महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-100
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति जलादिदानफलप्रतिपादनम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-100-1x |
सर्वान्कामान्प्रयच्छन्ति ये प्रयच्छन्ति काञ्चनम्। इत्येवं भगवानत्रिः पितामहसुतोऽब्रवीत्।। | 13-100-1a 13-100-1b |
पवित्रं शुच्यथायुष्यं पितृणामक्ष्यं च तत्। सुवर्णं मनुजेन्द्रेण हरिश्चन्द्रेण कीर्तितम्।। | 13-100-2a 13-100-2b |
पानीयपरमं दानं दानानां मनुरब्रवीत्। तस्मात्कूपांश्च वापीश्च तटाकानि च स्वानयेत्।। | 13-100-3a 13-100-3b |
सर्वं विनाशयेत्पापं पुरुषस्येह कर्मणः। कूपः प्रवृत्तपानीयः सुप्रवृत्तश्च नित्यशः।। | 13-100-4a 13-100-4b |
सर्वं तारयते वंशं यस्य खाते जलाशये। गावः पिबन्ति विप्राश्च साधवश्च नराः सदा।। | 13-100-5a 13-100-5b |
निदाघकाले पानीयं यस्य तिष्ठत्यवारितम्। स दुर्गं विषमं कृत्स्नं न कदाचिदवाप्नुते।। | 13-100-6a 13-100-6b |
बृहस्पतेर्भगवतः पूष्णश्चैव भगस्य च। अश्विनोश्चैव वह्नेश्च प्रीतिर्भवति सर्पिषा।। | 13-100-7a 13-100-7b |
परमं भेषजं ह्येतद्यज्ञानामेतदुत्तमम्। रसानामुत्तमं चैतत्फलानां चैतदुत्तमम्।। | 13-100-8a 13-100-8b |
फलकामो यशस्कामः पुष्टिकामश्च नित्यदा। घृतं दद्याद्द्विजातिभ्यः पुरुषः शुचिरात्मवान्।। | 13-100-9a 13-100-9b |
घृतं मासे आश्वयुजि विप्रभ्यो यः प्रयच्छति। तस्मै प्रयच्छतो रूपं प्रीतौ देवाविहाश्विनौ।। | 13-100-10a 13-100-10b |
पायसं सर्पिषा मिश्रं द्विजेभ्यो यः प्रयच्छति। गृहं तस्य न रक्षांसि धर्षयन्ति कदाचन।। | 13-100-11a 13-100-11b |
पिपासया न म्रियते सोपच्छन्दश्च जायते। न प्राप्नुयाच्च व्यसनं करकान्यः प्रयच्छति।। | 13-100-12a 13-100-12b |
प्रयतो ब्राह्मणाग्रे यः श्रद्धया परया युतः। उपस्पर्शनषड्भागं लभते पुरुषः सदा।। | 13-100-13a 13-100-13b |
यः साधनार्थं काष्ठानि ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। प्रतापनार्थं राजेन्द्र वृत्तवद्भ्यः सदा नरः।। | 13-100-14a 13-100-14b |
सिद्ध्यन्त्यर्थाः सदा तस्य कार्याणि विविधानि च। उपर्युपरि शत्रूणां वपुषा दीप्यते च सः।। | 13-100-15a 13-100-15b |
भगवांश्चापि सम्प्रतो वह्निर्भवति नित्यशः। न तं त्यजन्ति पशवः सङ्ग्रामे च जयत्यपि।। | 13-100-16a 13-100-16b |
पुत्राञ्श्रियं च लभते यश्छत्रं सम्प्रच्छति। न चक्षुर्व्याधिं लभते यज्ञभागमथाश्नुते।। | 13-100-17a 13-100-17b |
निदाघकाले वर्षे वा यश्छत्रं सम्प्रयच्छति। नास्य कश्चिन्मनोदाहः कदाचिदपि जायते। कृच्छ्रात्स विषमाच्चैव क्षिप्रं मोक्षमवाप्नुते।। | 13-100-18a 13-100-18b 13-100-18c |
प्रदानं सर्वदानानां शकटस्य विशाम्पते। एवमाह महाभागः शाण्डिल्यो भगवानृषिः।। | 13-100-19a 13-100-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शततमोऽध्यायः।। 100 ।। |
13-100-12 सोपच्छन्दः सोपकरणः। करकान्पात्रविशेषान्।। 13-100-13 अग्रं वृत्तिक्षेत्रादि तदर्थम्। उत्कोचं विना। उपस्पर्शनं दानम्।।
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