महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-180
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व्यासेन कीटाय राज्यदानम्।। 1 ।।
व्यास उवाच। | 13-180-1x |
शुभेन कर्मणा यद्वै तिर्यग्योनौ न मुह्यसे। ममैव कीट तत्कर्म येन त्वं न प्रमुह्यसे।। | 13-180-1a 13-180-1b |
अहं त्वां दर्शनादेव तारयामि तपोबलात्। तपोबलाद्धि बलवद्बलमन्यन्न विद्यते।। | 13-180-2a 13-180-2b |
जानामि पापैः स्वकृतैर्गतं त्वां कीट कीटताम्। अवाप्स्य्सि परं र्धर्मं मानुष्ये यदि मन्यसे।। | 13-180-3a 13-180-3b |
कर्मभूमिकृतं देवा भुञ्जते तिर्यगाश्च ये। धन्या अपि मनुष्येषु कामार्थाश्च यथा गुणाः।। | 13-180-4a 13-180-4b |
वाग्बुद्धिपाणिपादैश्च समुपेता विपश्चितः। किमायाति मनुष्यस्य मन्दस्यार्थस्य जीवतः।। | 13-180-5a 13-180-5b |
दैवे यः कुरुते पूजां विप्राग्निशशिसूर्ययोः। ब्रुवन्नपि कथां पुण्यां तत्र कीट त्वमेष्यसि।। | 13-180-6a 13-180-6b |
गुणभूतानि भूतानि तत्र त्वमुपभोक्ष्यसे। क्रमात्तेऽहं विनेष्यामि ब्रह्मत्वं यदि चेच्छसि। | 13-180-7a 13-180-7b |
भीष्म उवाच। | 13-180-7x |
स तथेति प्रतिश्रुत्य कीटः समवतिष्ठत।। | 13-180-7c |
*तमृषिं द्रष्टुमगमत्सर्वास्वन्यासु योनिषु।। | 13-180-8a |
श्वाविद्गोधावराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम्। श्वपाकशूद्रवैश्यानां क्षत्रियाणां च योनिषु।। | 13-180-9a 13-180-9b |
स कीटे एवमाख्यातमृषिणा सत्यवादिना। प्रतिस्मृत्याथ जग्राह पादौ मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।। | 13-180-10a 13-180-10b |
कीट उवाच। | 13-180-11x |
इदं तदतुलं स्थानमीप्सितं दशभिर्गुणैः। यदहं प्राप्य कीटत्वमागतो राजपुत्रताम्।। | 13-180-11a 13-180-11b |
वहन्ति मामतिबलाः कुञ्जरा हेममालिनः। स्यन्दनेषु च काम्भोजा युक्ताःसमरवाजिनः।। | 13-180-12a 13-180-12b |
उष्ट्राश्वतरयुक्तानि यानानि च वहन्ति माम्। सबान्धवः सहामात्यश्चाश्नामि पिशिताशनम्।। | 13-180-13a 13-180-13b |
गृहेषु स्वनिवासेषु सुखेषु शयनेषु च। वरार्हेषु महाभाग स्वपामि च सुपूजितः।। | 13-180-14a 13-180-14b |
सर्वेष्वपररात्रेषु सूतमागधबन्दिनः। स्तुवन्ति मां यथा देवा महेन्द्रं प्रियवादिनः।। | 13-180-15a 13-180-15b |
प्रसादात्सत्यसन्धस्य भवतोऽमिततेजसः। यदहं कीटतां प्राप्य स्मृतिजाता जुगुप्सिताम्। ननु नाशोस्ति पापस्य यन्मयोपचितं पुरा।। | 13-180-16a 13-180-16b 13-180-16c |
[नमस्तेऽस्तु महाप्राज्ञ किं करोमि प्रशाधि माम्। त्वत्तपोबलनिर्दिष्टमिदं ह्यधिगतं मया।।] | 13-180-17a 13-180-17b |
व्यास उवाच। | 13-180-18x |
[अर्चितोऽहं त्वया राजन्वाग्भिरद्य यदृच्छया। अद्य ते कीटतां प्राप्य स्मृतिर्जाताजुगुप्सिताम्]।। | 13-180-18a 13-180-18b |
शूद्रेणार्थप्रधानेन नृशंसेनाततायिना। ममैतद्दर्शनं प्राप्तं तच्च वै सुकृतं पुरा। तिर्यग्योनौ स्म जातेन मम चाभ्यर्चनात्तथा।। | 13-180-19a 13-180-19b 13-180-19c |
इतस्त्वं राजपुत्रत्वाद्ब्राह्मण्यं समवाप्स्यसि। गोब्राह्मणकृते प्राणान्हित्वाऽऽत्मीयान्रणाजिरे।। | 13-180-20a 13-180-20b |
भीष्म उवाच। | 13-180-21x |
राजपुत्रः सुखं प्राप्य ईजे चैवाप्तदक्षिणैः। अथ चोद्दीप्यत स्वर्गे प्रभूतोप्यव्ययः सुखी।। | 13-180-21a 13-180-21b |
तिर्यग्योन्याः शूद्रतामभ्यपैति शूद्रो वैश्यं क्षत्रियत्वं च वैश्यः। वृत्तश्लाघी क्षत्रियो ब्राह्मणत्वं स्वर्गं पुण्याद्ब्राह्मणः साधुवृत्तः।। | 13-180-22a 13-180-22b 13-180-22c 13-180-22d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 180 ।। |
13-180-1 तदैव कीट तत्कर्मेति क.ड.थ. पाठः।। 13-180-6 जीवन्हि कुरुते पूजां विप्राग्र्यः शशिसूर्ययोः इति झ.पाठः।। 13-180-8 * अत्र सप्तमश्लोकादनन्तरं सार्धश्लोको झ. पुस्तकेऽधिको दृस्यते सच व्रजंश्च सुमहानागतश्च यदृच्छया। चक्राक्रमेण भिन्नश्च कीटः प्राणान्मुमोच ह।। सम्भूतः क्षत्रियकुले प्रसादादमितौजसः। इति।।
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