत्तत्रैव प्राणशत्। एवमव्यक्तो गुणान्सृजति सम्हरति च।। | 13-39-35a 13-39-35b 13-39-35c |
यथा कूर्मोऽङ्गानि कामात्प्रसारयते पुनश्च प्रवेशयति एवमव्यक्तो भगवान्लोकान्प्रकाशयति प्रवेशयते च।। | 13-39-36a |
एवं चेतनश्च भगवान्पञ्चविंशः शुचिस्तेनाधिष्ठिता प्रकृतिश्चेतयति नित्यं सहधर्मा च। भगवतोऽव्यक्तस्य क्रियावतोक्रियावतश्च प्रकृतिः क्रियावानजरामरः क्षेत्रज्ञो नारायणाख्यः पुरुषः।। | 13-39-37a |
भीष्म उवाच। | 13-39-38x |
इत्येतन्नारदायोक्तं कुमारेण च धीमता। एतच्छ्रुत्वा द्विजो राजन्सर्वयज्ञफलं लभेत्।।' | 13-39-38a 13-39-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।। 39 ।। |
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