महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-113
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोमहिमप्रतिपादकविसिष्ठसौदाससंवादानुवादः।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-113-1x |
एवमुक्त्वा ततो भीष्मः पुनर्धर्मसुतं नृपम्। जनमेजयभूपाल उवाचेदं सहेतुकम्।। | 13-113-1a 13-113-1b |
एतस्मिन्नेव काले तु वसिष्ठमृषिसत्तमम्। इक्ष्वाकुवंशजो राजा सौदासो वदतां वरः।। | 13-113-2a 13-113-2b |
सर्वलोकचरं सिद्धं ब्रह्मकोशं सनातनम्। पुरोहितमभिप्रष्टुमभिवाद्योपचक्रमे।। | 13-113-3a 13-113-3b |
त्रैलोक्ये भगवन्किंस्वित्पवित्रं कथ्यतेऽनघ। यत्कीर्तयन्सदा मर्त्यः प्राप्नुयात्पुण्यमुत्तमम्।। | 13-113-4a 13-113-4b |
भीष्म उवाच। | 13-113-5x |
तस्मै प्रोवाच वचनं प्रणताय हितं तदा। गवामुपनिषद्विद्यां नमस्कृत्य गवां शुचिः।। | 13-113-5a 13-113-5b |
गावः सुरभिगन्धिन्यस्तथा गुग्गुलुगन्धयः। गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं महत्।। | 13-113-6a 13-113-6b |
गावो भूतं च भव्यं च गावः पुष्टिः सनातनी। गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषु दत्तं न नश्यति।। | 13-113-7a 13-113-7b |
अन्नं हि परमं गावो देवानां परमं हविः। स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ।। | 13-113-8a 13-113-8b |
गावो यज्ञस्य हि फलं गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः। गावो भविष्यं भूतं च गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।। | 13-113-9a 13-113-9b |
सायं प्रातश्च सततं होमकाले महाद्युते। गावो ददति वै हौम्यमृषिभ्यः पुरुषर्षभ।। | 13-113-10a 13-113-10b |
यानि कानि च दुर्गाणि दुष्कृतानि कृतानि च। तरन्ति चैव पाप्मानं धेनुं ये ददति प्रभो।। | 13-113-11a 13-113-11b |
एकां च दशगुर्दद्याद्दश दद्याच्च गोशती। शतं सहस्रगुर्दद्यात्सर्वे तुल्यफला हि ते।। | 13-113-12a 13-113-12b |
अनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः। समृद्धो यश्च कीनाशो नार्घमर्हन्ति ते त्रयः।। | 13-113-13a 13-113-13b |
कपिलां ये प्रयच्छन्ति सवत्सां कांस्यदोहनाम्। सुव्रतां वस्त्रसंवीतामुभौ लोकौ जयन्ति ते।। | 13-113-14a 13-113-14b |
युवानमिन्द्रियोपेतं शतेन सहयूथपम्। गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृङ्गमलङ्कृतम्।। | 13-113-15a 13-113-15b |
वृषबं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाय परन्तप। ऐश्वर्यं तेऽधिगच्छन्ति जायमानाः पुनःपुनः।। | 13-113-16a 13-113-16b |
नाकीर्तयित्वा गाःक सुप्यात्तासां संस्मृत्य चोत्पतेत्। सायं प्रातर्नमस्येच्च गास्ततः पुष्टिमाप्नुयात्।। | 13-113-17a 13-113-17b |
गवां मूत्रपुरीषस्य नोद्विजेत कथञ्चन। न चासां मांसमश्नीयाद्गवां पुष्टिं तथाऽऽप्नुयात्।। | 13-113-18a 13-113-18b |
गाश्च संकीर्तयन्नित्यं नावमन्येत तास्तथा। अनिष्टं स्वप्नमालक्ष्य गां नरः सम्प्रकीर्तयेत्।। | 13-113-19a 13-113-19b |
गोमयेन सदा स्नायाद्गोकरीषे च संविशेत्। श्लोष्ममूत्रपुरीषाणि प्रतिघातं च वर्जयेत्।। | 13-113-20a 13-113-20b |
सार्द्रे चर्मणि भुञ्जीत निरीक्षेद्वारुणीं दिशम्। वाग्यतः सर्पिषा भूमौ गवां व्युष्टिं सदाऽऽश्नुते।। | 13-113-21a 13-113-21b |
घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत्। घृतं दद्याद्धृतं प्राशेद्गवां व्युष्टिं सदाऽऽश्नुते।। | 13-113-22a 13-113-22b |
गोमत्या विद्यया धेनुं तिलानामभिमन्त्र्य यः। सर्वरत्नमयीं दद्यान्न स शोचेत्कृताकृते।। | 13-113-23a 13-113-23b |
गावो मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्ग्यः पयोमुचः। सुरभ्यः सौरभेय्यश्च सरितः सागरं यथा।। | 13-113-24a 13-113-24b |
गा वै पश्याम्यहं नित्यं गावः पश्यन्तु मां सदा। गावोस्माकं वयं तासां यतो गावस्ततो वयम्।। | 13-113-25a 13-113-25b |
एवं रात्रौ दिवा चापि समेषु विषमेषु च। महाभयेषु च नरः कीर्तयन्मुच्यते भवात्।। | 13-113-26a 13-113-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 113 ।। |
13-113-13 कीनाशः कर्षकः कृपणो वा। अर्घं पूजाम्।। 13-113-21 सौम्ये चर्मणीति ध.पाठः।। 13-113-23 गोमाँ अग्नेविमाँ अश्वीति मन्त्रो गोमती।।
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