महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-071
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणमाहात्म्यप्रतिपादकशक्रशम्बरसंवादानुवादः।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-71-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। शक्रशम्बरसंवादं तन्निवोध युधिष्ठिर।। | 13-71-1a 13-71-1b |
शक्रो ह्यज्ञातरूपेण जटी भूत्वा सुवारुणः। विप्ररूपं समास्थाय प्रश्नं पप्रच्छ शम्बरम्।। | 13-71-2a 13-71-2b |
केन शम्बर वृत्तेन स्वजात्यानधितिष्ठसि। श्रेष्ठं त्वां केन मन्यन्ते तद्वै प्रब्रूहि तत्त्वतः।। | 13-71-3a 13-71-3b |
शम्बर उवाच। | 13-71-4x |
नासूयामि सदा विप्रान्ब्राह्ममेव च मे मतम्। शास्त्राणि वदतो विप्रान्संमन्यामि यथासुखम्।। | 13-71-4a 13-71-4b |
श्रुत्वा च नावजानामि नापराध्यामि कर्हिचित्। अभ्यर्च्याभ्यनुपृच्छामि पादौ गृह्णामि धीमताम्।। | 13-71-5a 13-71-5b |
ते विस्रब्धाः प्रभाषन्ते संयच्छन्ति च मां सदा। प्रमत्तेष्वप्रमत्तोऽस्मि सदा सुप्तेषु जागृमि।। | 13-71-6a 13-71-6b |
ते मां शास्त्रपथे युक्तं ब्रह्मण्यमनसूयकम्। समासिञ्चति शास्तारः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः।। | 13-71-7a 13-71-7b |
यच्च भाषन्ति संतुष्टास्तच्च गृह्णाम्यमायया। समाधिमात्मनो नित्यमनुलोममचिन्तयम्।। | 13-71-8a 13-71-8b |
सोहं वागग्रमृष्टानां रसानामवलेहकः। स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः।। | 13-71-9a 13-71-9b |
एतत्पृथिव्याममृतमेतच्चक्षुरनुत्तमम्। यद्ब्राह्मणमुखाच्छास्त्रमिह श्रुत्वा प्रवर्तते।। | 13-71-10a 13-71-10b |
एतत्कारणमाज्ञाय दृष्ट्वा देवासुरं पुरा। युद्धं पिता मे हृष्टात्मा विस्मितः समपद्यत।। | 13-71-11a 13-71-11b |
दृष्ट्वा च ब्राह्मणानां तु महिमानं महात्मनाम्। पर्यपृच्छत्कथममी सिद्धा इति निशाकरम्।। | 13-71-12a 13-71-12b |
सोम उवाच। | 13-71-13x |
ब्राह्मणास्तपसा सर्वे सिध्यन्ते वाग्बलाः सदा। भुजवीर्याश्च राजानो वागस्त्राश्च द्विजातयः।। | 13-71-13a 13-71-13b |
प्रवसन्वाप्यधीयीत ब्राह्मीर्दुर्वसतीर्वसन्। निर्मन्युरपि निर्वाणो यतिः स्यात्समदर्शनः।। | 13-71-14a 13-71-14b |
अपि च ज्ञानसम्पन्नः सर्वान्वेदान्पितुर्गृहे। श्लाघमान इवाधीयाद्ग्राम्य इत्येव तं विदुः।। | 13-71-15a 13-71-15b |
भूमिरेतौ निगिरति सर्पो बिलशयानिव। राजानं चाप्ययोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।। | 13-71-16a 13-71-16b |
अभिमानः श्रियं हन्ति पुरुषस्याल्पमेधसः। गर्भेण दुष्यते कन्या गृहवासेन च द्विजः।। | 13-71-17a 13-71-17b |
`विद्याविदो लोकविदस्तपोदमसमन्विताः। नित्यपूज्याश्च वन्द्याश्च द्विजा लोकद्वयेच्छुभिः।। | 13-71-18a 13-71-18b |
इत्येतन्मे पिता श्रुत्वा सोमादद्भुतदर्शनात्। ब्राह्मणान्पूजयामास तथैवाहं महाव्रतान्।। | 13-71-19a 13-71-19b |
भीष्म उवाच। | 13-71-20x |
श्रुत्वैतद्वचनं शक्रो दानवेन्द्रमुखाच्च्युतम्। द्विजान्संम्पूजयामास महेन्द्रत्वमवाप च।। | 13-71-20a 13-71-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71 ।। |
13-71-7 मां मयि। मधु अमृततुल्यां विद्यां समासिच्चन्ति क्षौद्रं मधुपटलम् मक्षिका मध्विवेत्यावृत्त्या योज्यम्।। 13-71-8 समाधिं ब्राह्मणेषु निष्ठाम्।। 13-71-9 वागग्रे जिह्वाग्रे मृष्टं विद्यामृतं येषां ब्राह्मणानाम्। रसानामुक्तिसुधानाम्।। 13-71-14 ब्राह्मर्वेदार्थाः दुर्वसतीः गुरुकुलवासक्लेशात्। अपि अपिवा। सति वैराग्ये यतिः स्यात्।। 13-71-15 पितुर्गृहे वेदाध्ययनं निन्दति अपीति।। 13-71-16 अप्रवासिनं वेदार्थं ग्रामान्तरे वा समकुर्वाणम्।।
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