महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-093
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति तटाकादिप्रतिष्ठाया वृक्षाद्यारोपणस्य च फलनिरूपणम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-93-1x |
आरामाणां तटाकानां यत्फलं कुरुपुङ्गव। तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तोऽद्य भरतर्षभ।। | 13-93-1a 13-93-1b |
भीष्म उवाच। | 13-93-2x |
सुप्रदर्शा बलवती चित्रा धातुविभूषिता। उपेता सर्वभूतैश्च श्रेष्ठा भूमिरिहोच्यते।। | 13-93-2a 13-93-2b |
तस्याः क्षेत्रविशेषाश्च तटाकानां च बन्धनम्। औदकानि च सर्वाणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।। | 13-93-3a 13-93-3b |
तटाकानां च वक्ष्यामि कृतानां चापि ये गुणाः। त्रिषु लोकेषु सर्वत्र पूजनीयस्तटाकवान्।। | 13-93-4a 13-93-4b |
अथवा मित्रसदनं मैत्रं मित्रविवर्धनम्। कीर्तिसंजननं श्रेष्ठं तटाकानां निवेशनम्।। | 13-93-5a 13-93-5b |
धर्मस्यार्थस्य कामस्य फलमाहुर्मनीषिणः। तटाकसुकृतं देशे क्षेत्रमेकं महाश्रयम्।। | 13-93-6a 13-93-6b |
चतुर्विधानां भूतानां तटाकमुपलक्षयेत्। तटाकानि च सर्वाणि दिशन्ति श्रियमुत्तमाम्।। | 13-93-7a 13-93-7b |
देवा मनुष्यगन्धर्वाः पितरोरगराक्षसाः। स्थावराणि च भूतानि संश्रयन्ति जलाशयम्।। | 13-93-8a 13-93-8b |
तस्मात्तांस्ते प्रवक्ष्यामि तटाके ये गुणाः स्मृताः। या च तत्र फलावाप्तिर्ऋषिभिः समुदाहृताः।। | 13-93-9a 13-93-9b |
वर्षाकाले तटाके तु सलिलं यस्य तिष्ठति। अग्निहोत्रफलं तस्य फलमाहुर्मनीषिणः।। | 13-93-10a 13-93-10b |
शरत्काले तु सलिलं तटाके यस्य तिष्ठति। गोसहस्रस्य स प्रेत्य लभते फलमुत्तमम्।। | 13-93-11a 13-93-11b |
हेमन्तकाले सलिलं तटाके यस्य तिष्ठति। स वै बहुसुवर्णस्य यज्ञस्य लभते फलम्।। | 13-93-12a 13-93-12b |
यस्य वै शैशिरे काले तटाके सलिलं भवेत्। तस्याग्निष्टोमयज्ञस्य फलमाहुर्मनीषिणः।। | 13-93-13a 13-93-13b |
तटाकं सुकृतं यस्य वसन्ते तु महाश्रयम्। अतिरात्रस्य यज्ञस्य फलं स समुपाश्नुते।। | 13-93-14a 13-93-14b |
निदाघकाले पानीयं तटाके यस्य तिष्ठति। वाजिमेधफलं तस्य फलं वै मुनयो विदुः।। | 13-93-15a 13-93-15b |
स कुलं तारयेत्सर्वं यस्य खाते जलाशये। गावः पिबन्ति सलिलं साधवश्च नराः सदा।। | 13-93-16a 13-93-16b |
तटाके यस्य गावस्तु पिबन्ति तृषिता जलम्। मृगपक्षिमनुष्याश्च सोऽश्वमेधफलं लभेत।। | 13-93-17a 13-93-17b |
यत्पिबन्ति जलं तत्र स्नायन्ते विश्रमन्ति च। तटाके यस्य तत्सर्वं प्रेत्यानन्त्याय कल्पते।। | 13-93-18a 13-93-18b |
दुर्लभं सलिलं तात विशेषेण परत्र वै। पानीयस्य प्रदानेन प्रीतिर्भवति शाश्वती।। | 13-93-19a 13-93-19b |
तिलान्ददत पानीयं दीपान्ददत जागृत। ज्ञातिभिः सह मोदध्वमेतत्प्रेत्य सुदुर्लभम्।। | 13-93-20a 13-93-20b |
सर्वदानैर्गुरुतरं सर्वदानैर्विशिष्यते। पानीयं नरशार्दूल तस्माद्दातव्यमेव हि।। | 13-93-21a 13-93-21b |
एवमेतत्तटाकस्य कीर्तितं फलमुत्तमम्। अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वृक्षाणामवरोपणम्।। | 13-93-22a 13-93-22b |
स्थावराणां च भूतानां जातयः षट् प्रकीर्तिताः। वृक्षगुल्मलतावल्ल्यस्त्वक्सारास्तृणजातयः।। | 13-93-23a 13-93-23b |
एता जात्यस्तु वृक्षाणां तेषां रोपे गुणास्त्विमे। कीर्तिश्च मानुषे लोके प्रेत्य चैव फलं शुभम्।। | 13-93-24a 13-93-24b |
लभते नाम लोके च पितृभिश्च महीयते। देवलोके गतस्यापि नाम तस्य न नश्यति।। | 13-93-25a 13-93-25b |
अतीतानागते चोभे पितृवंशं च भारत। तारयेद्वृक्षरोपी च तस्माद्वृक्षांश्च रोपयेत्।। | 13-93-26a 13-93-26b |
तस्य पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः। परलोकगतः स्वर्गं लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान्।। | 13-93-27a 13-93-27b |
पुष्णैः सुरगणान्वृक्षाः फलैश्चापि तथा पितॄन्। धायया चातिथिं तात पूजयन्ति महीरुहः।। | 13-93-28a 13-93-28b |
किन्नरोरगरक्षांसि देवगन्धर्वमानवाः। तथा ऋषिगणाश्चैव संश्रयन्ति महीरुहान्।। | 13-93-29a 13-93-29b |
पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान्। वृक्षदं पुत्रवद्वृक्षास्तारयन्ति परत्र तु।। | 13-93-30a 13-93-30b |
तस्मात्तटाके सद्वृक्षा रोप्याः श्रेयोर्थिना सदा। पुत्रवत्परिपाल्याश्च पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः।। | 13-93-31a 13-93-31b |
तटाककृद्वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः। एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः।। | 13-93-32a 13-93-32b |
तस्मात्तटाकं कुर्वीत आरामांश्चैव रोपयेत्। यजेच्च विविधैर्यज्ञैः सत्यं च सततं वदेत्।। | 13-93-33a 13-93-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः।। 93 ।। |
13-93-2 बलवती बहुसस्योत्पादिका।। 13-93-4 औदकानि खातानि तटाकानि।। 13-93-4 तटाकवान् तटाककृत्।। 13-93-5 मित्राणां सदनमिवोपकारकं सस्योत्पादनादिना। मैत्रं मित्रस्य सूर्यस्येदं प्रीतिकरम्। मित्राणां देवानां विवर्धनं पोषकम्।।
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