महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-197
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स्कन्देन देवादीन्प्रति धर्मरहस्यविशेषकथनम्।। 1 ।।
[स्कन्द उवाच। | 13-197-1x |
ममाप्यनुमतो धर्मस्तं शृणुध्वं समाहिताः। नीलषण्डस्य शृङ्गाभ्यां गृहीत्वा मृत्तिकां तु यः।। | 13-197-1a 13-197-1b |
अभिषेकं त्र्यहं कुर्यात्तस्य धर्मं निबोधत। शोधयेदशुभं सर्वमाधिपत्यं परत्र च।। | 13-197-2a 13-197-2b |
यावच्च जायते मर्त्यस्तावच्छूरो भविष्यति। इदं चाप्यपरं गुह्यं सरहस्यं निबोधत।। | 13-197-3a 13-197-3b |
प्रगृह्यौदुम्बरं पात्रं पक्वान्नं मधुना सह। सोमस्योत्तिष्ठमानस्यि पौर्णमास्यां बलिं हरेत्।। | 13-197-4a 13-197-4b |
तस्य धर्मफलं नित्यं श्रद्दधाना निबोधत। साध्या रुद्रास्तथाऽऽदित्या विश्वेदेवास्तथाऽश्विनौ | 13-197-5a 13-197-5b |
मरुतो वसवश्चैव प्रतिगृह्णन्ति तं बलिम्। सोमश्च वर्धते तेन समुद्रश्च महोदधिः।। | 13-197-6a 13-197-6b |
एष धर्मो मयोद्दिष्टः सरहस्यः सुखावहः।। | 13-197-7a |
विष्णुरुवाच। | 13-197-8x |
धर्मगुह्यानि सर्वाणि देवतानां महात्मनाम्। ऋषीणां चैव गुह्यानि यः पठेदाह्निकं सदा।। | 13-197-8a 13-197-8b |
शृणुयाद्वाऽनसूयुर्यः श्रद्दधानः समाहितः। नास्य विघ्नः प्रभवति भयं चास्य न विद्यते।। | 13-197-9a 13-197-9b |
ये च धर्माः शुभाः पुण्याः सरहस्या उदाहृताः। तेषां धर्मफलं तस्य यः पठेत जितेन्द्रियः।। | 13-197-10a 13-197-10b |
नास्य पापं प्रभवति न च पापेन लिप्यते। पठेद्वा श्रावयेद्वाऽपि श्रुत्वा वा लभते फलम्।। | 13-197-11a 13-197-11b |
भुञ्जते पितरो देवा हव्यं कव्यमथाक्षयम्। श्रावयंश्चापि विप्रेन्द्रान्पर्वसु प्रयतो नरः।। | 13-197-12a 13-197-12b |
ऋषीणां देवतानां च पितॄणां चैव नित्यदा। भवत्यभिमतः श्रीमान्धर्मेषु प्रयतः सदा।। | 13-197-13a 13-197-13b |
कृत्वाऽपि पापकं कर्म महापातकवर्जितम्। रहस्यधर्मं श्रुत्वेमं सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-197-14a 13-197-14b |
भीष्म उवाच। | 13-197-15x |
एतद्धर्मरहस्यं वै देवतानां नराधिप। व्यासोद्दिष्टं मया प्रोक्तं सर्वदेवनमस्कृतम्।। | 13-197-15a 13-197-15b |
पृथिवी रत्नसंपूर्णा ज्ञानं चेदमनुत्तमम्। इदमेव ततः श्राव्यमिति मन्येत धर्मवित्।। | 13-197-16a 13-197-16b |
नाश्रद्दधानाय न नास्तिकाय न नष्टधर्मायि न निर्घृणाय। न हेतुदुष्टाय गुरुद्विषे वा नानात्मभूताय निवेद्यमेतत्।। | 13-197-17a 13-197-17b 13-197-17c 13-197-17d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि< दानधर्मपर्वणि सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 197 ।। |
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