महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-211
← अनुशासनपर्व-210 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-211 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-212 → |
महेश्वरेण पार्वतीप्रति निवृत्तिधर्मफलकथनम्।। 1 ।। तथा गार्हस्थ्यप्रशंसनपूर्वकं तद्धर्मफलादिकथनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-211-1x |
उक्तस्त्वया त्रिवर्गस्य धर्मश्च परमः शुभः। सर्वव्यापी तु यो धर्मो भगवंस्तं ब्रवीतु मे। | 13-211-1a 13-211-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-211-2x |
ब्रह्मणा लोकसंसारे सृष्टा धात्रा गुणार्थिना। लोकांस्तारयितुं युक्ता मर्त्येषु क्षितिदेवताः।। | 13-211-2a 13-211-2b |
तेषु तावत्प्रवक्ष्यामि धर्मं शुभफलोदयम्। ब्राह्मणेष्वभयो धर्मः परमः शुभलक्षणः।। | 13-211-3a 13-211-3b |
इमे च धर्मा लोकानां पूर्वं सृष्टाः स्वयंभुवा। पृथिव्यां सद्द्विजैर्नित्यं कीर्त्यमानं निबोध मे।। | 13-211-4a 13-211-4b |
स्वदारनिरतिर्धर्मो नित्यं जप्यं तथैव च। सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति दिवानिशम्।। | 13-211-5a 13-211-5b |
शूद्रो धर्मपरो नित्यं शुश्रूषानिरतो भवेत्।। | 13-211-6a |
त्रैविद्यो ब्राह्मणो वृद्धो न चाध्ययनजीवकः। त्रिवर्गस्य व्यतिक्रान्तं तस्य धर्मः सनातनः।। | 13-211-7a 13-211-7b |
षट् कर्माणि च प्रोक्तानि सृष्टानि ब्रह्मणा पुरा। धर्मिष्ठानि वरिष्ठानि तानितानि शृणूत्तमे।। | 13-211-8a 13-211-8b |
यजनं याजनं चैव दानं पात्रे प्रतिग्रहः। अध्यापनमध्ययनं षट्कर्मा धर्मभागृजुः।। | 13-211-9a 13-211-9b |
नित्यः स्वाध्यायतो धर्मः नित्ययज्ञः सनातनः। दानं प्रशंसते नित्यं ब्राह्मणेषु त्रिकर्मसु।। | 13-211-10a 13-211-10b |
अयमेव परो धर्मः संवृतः सत्सु विद्यते। गर्भस्थाने विशुद्धानां धर्मस्य नियमो महान्।। | 13-211-11a 13-211-11b |
पञ्चयज्ञविशुद्धात्मा ऋतुनित्योऽनसूयकः। दान्तो ब्राह्मणसत्कर्ता सुसंमृष्टनिवेशनः।। | 13-211-12a 13-211-12b |
चक्षुःश्रोत्रमनोजिह्वास्निग्धवर्णप्रदः सदा। अतिथ्यभ्यागतरतः शेषान्नकृतभोजनः।। | 13-211-13a 13-211-13b |
पाद्यमर्घ्यं यथान्यायमासनं शयनं तथा। दीपं प्रतिश्रयं चैव यो ददाति स धार्मिकः।। | 13-211-14a 13-211-14b |
प्रातरुत्थाय वै पश्चाद्भोजने तु निमन्त्रयेत्। सत्कृत्याऽनुव्रजेद्यश्च तस्य धर्मः सनातनः।। | 13-211-15a 13-211-15b |
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो गृहस्थेषु विधीयते। तदहं कीर्तयिष्यामि त्रिवर्गेषु च यद्यथा।। | 13-211-16a 13-211-16b |
एकेनांशेन धर्मार्थः कर्तव्यो हितमिच्छता। एकेनांशेन कामार्थमेकमंशं विवर्धयेत्।। | 13-211-17a 13-211-17b |
निवृत्तिलक्षणः पुण्यो धर्मो मोक्षो विधीयते। तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि तां शृणुष्व समाहिता।। | 13-211-18a 13-211-18b |
सर्वभूतदया धर्मो निवृत्तेः परम सदा। बुभुक्षितं पिपासार्तमतिथिं श्रान्तमागतम्। अर्चयन्ति वरारोहे तेषामपि फलं महत्।। | 13-211-19a 13-211-19b 13-211-19c |
पात्रमित्येव दातव्यं सर्वस्मै धर्मकाङ्क्षिभिः। आगमिष्यति यत्पात्रं तत्पात्रं तारयिष्यति।। | 13-211-20a 13-211-20b |
काले सम्प्राप्तमतिथिं भोक्तुकाममुपस्थितम्। यस्तं सम्भावयेत्तत्र व्यासोऽयं समुपस्थितः।। | 13-211-21a 13-211-21b |
तस्य पूजां यथाशक्त्या सौम्यचित्तः प्रयोजयेत्। चित्तमूलो भवेद्धर्मो धर्ममूलं भवेद्यशः।। | 13-211-22a 13-211-22b |
तस्मात्सौम्येन चित्तेन दातव्यं देवि सर्वथा। सौम्यचित्तस्तु यो दद्यात्तद्धि दानमनुत्तमम्।। | 13-211-23a 13-211-23b |
यथाम्बुबिन्दुभिः सूक्ष्मैः पतद्भिर्मेदिनीतले। केदाराश्च तटाकानि सरांसि सरितस्तथा।। | 13-211-24a 13-211-24b |
तोयपूर्णानि दृश्यन्ते अप्रतर्क्योऽतिशोभने। अल्पमल्पमपि ह्येकं दीयमानं विवर्धते।। | 13-211-25a 13-211-25b |
पीडयाऽपि च भृत्यानां दानमेव विशिष्यते। पुत्रदारधनं धान्यं न मृताननुगच्छति।। | 13-211-26a 13-211-26b |
श्रेयो दानं च भोगश्च धनं प्राप्य यशस्विनि। दानेन हि महाभागा भवन्ति मनुजाधिपाः।। | 13-211-27a 13-211-27b |
नास्ति भूमौ दानसमं नास्ति दानसमो निधिः। नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।। | 13-211-28a 13-211-28b |
आश्रमे यस्तु तप्येत तपो मूलफलाशनः। आदित्याभिमुखो भूत्वा जटावल्कलसंवृतः। मण्डूकशायी हेमन्ते ग्रीष्मे पञ्चतपा भवेत्।। | 13-211-29a 13-211-29b 13-211-29c |
सम्यक्तपश्चरन्तीह श्रद्दधाना वनाश्रमे। गृहाश्रमस्य ते देवि कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। | 13-211-30a 13-211-30b |
उमोवाच। | 13-211-31x |
गृहाश्रमस्य या चर्या व्रतानि नियमाश्च ये। तथा च देवताः पूज्याः सततं गृहमेधिना।। | 13-211-31a 13-211-31b |
यद्यच्च परिहर्तव्यं गृहीणातिथिपर्वसु। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यमानं त्वया विभो।। | 13-211-32a 13-211-32b |
महेश्वर उवाच। | 13-211-33x |
गृहाश्रमस्य यन्मूलं फलं धर्मोऽयमुत्तमम्। पादैश्चतुर्भिः सततं धर्मो यत्र प्रतिष्ठितः।। | 13-211-33a 13-211-33b |
सारभूतं वरारोहे दध्नो घृतमिवोद्धृतम्। तदहं ते प्रवक्ष्यामि श्रूयतां धर्मचारिणि।। | 13-211-34a 13-211-34b |
`दंपत्यलङ्करिष्णुश्च गृहदानरतिर्नरः। कलत्रसौख्यं विन्देत नास्ति तत्र विचारणा।। | 13-211-35a 13-211-35b |
स्त्रियो वा पुरुषो वाऽपि दम्पतीन्पूजयन्ति ते। मनोभिलषितान्कामान्प्राप्नुवन्ति न संशयः।। | 13-211-36a 13-211-36b |
शुश्रूषन्ते ये पितरं मातरं च गृहाश्रमे। भर्तारं चैव या नारी अग्निहोत्रं च ये द्विजाः।। | 13-211-37a 13-211-37b |
तेषुतेषु च प्रीणन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः। पितरः पितृलोकस्थाः स्वधर्मेण स रज्यते।। | 13-211-38a 13-211-38b |
उमोवाच। | 13-211-39x |
मातापितृवियुक्तानां का चर्या गृहमेधिनाम्। विधवानां च नारीणां भवानेव ब्रवीतु मे।। | 13-211-39a 13-211-39b |
महेश्वर उवाच। | 13-211-40x |
देवतातिथिशुश्रूषा गुरुवृद्धाभिवादनम्। अहिंसा सर्वभूतानामलोभः सत्यसन्धता।। | 13-211-40a 13-211-40b |
ब्रह्मचर्यं शरण्यत्वाशौचं पूर्वाभिभाषणम्। कृतज्ञत्वमपैशुन्यं सततं धर्मशीलता।। | 13-211-41a 13-211-41b |
दिने द्विरभिषेकं च पितृदैवतपूजनम्। गवाह्निकप्रदानं च संविभागोऽतिथिष्वपि।। | 13-211-42a 13-211-42b |
दीपप्रतिश्रयं चैव दद्यात्पाद्यासनं तथा। पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा द्वादशेऽप्यष्टमेऽथवा। तदुर्दशे पञ्चदशे ब्रह्मचारी सदा भवेत्।। | 13-211-43a 13-211-43b 13-211-43c |
श्मश्रुकर्म शिरोभ्यङ्गमञ्जनं दन्तधावनम्। नैतेष्वहस्तु कुर्वीत तेषु लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता।। | 13-211-44a 13-211-44b |
व्रतोपवासनियमस्तपो दानं च शक्तितः। भरणं भृत्यवर्गस्य दीनानामनुकम्पनम्।। | 13-211-45a 13-211-45b |
परदारान्निवृत्तिश्च स्वदारेषु रतिः सदा। शरीरमेकं दंपत्योर्विधात्रा पूर्वनिर्मितम्। तस्मात्स्वदारनिरतो ब्रह्मचारी विधीयते।। | 13-211-46a 13-211-46b 13-211-46c |
शीलवृत्तविनीतस्य निगृहीतेन्द्रियस्य च। आर्जवे वर्तमानस्य सर्वभूतहितैषिणः।। | 13-211-47a 13-211-47b |
प्रियातिथेश्च क्षान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च। गृहाश्रमपदस्थस्य किमन्यैः कृत्यमाश्रमैः।। | 13-211-48a 13-211-48b |
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः। तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमाः।। | 13-211-49a 13-211-49b |
राजानः सर्वपाषण्डाः सर्वे रङ्गोपजीविनः। व्यालग्रहाश्च डम्याश्च चोरा राजभटास्तथा।। | 13-211-50a 13-211-50b |
सविद्याः सर्वजीवज्ञाः सर्वे वै विचिकित्सकाः। दूराध्वानं प्रपन्नाश्च क्षीणपथ्योदना नराः। एते चान्ये च बहवस्तर्कयन्ति गृहाश्रमम्।। | 13-211-51a 13-211-51b 13-211-51c |
मार्जारा मूषिकाः श्वानः सूकराश्च शुकास्तथा। कपोतका कावटकाः सरीसृपनिषेवणाः। अरण्यवासिनश्चान्ये सङ्घा ये मृगपक्षिणाम्।। | 13-211-52a 13-211-52b 13-211-52c |
एवं बहुविधा देवि लोकेऽस्मिन्सचराचराः। गृहे क्षेत्रे बिले चैव शतशोऽथ सहस्रशः।। | 13-211-53a 13-211-53b |
गृहस्थेन कृतं कर्म सर्वैस्तैरिह भुज्यते। उपयुक्तं च यत्तेषां मतिमान्नानुशोचति।। | 13-211-54a 13-211-54b |
धर्म इत्येव सह्कल्प्य यस्तु तस्य फलं शृणु। सर्वयज्ञप्रणीतस्य हयमेधेन यत्फलम्। वर्षे स द्वादशे देवि फलेनैतेन युज्यते।। | 13-211-55a 13-211-55b 13-211-55c |
आशापाशविमोक्षं च विधिधर्ममनुत्तमम्। वृक्षमूलचरो नित्यं शून्यागारिनिवेशनमम्।। | 13-211-56a 13-211-56b |
नदीपुलिनशायी च नदीतीरमनुव्रजन्। विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यः स्नेहबन्धेन वै द्विजः। | 13-211-57a 13-211-57b |
आत्मन्येवात्मना भावं समायोज्येह तेन वै। आत्मभूतो यताहारो मोक्षदृष्टेन कर्मणा।। | 13-211-58a 13-211-58b |
पवित्रनित्यो युक्तश्च तस्य धर्मःक सनातनः। नैकत्र रमते सक्तो न चैकग्रामगोचरः। युक्तोऽप्यटति यो युक्तो न चैकपुलिनाश्रयः।। | 13-211-59a 13-211-59b 13-211-59c |
एष मोक्षविदां धर्मो वेदोक्तः सत्पथे स्थितः।। | 13-211-60a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 211 ।। |
अनुशासनपर्व-210 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-212 |