महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-065
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गङ्गामहिमप्रतिपादकसिद्धसिलवृत्तिसंवादानुवादः।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-65-1x |
बृहस्पतिसमं बुद्ध्या क्षमया ब्रह्मणः समम्। पराक्रमे शक्रसममादित्यसमतेजसम्।। | 13-65-1a 13-65-1b |
गाङ्गेयमर्जुनेनाजौ निहतं भूरितेजसम्। भ्रातृभिः सहितोऽन्यैश्च पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 13-65-2a 13-65-2b |
शयानं वीरशयने कालाकाङ्क्षिणमच्युतम्। आजग्मुर्भरतश्रेष्ठं द्रष्टुकामा महर्षयः।। | 13-65-3a 13-65-3b |
अत्रिर्वसिष्ठोऽथ भृगुः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। अङ्गिरा गौतमोऽगस्त्यः सुमतिः सुयतात्मवान्।। | 13-65-4a 13-65-4b |
विश्वामित्रः स्थूलगिराः संवर्तः प्रमतिर्दमः। बृहस्पत्युशनोव्यासश्च्यवनः फाश्यपो ध्रुवः।। | 13-65-5a 13-65-5b |
दुर्वासा जमदग्निश्च मार्कण्डेयोऽथ गालवः। भरद्वाजोऽथ रैभ्यश्चक यवक्रीतस्त्रितस्तथा।। | 13-65-6a 13-65-6b |
स्थूलाक्षः शबलाक्षश्च कण्वो मेधातिथिः कृशः। नारदः पर्वतश्चैव सुधन्वाऽथैकतो द्विजः।। | 13-65-7a 13-65-7b |
नितंभूर्भुवनो धौम्यः शतानन्दोऽकृतव्रणः। जामदग्र्यस्तथा रामः कचश्चेत्येवमादयः। समागता महात्मानो भीष्मं द्रष्टुं महर्षयः।। | 13-65-8a 13-65-8b 13-65-8c |
तेषां महात्मनां पूजामागतानां युधिष्ठिरः। भ्रातृभिः सहितश्चक्रे यतावदनुपूर्वशः।। | 13-65-9a 13-65-9b |
ते पूजिताः सुखासीनाः कथाश्रक्रुर्महर्षयः। भीष्माश्रिताः सुमधुराः सर्वेन्द्रियमनोहराः।। | 13-65-10a 13-65-10b |
भीष्मस्तेषां कथाः श्रुत्वा ऋषीणां भावितात्मनाम्। मेने दिविष्ठमात्मानं तुष्ट्या परमया युतः।। | 13-65-11a 13-65-11b |
ततस्ते भीष्ममामन्त्र्य पाण्डवांश्च महर्षयः। अन्तर्धानं गताः सर्वे सर्वेषामेव पश्यताम्।। | 13-65-12a 13-65-12b |
तानृषीन्सुमहाभागानन्तर्धानगतानपि। पाण्डवास्तुष्टुवुः सर्वे प्रणेमुश्च मुहुर्मुहुः।। | 13-65-13a 13-65-13b |
प्रसन्नमनसः सर्वे गाङ्गेयं कुरुसत्तमम्। उपतस्थुर्यथोद्यन्तमादित्यं मन्त्रकोविदाः।। | 13-65-14a 13-65-14b |
प्रभावं तपसस्तेषामृषीणां वीक्ष्य पाण्डवाः। प्रकाशन्तो दिशः सर्वा विस्मयं परमं ययुः।। | 13-65-15a 13-65-15b |
महाभाग्यं परं तेषामृषीणामनुचिन्त्य ते। पाण्डवाः सह भीष्मेण कथाश्चक्रुस्तदाश्रयाः।। | 13-65-16a 13-65-16b |
कथान्ते शिरसा पादौ स्पृष्ट्वा भीष्मस्य पाण्डवः। धर्म्यं धर्मसुतः प्रश्नं पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 13-65-17a 13-65-17b |
के देशाः के जनपदा आश्रमाः के च पर्वताः। प्रकृष्टाः पुण्यतः काश्च ज्ञेया नद्यः पितामह।। | 13-65-18a 13-65-18b |
भीष्म उवाच। | 13-65-19x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। शिलोच्छवृत्तेः संवादं सिद्धस्य च युधिष्ठिर।। | 13-65-19a 13-65-19b |
इमां कश्चित्परिक्रम्य पृथिवीं शैलभूषणाम्। असकृद्द्विपदां श्रेष्ठः श्रेष्ठस्य गृहमेधिनः।। | 13-65-20a 13-65-20b |
शिलवृत्तेर्गृहं प्राप्तः स तेन विधिनाऽर्चितः। उवास रजनीं तत्र सुमुखः सुखभागृषिः।। | 13-65-21a 13-65-21b |
शिलवृत्तिस्तु यत्कृत्यं प्रातस्तत्कृतवाञ्शुचिः। कृतकृत्यमुपातिष्ठत्सिद्धं तमतिथिं तदा।। | 13-65-22a 13-65-22b |
तौ समेत्य महात्मानौ सुखासीनौ कथाः शुभाः। चक्रतुर्वेदसम्बद्धास्तच्छेषकृतलक्षणाः।। | 13-65-23a 13-65-23b |
शिलवृत्तिः कथान्ते तु सिद्धमामन्त्र्य यत्नतः। प्रश्नं पप्रच्छ मेधावी यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 13-65-24a 13-65-24b |
शिलवृत्तिरुवाच। | 13-65-25x |
केदेशाः के जनपदाः केऽऽश्रमाः के च पर्वताः। प्रकृष्टाः पुण्यतः काश्च ज्ञेया नद्यस्तदुच्यताम्।। | 13-65-25a 13-65-25b |
सिद्ध उवाच। | 13-65-26x |
ते देशास्ते जनपदास्तेऽऽश्रमास्ते च पर्वताः। येषां भागीरथी गङ्गा मध्येनैति रारिद्वरा।। | 13-65-26a 13-65-26b |
तपसा ब्रह्मचर्येण यज्ञैस्त्यागेन वा पुनः। गतिं तां न लभेज्जन्तुर्गङ्गां संसेव्य यां लभेत्।। | 13-65-27a 13-65-27b |
स्पष्टानि येषां गाङ्गेयैस्तोयैर्गात्राणि देहिनाम्। न्यस्तानि न पुनस्तेषां त्यागः स्वर्गाद्विधीयते।। | 13-65-28a 13-65-28b |
सर्वाणि येषां गाङ्गेयैस्तोयैः कार्याणि देहिनाम्। गां त्यक्त्वा मानवा विप्र दिवि तिष्ठन्ति ते जनाः।। | 13-65-29a 13-65-29b |
पूर्वे वयसि कर्माणि कृत्वा पापानि ये नराः। पश्चाद्गङ्गां निषेवन्ते तेऽपि यान्त्युत्तमां गतिम्।। | 13-65-30a 13-65-30b |
`युक्ताश्च पातकैस्त्यक्त्वा देहं शुद्धा भवन्ति ते। मुच्यन्ते देहसंत्यागाद्गङ्गायमुनसङ्गमे।।' | 13-65-31a 13-65-31b |
स्नातानां शुचिभिस्तोयैर्गाङ्गेयैः प्रयतात्मनाम्। व्युष्टिर्भवति या पुंसां न सा क्रतुशतैरपि।। | 13-65-32a 13-65-32b |
यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गातोयेषु तिष्ठति। तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते।। | 13-65-33a 13-65-33b |
अपहत्य तमस्तीव्रं यथा भात्युदये रविः। तथाऽपहत्य पाप्मानं भाति गङ्गाजलोक्षितः।। | 13-65-34a 13-65-34b |
विसोमा इव शर्वर्यो विपुष्पास्तरवो यथा। तद्वद्देशा दिशश्चैव हीना गङ्गाजलैः शिवैः।। | 13-65-35a 13-65-35b |
वर्णाश्रमा यथा सर्वे धर्मज्ञानविवर्जिताः। क्रतवश्च यथाऽसोमास्तथा गङ्गां विना जगत्।। | 13-65-36a 13-65-36b |
यथा हीनं नभोऽर्केण भूः शैलैः खं च वायुना। तथा देशा दिशश्चैव गङ्गाहीना न संशयः।। | 13-65-37a 13-65-37b |
त्रिषु लोकेषु ये केचित्प्राणिनः सर्व एव ते। तर्प्यमाणाः परां तृप्तिं यान्ति गङ्गाजलैः शुभैः।। | 13-65-38a 13-65-38b |
`अन्ये च देवा मुनयः प्रेतानि पितृभिः सह। तर्पितास्तृप्तिमायान्ति त्रिषु लोकेषु सर्वशः।।' | 13-65-39a 13-65-39b |
यस्तु सूर्येण निष्टप्तं गाङ्गेयं पिबते जलम्। गवां निर्हरनिर्मुक्ताद्यावकात्तद्विशिष्यते।। | 13-65-40a 13-65-40b |
इन्द्रव्रतसहस्रं तु यश्चोरत्कायशोधनम्। पिवेद्यश्चापि गङ्गाम्यः समौ स्यातां न वा समौ।। | 13-65-41a 13-65-41b |
तिष्ठेद्युगसहस्रं तु पदेनैकेन यः पुमान्। मासमेकं तु गङ्गायां समौ स्यातां न वा सभौ।। | 13-65-42a 13-65-42b |
लम्बतेऽवाक्शिरा यस्तु युगानामयुतं पुमान्। तिष्ठेद्यथेष्टं यश्चापि गङ्गायां स विशिष्यते।। | 13-65-43a 13-65-43b |
अग्नौ प्रास्तं प्रधूयेत यथा तूलं द्विजोत्तम। तथा गङ्गावगाढस्य सर्वपापं प्रधूयते।। | 13-65-44a 13-65-44b |
भूतानामिह सर्वेषां दुःखोपहतचेतसाम्। गतिमन्वेषमाणानां न गङ्गासदृशी गतिः।। | 13-65-45a 13-65-45b |
भवन्ति निर्विषाः सर्पा यथा तार्क्ष्यस्य दर्शनात्। गङ्गाया दर्शनातद्वत्सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-65-46a 13-65-46b |
अप्रतिष्ठाश्च ये केचिदधर्मशरणाश्च ये। येषां प्रतिष्ठा गङ्गेह शरणं शर्म वर्म च। | 13-65-47a 13-65-47b |
प्रकृष्टैरशुभैर्ग्रस्ताननेकैः पुरुषाधमान्। पततो नरके गङ्गा संश्रितान्प्रेत्य तारयेत्।। | 13-65-48a 13-65-48b |
ते संविभक्ता मुनिभिर्नूनं देवैः सवासवैः। येऽभिगच्छन्ति सततं गङ्गां मतिमतांवर।। | 13-65-49a 13-65-49b |
विनयाचारहीनाश्च अशिवाश्च नराधमाः। ते भवन्ति शिवा विप्र ये वै गङ्गामुपाश्रिताः।। | 13-65-50a 13-65-50b |
यथा सुराणामभृतं पितॄणां च यथा स्वधा। सुधा यथा च नागानां तथा गङ्गाजलं नृणाम्।। | 13-65-51a 13-65-51b |
उपासते यथा बाला मातरं क्षुधयाऽर्दिताः। श्रेयस्कामास्तथा गङ्गामुपासन्तीह देहिनः।। | 13-65-52a 13-65-52b |
स्वायंभुवं यथा स्थानं सर्वेषां श्रेष्ठमुच्यते। स्थानानां सरितां श्रेष्ठा गङ्गा तद्वदिहोच्यते।। | 13-65-53a 13-65-53b |
`उपजीव्या यथा धेनुर्लोकानां ब्राह्ममेव वा। हविषां तु यथा सोमस्तरणेषु तथा त्वियम्।। | 13-65-54a 13-65-54b |
यथोपजीविनां धेनुर्देवादीनां परा स्मृता। तथोपजीविनां गङ्गा सर्वप्राणभृतामिह।। | 13-65-55a 13-65-55b |
देवाः सोमार्कसंस्थानि यता सत्रादिभिर्मखैः। अमृतान्युपजीवन्ति तथा गङ्गाजलं नराः।। | 13-65-56a 13-65-56b |
जाह्नवीपुलिनोत्थाभिः सिकताभिः समुक्षितम्। आत्मानं मन्यते लोको दिविष्ठमिव शोभितम्।। | 13-65-57a 13-65-57b |
जाह्नवीतीरसम्भूतां मृदं मूर्ध्ना बिभर्ति यः। बिभर्ति रूपं सोऽर्कस्य तमोनाशाय निर्मलम्।। | 13-65-58a 13-65-58b |
गङ्गोर्मिभिरथो दिग्धः पुरुषं पवनो यदा। स्पृश्यते सोऽस्य पाप्मानं सद्य एवापकर्षति।। | 13-65-59a 13-65-59b |
व्यसनैरभितप्तस्य नरस्य विनशिष्यतः। गङ्गादर्शनजा प्रीतिर्व्यसनान्यपकर्षति।। | 13-65-60a 13-65-60b |
हंसारावैः कोकरवै रवैरन्यैश्च पक्षिणाम्। पस्पर्ध गङ्गा गन्धर्वान्पुलिनैश्च शिलोच्चयान्।। | 13-65-61a 13-65-61b |
हंसादिभिः सुबहुभिर्विविधैः पक्षिभिर्वृताम्। गङ्गां गोकुलसम्बादां दृष्ट्वा स्वर्गोऽपि विस्मृतः।। | 13-65-62a 13-65-62b |
न सा प्रीतिर्दिविष्ठस्य सर्वकामानुपाश्नतः। सम्भवेद्या परा प्रीतिर्गङ्गायाः पुलिने नृणाम्।। | 13-65-63a 13-65-63b |
वाङ्मन कर्मजैर्ग्रस्तः पापैरपि पुमानिह। वीक्ष्य गङ्गां भवेन्मूतो अत्र मे नास्ति संशयः।। | 13-65-64a 13-65-64b |
सप्तावरान्सप्त परान्पितॄंस्तेभ्यश्च ये परे। पुमांस्तारयते गङ्गां वीक्ष्य स्पृष्ट्वाऽवगाह्य च।। | 13-65-65a 13-65-65b |
श्रुताभिलषिता पीता स्पृष्टा दृष्टाऽवगाहिता। गङ्गा तारयते नॄणामुभौ वंशौ विशेषतः।। | 13-65-66a 13-65-66b |
`तत्तीरगानां तपसा श्राद्धपारायणादिभिः। गङ्गाद्वारप्रभृतिभिस्तत्तीर्थैर्न परं नृणाम्।। | 13-65-67a 13-65-67b |
सायं प्रातः स्मरेद्गङ्गां नित्यं स्नाने तु कीर्तयेत्। तर्पणे पितृपूजासु मरणे चापि संस्मरेत्।।' | 13-65-68a 13-65-68b |
दर्शनात्स्पर्शनात्पानात्तथा गङ्गेति कीर्तनात्। पुनात्युपुण्यान्पुरुषाञ्शतशोऽथ सहस्रशः।। | 13-65-69a 13-65-69b |
य इच्छेत्सफलं जन्म जीवितं श्रुतमेव च। स पितॄंस्तर्पयेद्गङ्गामभिगम्य सुरांस्तथा।। | 13-65-70a 13-65-70b |
न श्रुतैर्न च वित्तेन कर्मणा न च तत्फलम्। प्राप्नुयात्पुरुषोऽत्यन्तं गङ्गां प्राप्य यदाप्नुयात्।। | 13-65-71a 13-65-71b |
जात्यन्धैरिह तुल्यास्ते मृतैः पङ्गुभिरेव च। समर्था ये न पश्यन्ति गङ्गां पुण्यजलां शिवाम्।। | 13-65-72a 13-65-72b |
भूतभव्यभविष्यज्ञैर्महर्षिभिरुपस्थिताम्। देवैः सेन्द्रैश्च को गङ्गां नोपसेवेत मानवः।। | 13-65-73a 13-65-73b |
वानप्रस्थैर्गृहस्थैश्च यतिभिर्ब्रह्मचारिभिः। विद्यावद्भिः श्रितां गङ्गां पुमान्को नाम नाश्रयेत्।। | 13-65-74a 13-65-74b |
उत्कामद्बिश्च यः प्राणैः प्रयतः शिष्टसम्मतः। चिन्तयेन्मनसा गङ्गां स गतिं परमांलभेत्।। | 13-65-75a 13-65-75b |
न भयेभ्यो भयं तस्य न पापेभ्यो न राजतः। आदेहपतनाद्गङ्गामुपास्ते यः पुमानिह।। | 13-65-76a 13-65-76b |
गगनाद्गां पतन्तीं वै महापुण्यां महेश्वरः। दधार शिरसा गङ्गां तामेव दिवि सेवते।। | 13-65-77a 13-65-77b |
अलङ्कृतास्त्रयो लोकाः पथिभिर्विमलैस्त्रिभिः। यस्तु तस्या जलं सेवेत्क्रतकृत्यः पुमान्भवेत्। | 13-65-78a 13-65-78b |
दिवि ज्योतिर्यथाऽऽदित्यः पितॄणां चैव चन्द्रमाः। देवेश यथा नृणां गङ्गा च सरितां तथा।। | 13-65-79a 13-65-79b |
मात्रा पित्रा सुतैर्दारैर्विमुक्तस्य धनेन वा। न भवेद्धि तथा दुःखं यथा गङ्गा वियोगजम्।। | 13-65-80a 13-65-80b |
नारण्यैर्नेष्टविषयैर्न सुतैर्न धनागमैः। तथा प्रसादो भवति गङ्गां वीक्ष्य यथा भवेत्।। | 13-65-81a 13-65-81b |
पूर्णमिन्दुं यथा दृष्ट्वा नृणां दृष्टिः प्रसीदति। तथा त्रिपथगां दृष्ट्वा नृणां दृष्टिः प्रसीदति।। | 13-65-82a 13-65-82b |
तद्भावस्तद्गतमनास्तन्निष्ठस्तत्परायणः। गङ्गांयोऽनुगतो भक्त्यास तस्याः प्रियतां व्रजेत्।। | 13-65-83a 13-65-83b |
भूस्थैः खस्थैर्दिविष्ठैश्च भूतैरुच्चावचैरपि। गङ्गा विगाह्या सततमेतत्कार्यतमं सताम्।। | 13-65-84a 13-65-84b |
विश्वलोकेषु पुण्यत्वाद्गङ्गायाः प्रथितं यशः। `दुर्मृताननपत्यांश्च सा मृताननयद्दिवम्।' यत्पुत्रान्सगरस्येतो भस्माख्याननयद्दिवम्।। | 13-65-85a 13-65-85b 13-65-85c |
वाय्वीरिताभिः सुमनोहराभि- र्द्रुताभिरत्यर्थसमुत्थिताभिः। गङ्गोर्मिभिर्भानुमतीभिरिद्धाः सहस्ररश्मिप्रतिमा भवन्ति।। | 13-65-86a 13-65-86b 13-65-86c 13-65-86d |
पयस्विनीं घृतिनीमत्युदारां समृद्धिनीं वेगिनीं दुर्विगाह्याम्। गङ्गां गत्वा यैः शरीरं विसृष्टं गता धीरस्ते विबुधैः समत्वम्।। | 13-65-87a 13-65-87b 13-65-87c 13-65-87d |
अन्धाञ्चडान्द्रव्यहीनांश्च गङ्गा यशस्विनी बृहती विश्वरूपा। देवैः सेन्द्रैर्मुनिभिर्मानवैश्च निषेविता सर्वकामैर्युनक्ति।। | 13-65-88a 13-65-88b 13-65-88c 13-65-88d |
ऊर्जस्वतीं मधुमतीं महापुण्यां त्रिवर्त्मगाम्। त्रिलोकगोप्त्रीं ये गङ्गां संश्रितास्ते दिवं गताः।। | 13-65-89a 13-65-89b |
यो वत्स्यति द्रक्ष्यति वाऽपि मर्त्य- स्मस्मै प्रयच्छन्ति सुखानि देवाः। तद्भाविताः स्पर्शनदर्शनेन इष्टां गतिं तस्य सुरा दिशन्ति।। | 13-65-90a 13-65-90b 13-65-90c 13-65-90d |
दक्षां पृश्निं बृहतीं विप्रकृष्टां शिवामृद्धां भागिनीं सुप्रसन्नाम्। विभावरीं सर्वभूतप्रतिष्ठां गङ्गां गता ये त्रिदिवं गतास्ते।। | 13-65-91a 13-65-91b 13-65-91c 13-65-91d |
ख्यातिर्यस्याः खं दिवं गां च नित्या- मूर्ध्वं दिशो विदिशश्चावतस्थे। तस्या जलं सेव्य सरिद्वराया मर्त्याः सर्वे कुतकृत्या भवन्ति।। | 13-65-92a 13-65-92b 13-65-92c 13-65-92d |
इयं गङ्गेति नियतं प्रतिष्ठा गुहस्य स्क्मस्य च गर्भयोषा। प्रातस्त्रिवर्गा घृतवहा विपाप्मा गङ्गाऽवतीर्णा वियतो विश्वतोया।। | 13-65-93a 13-65-93b 13-65-93c 13-65-93d |
दिवो भुवश्चापि वीक्ष्यानुरूपा।।' | 13-65-94f |
सुताऽवनीध्रस्य हरस्य भार्या दिवो भुवश्चापि कृतानुरूपा। भव्या पृथिव्यां भागिनी चापि राज- न्गङ्गा लोकानां पृण्यदा वै त्रयाणाम्।। | 13-65-95a 13-65-95b 13-65-95c 13-65-95d |
मधुस्रवा घृतधारा घृतार्चि- र्महोर्मिभिः शोभिता ब्राह्मणैश्च। दिवश्च्युता शिरसाऽऽप्ता शिवेन गङ्गाऽवनीध्रात्त्रिदिवस्य माता।। | 13-65-96a 13-65-96b 13-65-96c 13-65-96d |
योनिर्वरिष्ठा विरजा वितन्वी शय्याऽचिरा वारिवहा यशोदा। विश्वावती चाकृतिरिष्टसिद्धा गङ्गोक्षितानां भुवनस्य पन्थाः।। | 13-65-97a 13-65-97b 13-65-97c 13-65-97d |
क्षान्त्या मह्या गोपने धारणे च दीप्त्य, कृशानोस्तपनस्य चैव। तुल्या गङ्गा सम्मता ब्राह्मणानां गृहस्य ब्रह्मण्यतया च नित्यम्।। | 13-65-98a 13-65-98b 13-65-98c 13-65-98d |
ऋषिष्टुतां विष्णुपदीं पुराणां सुपुण्यतोयां मनसाऽपि लोके। सर्वात्मना जाह्नवीं ये प्रवन्ना स्ते ब्रह्मणः सदनं सम्प्रयाताः।। | 13-65-99a 13-65-99b 13-65-99c 13-65-99d |
लोकानिमान्नयति या जननीव पुत्रा- न्सर्वात्मना सर्वगुणोपपन्ना। तत्स्थानकं ब्राह्ममभीप्समानै- र्गङ्गा सदैवात्मवशैरुपास्या।। | 13-65-100a 13-65-100b 13-65-100c 13-65-100d |
गंङ्गां श्रयेदात्मवान्सिद्धिकामः।। | 13-65-101f |
प्रसाद्य देवान्सविभून्समस्ता- न्भगीरथस्तपसोग्रेण गङ्गाम्। गामानयत्तामभिगम्य शश्व- त्पुंसां भयं नेह चामुत्र विद्यात्।। | 13-65-102a 13-65-102b 13-65-102c 13-65-102d |
उदाहृतः सर्वथा ते गुणानां मयैकदेशः प्रसमीक्ष्य बृद्ध्या। शक्तिर्न से काचिदिहास्ति वक्तुं गुणान्सर्वान्परिमातुं तथैव।। | 13-65-103a 13-65-103b 13-65-103c 13-65-103d |
मेरोः समुद्रस्य च सर्वयत्नैः सङ्ख्योपलानामुदकस्य वाऽपि। शक्यं वक्तुं नेह गङ्गाजलानां गुणाख्यानं परिमातुं तथैव।। | 13-65-104a 13-65-104b 13-65-104c 13-65-104d |
तस्मादेतान्परया श्रद्धयोक्ता- न्गुणान्सर्वाञ्जाह्नवीयान्सदैव। भवेद्वाचा मनसा कर्मणा च भक्त्या युक्तः श्रद्धया श्रद्दधानः।। | 13-65-105a 13-65-105b 13-65-105c 13-65-105d |
लोकानिमांस्त्रीन्यशसा वितत्य सिद्धिं प्राप्य महतीं तां दुरापाम्। गङ्गाकृतानचिरेणैव लोका- न्यथेष्टमिष्टान्विहरिष्यसि त्वम्।। | 13-65-106a 13-65-106b 13-65-106c 13-65-106d |
तव मम च गुणैर्महानुभावा जुषतु भतिं सततं स्वधर्मयुक्तैः। अभिमतजनवत्सला हि गङ्गा जगति युनक्ति सुखैश्च भक्तिमन्तम्।। | 13-65-107a 13-65-107b 13-65-107c 13-65-107d |
भीष्म उवाच। | 13-65-108x |
इति परममतिर्गुणानशेषा- ञ्शिलरतये त्रिपथानुयोगरूपान्। बहुविधमनुशास्य तथ्यरूपा- न्गगनतलं द्युतिमान्विवेश सिद्धः।। | 13-65-108a 13-65-108b 13-65-108c 13-65-108d |
शिलवृत्तिस्तु सिद्धस्य वाक्यैः सम्बोधितस्तदा। गङ्गामुपास्य विधिवत्सिद्धिं प्राप सुदुर्लभाम्।। | 13-65-109a 13-65-109b |
तथा त्वमपि कौन्तेय भक्त्या परमया युतः। गङ्गामभ्येहि सततं प्राप्स्यसे सिद्धिमुत्तमाम्।। | 13-65-110a 13-65-110b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-65-111x |
श्रुत्वेतिहासं भीष्मोक्तं गङ्गायाः स्तवसंयुतम्। युधिष्ठिरः परां प्रीतिमगच्छद्धातृभिः सह।। | 13-65-111a 13-65-111b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।। 65 ।। |
13-65-2 यदाऽपृच्छत्तदैवाजग्मुरिति द्वितीयेन यत्तदोरध्याहारेण न्वयः।। 13-65-16 महाभाग्यं योगैश्वर्यं खेचरत्वान्तर्धानशक्त्यादिसिद्धिमत्त्वम्।। 13-65-18 देशाः भूमिभागाः। जनपदाः महाजननिवासस्थानानि। आश्रमाः ऋषिस्थानानि।। 13-65-26 ते देशा इति प्रकृष्टाः पुण्यत इत्यनुषङ्गः।। 13-65-28 गात्राण्यस्थीनि। न्यस्तानि गङ्गायाम्। त्यक्तानि यानि वै तेषां त्यागात्स्वर्गो विधीयते इति ध. पाठः।। 13-65-32 व्युष्टिः पुण्यवृद्धिः।। 13-65-33 यावदस्थि मनुष्याणामिति थ.ध. पाठः।। 13-65-40 गवां निर्हार आहारनिर्गमनामार्गस्ततो निर्मुक्तं यावकं यवविकारस्तस्मात्। गां यवानादयित्वा तच्छकृदन्तर्गतान् यवान् पक्त्वा भुञ्जानो यावकव्रतीत्युच्यते।। 13-65-41 इन्दुव्रतं चान्द्रायणम्।। 13-65-44 धूयते दूरे जायते भस्मीभूयापि न शिव्यते इत्यर्थः।। 13-65-63 कामान् भोगान्।। 13-65-81 उपस्थितां नित्यं सेविताम्।। इष्टं यागादि तत्प्राप्यैरिष्टविषयैः स्वर्ग्यैः।। 13-65-83 इद्धाः निर्दोषत्वेन दीप्ताः।। 13-65-87 पयोघृते यागीये हविषी समृद्धिर्यागफलं तद्वतीम्। यागादिजं पुण्यं तत्फलं स्वर्गादि च गङ्गाप्राप्त्यैव लभ्यत इत्यर्थः।। 13-65-89 ऊर्क अन्नपश्वादिः तत्प्रदामित्यर्थः। मधु कर्मफलं ब्रह्म वा तत्प्रदां मधुमतीम्।। 13-65-90 योगं गामिति शेषः। तथा गङ्गया भाविताः महत्त्वं गताः देवाः। स्पर्शनदर्शनेन गङ्गाया एव।। 13-65-91 दक्षां तारणसमर्थाम्। पृश्निं विष्णुमातरम्। बृहतीं वाचम्। वाग्वै बृहतीतिश्रुतेः। भागिनीं भनानामैश्वर्यादीनां षण्णां समूहो भागं तद्वतीम्। विभावरीं प्रकाशिकाम्।। 13-65-93 गङ्गां दृष्ट्वा इयं गङ्गेति अन्यान् गङ्गां दर्शयतः पुरुषस्य नियतं नियमेन गङ्गैव प्रतिष्ठा संसारावसानहेतुर्भवति। गुहस्य कार्तिकेयस्य रुक्मस्य स्वर्णस्य च गर्भयोषा गर्भधारिणी स्त्री। वियतः सकाशात्प्रातरवतीर्णा त्रिवर्गा धर्प्रार्थकामदा। धृतवहा जलवाहिनी। विश्वतोया विश्वप्रियतोया।। 13-65-95 अवनीध्रस्य मेरोः हिमवतो वा पर्वतस्य। कृतं अनुरूपं अलङ्कारो यया सा कृतानुरूपा।। 13-65-96 मधुस्रवा धर्मद्रवा। घृतधारा तेजोधारा घृतार्चिः आज्यस्येव अर्चिर्वा यस्याः। सा अवनीध्रात् पृथिवीं प्राप्तेति शेषः।। 13-65-97 वरिष्ठा योनिः परमकारणम्। वि जा निर्मला। वितन्वी विशेषेण तन्वी सूक्ष्मा। शय्या दीर्घनिद्रा तल्पः। मरणं जाह्नवीतट इति वचनात्। अचिरा शीघ्रा। विश्वावती विश्वं अवन्ती पालयन्ती। नुमभाव आर्षः। इष्टसिद्धा इष्टाःक सिद्धा यस्याः सा, सिद्धानामिष्टा इति वा। अक्षेतानां स्नातानाम्। भुवनस्य स्वर्गस्य। पुष्पाविला परिवाहा यशोदेति ध. पाठः।। 13-65-98 क्षान्त्यादित्रये मह्या तुल्येति सम्बन्धः। गुहस्य कुमारस्य सम्मता। ब्रह्मण्यतया ब्राह्मणजात्यनुग्राहकतयः।। 13-65-99 मनसापि प्रपन्नाः किमुत साक्षात्।। 13-65-101 उस्रं धेनुममृतदुघामिति यावत्। मिषतीं पश्यन्तीं सर्वज्ञामित्यर्थः। हरावतीमन्नवतीम्। ब्रह्मणोपि कान्तो चेतोहराम्।। 13-65-102 सविभून् सेक्षरान्। गां पृथ्वीम्।। 13-65-103 मदुक्तान् गङ्गागुणान् ज्ञात्वा वागादिमिः स्तोत्रध्यानस्नानादिषु श्रद्ददानो भवेदिती सम्बन्धः। गङ्गाकृतान् गङ्गासेवनप्राप्तान्। इष्टान् सङ्कल्पसिद्धान्। 13-65-107 महानुभावा गङ्गा मतिं जुषतु प्रीणातु। गङ्गादर्शनादिना मतिः प्रसीदत्वित्यर्थः। अभिमतः श्रद्धालुः।।
अनुशासनपर्व-064 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-066 |