महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-021
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वर्षसहस्रान्ते परिणतादण्डाद्विनिर्गतेन गरुडेन मातृपार्श्वं विहाय चिराद्देशान्तरेष्वेव सञ्चरणम्।। 1 ।। कदाचनं कद्रूविनताक्ष्यां समुद्रान्ते उच्चैरश्रवसो हयस्य दर्शनम्।। 2 ।। कद्र्वा हयस्य वर्णं पृष्टया विनतया सर्वाङ्गश्वेतत्वकथनम्। `कद्र्वा तु नीलवालत्वकथनम्।। 3 ।।' तथा विवदमानाभ्यां ताभ्यां स्वोक्तव्यत्यासे अन्यतरयाऽन्यतरस्या दास्यवहनरूपपणबन्धनम्।। 4 ।।
`भीष्म उवाच। | 13-21-1x |
विनता पुत्रशोकार्ता शापाद्भीता च भारत। प्रतीक्षते स्म तं कालं यः पुत्रोक्तस्तदाऽभवत्।। | 13-21-1a 13-21-1b |
ततोऽप्यतीते पञ्चशते वर्षाणां कालसंयुगे। गरुडोऽथ महावीर्यो जज्ञे भुजगभुग्बली।। | 13-21-2a 13-21-2b |
बन्धुरास्यः शिखी पत्रकोशः कूर्मनखो महान्। रक्ताक्षः संहतग्रीवो ह्रस्वपादो महाशिराः।। | 13-21-3a 13-21-3b |
यस्त्वण्डात्स विनिर्भिन्नो निष्क्रान्तो भरतर्षभ। विनतापूर्वजः पुत्रः सोऽरुणो दृश्यते दिवि।। | 13-21-4a 13-21-4b |
पूर्वां दिशामभिप्रेत्य सूर्यस्योदयनं प्रति। अरुणोऽरुणसंकाशो नाम्ना चैवारुणः स्मृतः।। | 13-21-5a 13-21-5b |
जातमात्रस्तु विहगो गरुडः पन्नगाशनः। विहाय मातरं क्षिप्रमगमत्सर्वतो दिशः।। | 13-21-6a 13-21-6b |
स तदा ववृधेऽतीव सर्वकामैः कदाऽर्चितः। पितामहविसृष्टेन भोजनेन विशांपते।। | 13-21-7a 13-21-7b |
तस्मिंश्च विहगे तत्र यथाकामं विवर्धति। कद्रूश्च विनता चैवागच्छतां सागरं प्रति।। | 13-21-8a 13-21-8b |
ददृशाते तु ते यान्तमुच्चैश्श्रवसमन्तिकात्। स्नात्वोपवृत्तं त्वरितं पीतवन्तं च वाजिनम्।। | 13-21-9a 13-21-9b |
ततः कद्रूर्हसन्त्येव विनतामिदमब्रवीत्। हयस्य वर्णः को न्वत्र ब्रूहि यस्ते मतः शुभे।। | 13-21-10a 13-21-10b |
विनतोवाच। | 13-21-11x |
एकवर्णो हयो राज्ञि सर्वश्वेतो मतो मम। वर्णं वा कीदृशं तस्य मन्यते त्वं मनस्विनि।। | 13-21-11a 13-21-11b |
कद्रूरुवाच। | 13-21-12x |
सर्वश्वेतो मतस्तुभ्यं य एष हयसत्तमः। ब्रूहि कल्याणि दीव्यावो वर्णान्यत्वेन भामिनि।। | 13-21-12a 13-21-12b |
विनतोवाच। | 13-21-13x |
यद्यार्ये दीव्यसि त्वं मे कः पणो नो भविष्यति। सा तज्ज्ञात्वा पणेयं वै ज्ञात्वा तु विपणे त्वया।। | 13-21-13a 13-21-13b |
कद्रूरुवाच। | 13-21-14x |
जिता दासी भवेर्मे त्वमहं चाप्यसितेक्षणे। नैकवर्णैकवर्णत्वे विनते रोचते च ते।। | 13-21-14a 13-21-14b |
रोचते मे पणे राज्ञि दासीत्वेन न संशयः। सत्यमातिष्ठ भद्रं ते सत्ये स्थास्यामि चाप्यहम्'।। | 13-21-15a 13-21-15b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकविंशोऽध्यायः।। 21 ।। |
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