महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-106

← अनुशासनपर्व-105 महाभारतम्
त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-106
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-107 →

भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोदानप्रशंसापरनाचिकेतोपाख्यानकथनम्।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274
युधिष्ठिर उवाच। 13-106-1x
दत्तानां फलसम्प्राप्तिं गवां प्रब्रूहि मेऽनघ।
विस्तरेण महाबाहो न हि तृप्यामि कथ्यताम्।।
13-106-1a
13-106-1b
भीष्म उवाच। 13-106-2x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
ऋषेरौद्दालकेर्वाक्यं नाचिकेतस्य चोभयोः।।
13-106-2a
13-106-2b
ऋषिरौद्दालकिर्दीक्षामुपगम्य ततः सुतम्।
त्वं मामुपचरस्वेति नाचिकेतमभाषत।।
13-106-3a
13-106-3b
समाप्ते नियमे तस्मिन्महर्षिः पुत्रमब्रवीत्।
उपस्पर्शनसक्तस्य स्वाध्यायाभिरतस्य च।।
13-106-4a
13-106-4b
इध्मा दर्भाः सुमनसः कलशश्चाभितो जलम्।
विस्मृतं मे तदादाय नदीतीरादिहाव्रज।।
13-106-5a
13-106-5b
गत्वानवाप्य तत्सर्वं नदीवेगसमाप्लुतम्।
न पश्यामि तदित्येवं पितरं सोऽब्रवीन्मुनिः।।
13-106-6a
13-106-6b
क्षुत्पिपासाश्रमाविष्टो मुनिरौद्दालकिस्तदा।
यमं पश्येति तं पुत्रमशपत्क्रोधमूर्च्छितः।।
13-106-7a
13-106-7b
तथा स पित्राऽभिहतो वाग्वज्रेण कृताञ्जलिः।
प्रसीदेति ब्रुवन्नेव गतसत्वोऽपतद्भुवि।।
13-106-8a
13-106-8b
नाचिकेतं प्रिता दृष्ट्वा पतितं दुःखमूर्च्छितः।
किं मया कृतमित्युक्त्वा निपपात महीतले।।
13-106-9a
13-106-9b
तस्य दुःखपरीतस्य स्वं पुत्रमनुशोचतः।
व्यतीतं तदहःशेषं सा चोग्रा तत्र शर्वरी।।
13-106-10a
13-106-10b
पित्र्येणाश्रुप्रपातेन नाचिकेतः कुरूद्वह।
प्रास्यन्दच्छयने कौश्ये वृष्ट्या सस्यमिवाप्लुतम्।।
13-106-11a
13-106-11b
स पर्यपृच्छत्तं पुत्रं श्लाघ्यं पर्यागतं पुनः।
दिव्यैर्गन्धैः समादिग्धं क्षीणस्वप्नमिवोत्थितम्।।
13-106-12a
13-106-12b
अपि पुत्र जिता लोकाः शुभास्ते स्वेन कर्मणा।
दिष्ट्या चासि पुनः प्राप्तो न हि ते मानुषं वपुः।।
13-106-13a
13-106-13b
प्रत्यक्षदार्शी सर्वस्य वित्रा पृष्टो महात्मना।
अभ्युत्थाय पितुर्मध्ये महर्षीणां न्यवेदयत्।।
13-106-14a
13-106-14b
कुर्वन्मवच्छासनमाशु यातो
ह्यहं विशालां रुचिरप्रभासाम्।
वैवस्वतीं प्राप्य सभामवश्यं
सहस्रशो योजनहैमभौमाम्।।
13-106-15a
13-106-15b
13-106-15c
13-105-15d
दृष्टैव मामभिमुखमापतन्तं
गृहं निवेद्यासनमादिदेश।
वैवस्वतोऽर्घ्यादिभिरर्हणैश्च
भवत्कृते पूजयामास मां साः।।
13-106-16a
13-106-16b
13-106-16c
13-106-16d
ततस्त्वहं तं शनकैरवोचं
वृतः सदस्यैरभिपूज्यमानः।
प्राप्तोऽस्मि ते विषयं धर्मराज
लोकानर्हो यानहं तान्विधत्स्व।।
13-106-17a
13-106-17b
13-106-17c
13-106-17d
यमोऽब्रवीन्मां न मृतोसि सौम्य
यमं पश्येत्याह स त्वां तपस्वी।
पिता प्रदीप्ताग्निसमानतेजा
न तत्छक्यमनृतं विप्र कर्तुम्।।
13-106-18a
13-106-18b
13-106-18c
13-106-18d
दृष्टस्तेऽहं प्रतिगच्छस्व तात
शोचत्यसौ तव देहस्य कर्ता।
ददानि किञ्चापि मनःप्रणीतं
प्रियातिथेस्तव कामान्वृणीष्व।।
13-106-19a
13-106-19b
13-106-19c
13-106-19d
तेनैवमुक्तस्तमहं प्रत्यवोचं
प्राप्तोस्मि ते विषयं दुर्निवर्त्यम्।
इच्छाम्यहं पुण्यकृतां समृद्धाँ-
ल्लोकान्द्रष्टुं यदि तेऽहं वरार्हः।।
13-106-20a
13-106-20b
13-106-20c
13-106-20d
यानं समारोप्य तु मां स देवो
वाहैर्युक्तं सुप्रभं भानुमत्तम्।
संदर्शयामास तदाऽऽत्मलोका-
न्सर्वास्तथा पुण्यकृतां द्विजेन्द्र।।
13-106-21a
13-106-21b
13-106-21c
13-106-21d
अपश्यं तत्र वेश्मानि तैजसानि महात्मनाम्।
नानासंस्थानरूपाणि सर्वरत्नमयानि च।।
13-106-22a
13-106-22b
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च।
अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च।।
13-106-23a
13-106-23b
वैडूर्यार्कप्रकाशानि रूप्यरुक्ममयानि च।
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।।
13-106-24a
13-106-24b
भक्ष्यभोज्यमयाञ्शैलान्वासांसि शयनानि च।
सर्वकामफलांश्चैव वृक्षान्भवनसंस्थितान्।।
13-106-25a
13-106-25b
नद्यो वीथ्यः सभा वाप्यो दीर्घिकाश्चैव सर्वशः।
घोषवन्ति च यानानि युक्तान्धथ सहस्रशः।।
13-106-26a
13-106-26b
क्षीरस्रवा वै सरितो गिरींश्च
सर्पिस्तथा विमलं चापि तोयम्।
वैवस्वतस्यानुमतांश्च देशा-
नदृष्टपूर्वान्सुबहूनपश्यम्।।
13-106-27a
13-106-27b
13-106-27c
13-106-27d
सर्वान्दृष्ट्वा तदहं धर्मराज-
मवोचं वै सर्वदेवं सहिष्णुम्।
क्षीरस्यैताः सर्पिषश्चैव नद्यः
शश्वत्स्रोताः कस्य भोज्याः प्रवृत्ताः।।
13-106-28a
13-106-28b
13-106-28c
13-106-28d
यमोऽब्रवीद्विद्धि भोज्यांस्त्वमेता-
न्ये दातारः साधवो गोरसानाम्।
अन्ये लोकाः शाश्वता वीतशोकैः
समाकीर्णा गोप्रदाने रतानाम्।।
13-106-29a
13-106-29b
13-106-29c
13-106-29d
न त्वेतासां दानमात्रं प्रशस्तं
पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च।
ज्ञात्वा देयं विप्र गवान्तरं हि
दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम्।।
13-106-30a
13-106-30b
13-106-30c
13-106-30d
स्वाध्यायवान्योऽतिमात्रं तपस्वी
वैतानस्थो ब्राह्मणः पात्रमासाम्।
गोषु क्षान्तं गोशरण्यं कृतज्ञं
वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः।।
13-106-31a
13-106-31b
13-106-31c
13-106-31d
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोष्णाभ्यागताश्च
द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः।
अन्तर्जाताः सुक्रयज्ञानलब्धाः
प्राणक्रीताः सोदकाः सोद्वहाश्च।।
13-106-32a
13-106-32b
13-106-32c
13-106-32d
तिस्रो रात्र्यस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ
तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः।
वत्सैः प्रीताः सुप्रजाः सोपचारा-
स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम्।।
13-106-33a
13-106-33b
13-106-33c
13-106-33d
दत्त्वा धेनुं सुव्रतां साधुदोहां
कल्याणवत्सामपलायिनीं च।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावद्वर्षाण्यश्नुते स्वर्गलोकम्।।
13-106-34a
13-106-34b
13-106-34c
13-106-34d
तथाऽनड्वाहं ब्राह्मणेभ्यः प्रदाय
दान्तं धुर्यं बलवन्तं युवानम्।
कुलानुजीव्यं वीर्यवन्तं बृहन्तं
भुङ्क्ते लोकान्सम्मितान्धेनुदस्य।।
13-106-35a
13-106-35b
13-106-35c
13-106-35d
वृद्धे ग्लाने सम्भ्रमे वा महार्थे
कृष्यर्थं वा हौम्यहेतोः प्रमूत्याम्।
गुर्वर्थं वा यज्ञसमाप्तये वा
गां वै दातुं देशकालोऽविशिष्टः।।
13-106-36a
13-106-36b
13-106-36c
13-106-36d
नाचिकेत उवाच। 13-106-37x
श्रुत्वा वैवस्वतवचस्तमहं पुनरब्रवम्।
अगोमी गोप्रदातॄणां कथं लोकान्हि गच्छति।।
13-106-37a
13-106-37b
ततोऽब्रवीद्यमो धीमान्गोप्रदानं ततो गतिम्।
गोप्रदानानुकल्पात्तु गामृते सन्तु गोप्रदाः।।
13-106-38a
13-106-38b
अलाभे यो गवां दद्याद्धृतधेनुं यतव्रतः।
तस्यैता घृतवाहिन्यः क्षरन्ते वत्सला इव।।
13-106-39a
13-106-39b
घृतालाभे तु यो दद्यात्तिलधेनुं यतव्रतः।
स दुर्गात्तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते।।
13-106-40a
13-106-40b
तिलालाभे तु यो दद्याज्जलधेनुं यतव्रतः।
स कामप्रवहां शीतीं नदीमेतामुपाश्नुते।।
13-106-41a
13-106-41b
एवमेतानि मे तत्र धर्मराजो न्यदर्शयत्।
दृष्ट्वा च परमं हर्षमवापमहमच्युत।।
13-106-42a
13-106-42b
निवेदये चाहमिमं प्रियं ते
क्रतुर्महानल्पधनप्रचारः।
प्राप्तो मया तात स मत्प्रसूतः
प्रपत्स्यते वेदविधिप्रवृत्तः।।
13-106-43a
13-106-43b
13-106-43c
13-106-43d
शापो ह्ययं भवतोऽनुग्रहाय
प्राप्तो मया यत्र दृष्टो यमो वै।
दानव्युष्टिं तत्र दृष्ट्वा महात्म-
न्निःसंदिग्धान्दानधर्मांश्चरिष्ये।।
13-106-44a
13-106-44b
13-106-44c
13-106-44d
इदं च मामब्रवीद्धर्मराजः
पुनः पुनः सम्प्रहृष्टो महर्षे।
दानेन यः प्रयतोऽभूत्सदैव
विशेषतो गोप्रदानं च कुर्याम्।।
13-106-45a
13-106-45b
13-106-45c
13-106-45d
शुद्धो ह्यर्थो नावमन्यस्व धर्मा-
न्पात्रे देयं देशकालोपपन्ने।
तस्माद्गावस्ते नित्यमेव प्रदेया
माभूच्च ते संशयः कश्चिदत्र।।
13-106-46a
13-106-46b
13-106-46c
13-106-46d
एताः पुरा ह्यददन्नित्यमेव
सान्तात्मानो दानपथे निविष्टाः।
तपांस्युग्राण्यप्रतिशङ्कमाना-
स्ते वै दानं प्रददुश्चैव शक्त्या।।
13-106-47a
13-106-47b
13-106-47c
13-106-47d
काले च शक्त्या मत्सरं वर्जयित्वा
शुद्धात्मानः श्रद्धिनः पुण्यशीलाः।
दत्त्वा गा वै लोकममुं प्रपन्ना
देदीप्यन्ते पुण्यशीलास्तु नाके।।
13-106-48a
13-106-48b
13-106-48c
13-106-48d
एतद्दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः
पात्रे दत्तं प्रापणीयं परीक्ष्य।
काम्याष्टम्यां वर्तितव्यं दशाहं
रसैर्गवां शकृता प्रस्नवैर्वा।।
13-106-49a
13-106-49b
13-106-49c
13-106-49d
देवव्रती स्याद्वृषभप्रदानै-
र्वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने।
तीर्थावाप्तिर्गोप्रयुक्तप्रदाने
पापोत्सर्गः कपिलायाः प्रदाने।।
13-106-50a
13-106-50b
13-106-50c
13-106-50d
गामप्येकां कपिलां सम्प्रदाय
न्यायोपेतां कलुषाद्विप्रमुच्येत्।
गवां रसात्परमं नास्ति किञ्चि-
द्गवां प्रदानं सुमहद्वदन्ति।।
13-106-51a
13-106-51b
13-106-51c
13-106-51d
गावो लोकांस्तारयन्ति क्षरन्त्यो
गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके।
यस्तं जानन्न गवां हार्दमेति
स वै गन्ता निरयं पापचेताः।।
13-106-52a
13-106-52b
13-106-52c
13-106-52d
यैस्तद्दत्तं गोसहस्रं शतं वा
दशार्धं वा दश वा साधुवत्सम्।
अप्येका वै साधवे ब्राह्मणाय
सास्यामुष्मिन्पुण्यतीर्था नदी वै।।
13-106-53a
13-106-53b
13-106-53c
13-106-53d
प्राप्त्या पुष्ट्या लोकसंरक्षणेन
गावस्तुल्याः सूर्यपादैः पृथिव्याम्।
शब्दश्चैकः संनतिश्चोपभोगा-
स्तस्माद्गोदः सूर्य इवावभाति।।
13-106-54a
13-106-54b
13-106-54c
13-106-54d
गुरुं शिष्यो वरयेद्गोप्रदाने
स वै गन्ता नियतं स्वर्गमेव।
विधिज्ञानां सुमहान्धर्म एष
विधिं ह्याद्यं विधयः संविशन्ति।।
13-106-55a
13-106-55b
13-106-55c
13-106-55d
इदं दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः
पात्रे दत्त्वा प्रापयेथाः परीक्ष्य।
त्वय्याशंसन्त्यमरा दानवाश्च
वयं चापि प्रसृते पुण्यशीले।।
13-106-56a
13-106-56b
13-106-56c
13-106-56d
इत्युक्तोऽहं धर्मराजं द्विजर्षे
धर्मात्मानं शिरसाऽभिप्रणम्य।
अनुज्ञातस्तेन वैवस्वतेन
प्रत्यागमं भगवत्पादमूलम्।।
13-106-57a
13-106-57b
13-106-57c
13-106-57d
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षडधिकशततमोऽध्यायः।। 106 ।।

13-106-5 कलशश्चातिभोजनम् इति झ.पाठ.। तत्र अतिभोजनं भोजनसामग्रिकं शाकादि।। 13-106-8 गतसत्वो मृतः।। 13-106-11 सस्यं शुष्यमाणम्।। 13-106-15 योजनेति लुप्ततृतीयान्तं पदम्। योजनैः सहस्रशः सम्मितामिति शेषः।। 13-106-23 अनेकशतानि भौमानि उपर्युपरि भूमिसमूहा येषु तानि प्रासादमण्डलानि।। 13-106-30 गवामन्तरमन्योन्यतारतम्यं। अवङ्।। 13-106-31 कृच्छ्रोत्सृष्टाः सङ्कटात् निरोधात् मुक्ताः। पोषणार्थं दरिद्रागारादागताः। तादृशीनां पालनं प्रशस्ततरमित्यर्थः।। 13-106-33 त्र्यहमम्मात्राहारो भूमिशायी भूत्वा चतुर्थं दिनमारभ्य त्र्यहमेकैकां गां दत्त्वा गोरसैर्वृत्तिं कुर्यात्। एवं व्रतपूर्वकं गोत्रयं ददत उक्तं वक्ष्यमाणं च फलं भवतीत्यर्थः।। 13-106-36 वृद्धे ग्लाने रोगिणि पथ्याशनार्थं सम्भ्रमे दुर्भिक्षे। महार्थे यज्ञाद्यर्थे च। प्रसूत्यां पुत्रजन्मनि।। 13-106-43 क्रतुः गोदानरूपः।। 13-106-49 प्रापणीयं गोः आहारादि। कामे इच्छापूरणे साधुः काम्या या अष्टमी शुक्लकृष्णान्यतरा तस्यां।।

अनुशासनपर्व-105 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-107