महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-170
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तीर्थशौचनिरूपणम्।। 1।।
13-170-7 तत्त्ववित्त्वनहंबुद्धिस्तीर्थप्रवरमुच्यते इति झ.पाठः।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-170-1x |
यद्वरं सर्वतीर्थानां तद्ब्रवीहि पितामह। यत्र चैव परं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-170-1a 13-170-1b |
भीष्म उवाच। | 13-170-2x |
सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणः। यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः।। | 13-170-2a 13-170-2b |
अगाधे विमले शुद्धे सत्यतीर्थे धृतिह्रदे। स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्वमालम्ब्य शाश्वतम्।। | 13-170-3a 13-170-3b |
तीर्थशौचं तपो ज्ञानं मार्दवं सत्यमार्जवम्। अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः।। | 13-170-4a 13-170-4b |
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः। योगिनस्तीर्थभूतास्ते तीर्थं परममुच्यते।। | 13-170-5a 13-170-5b |
नारायणेऽथ रुद्रे वा भक्तिस्तीर्थं परं मतम्। शौचलक्षणमेतत्ते सर्वत्रैवान्ववेक्षतः।। | 13-170-6a 13-170-6b |
रजस्तमःसत्वमथो येषां निर्धूतमात्मना। तीर्थमाचारशुद्धिश्च स्वमार्गपरिमार्गणम्। | 13-170-7a 13-170-7b |
सर्वत्यागेष्वभिरताः सर्वज्ञाः समदर्शिनः। शौचष्वेतेष्वभिरतास्ते तीर्थशुचयोऽपि च।। | 13-170-8a 13-170-8b |
नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते। स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।। | 13-170-9a 13-170-9b |
अदृष्टेष्वनपेक्षा ये प्राप्तेष्वर्थेषु निर्ममाः। शौचमेव परं तेषां येषां नोत्पद्यते स्पृहा।। | 13-170-10a 13-170-10b |
प्रज्ञानं शौचमेवेह शरीरस्य विशेषतः। तथा निष्किंचनत्वं च मनसश्च प्रसन्नता।। | 13-170-11a 13-170-11b |
वृत्तं शौचं महाशौचं तीर्थशौचमतः परम्। ज्ञानोत्पन्नं च यच्छौचं तच्छौचं परमं स्मृतम्।। | 13-170-12a 13-170-12b |
मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च। स्नाता ये मानसे तीर्थे तज्ज्ञाः क्षेत्रज्ञदर्शनाः।। | 13-170-13a 13-170-13b |
समारोपितशौचस्तु नित्यं भवसमन्वितः। केवलं गुणसम्पन्नः शुचिरेव नरः सदा।। | 13-170-14a 13-170-14b |
शरीरस्थानि तीर्थानि प्रोक्तान्येतानि भारत। पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यानि शृणु तान्यपि।। | 13-170-15a 13-170-15b |
शरीरस्य यथोद्देशः शरीरोपरि निर्मिताः। तथा पृथिव्या भागाश्च पुण्यानि सलिलानि च।। | 13-170-16a 13-170-16b |
कीर्तनाच्चैव तीर्थस्य स्नानाच्च पितृतर्पणात्। शोध्यं हि पातकं तीर्थे पूता यान्ति सुखं दिवम्। | 13-170-17a 13-170-17b |
परिग्रहाच्च साधूनां पृथिव्याश्चैव तेजसा। अतीव पुण्यभागास्ते सलिलस्य च तेजसा।। | 13-170-18a 13-170-18b |
मनसश्च पृथिव्याश्च पुण्यास्तीर्थास्तथापरे। उभयोरेव यः स्नायात्स सिद्धिं शीघ्रमाप्नुयात्।। | 13-170-19a 13-170-19b |
यथा फलं क्रियाहीनं क्रिया वा फलवर्जिता। नेह साधयते कार्यं समायुक्ता तु सिध्यति।। | 13-170-20a 13-170-20b |
एवं शरीरशौचेन तीर्थशौचेन चान्वितः। शुचिः सिद्धिमवाप्नोति द्विविधं शौचमुत्तमम्।। | 13-170-21a 13-170-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 170 ।। |
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