महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-224
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परमेश्वरेण पार्वतींप्रति मर्त्यामर्त्यानां शरीरभेदाभेदेन कर्मफलभोगोक्तिः।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-224-1x |
भगवन्देवदेवेश लोकपालनमस्कृत। प्रसादात्ते महादेव श्रुता मे कर्मणां गतिः।। | 13-224-1a 13-224-1b |
सङ्गृहीतं च तत्सर्वं तत्वतोऽमृतसंनिभम्। कर्मणा ग्रथितं सर्वमिति वेद शुभाशुभम्।। | 13-224-2a 13-224-2b |
गोवत्सवच्च जननीं निम्नं सलिलवत्तथा। कर्तारं स्वकृतं कर्म नित्यं तदनुधावति।। | 13-224-3a 13-224-3b |
कृतस्य कर्मणश्चेह नाशो नास्तीति निश्चयः। अशुभस्य शुभस्यापि तदप्युपगतं मया।। | 13-224-4a 13-224-4b |
भूय एव महादेव वरद प्रीतिवर्धन। कर्मणां गतिमाश्रित्य संशयान्मोक्तुमर्हसि।। | 13-224-5a 13-224-5b |
महेश्वर उवाच। | 13-224-6x |
यत्ते विवक्षितं देवि गुह्यमप्यसितेक्षणे। तत्सर्वं निर्विशंका त्वं पृच्छ मां शुभलक्षणे।। | 13-224-6a 13-224-6b |
उमोवाच। | 13-224-7x |
एवं व्यवस्थिते लोके कर्ममां वृषभध्वज। कृत्वा तत्पुरुषः कर्म शुभं वा यदि वेतरत्।। | 13-224-7a 13-224-7b |
कर्मणः सुकृतस्येह कदा भुङ्क्ते फलं पुनः। इह वा प्रेत्य वा देव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-224-8a 13-224-8b |
महेश्वर उवाच। | 13-224-9x |
स्थाने संशयितं देवि तद्धि गुह्यतमं नृषु। त्वत्प्रियार्थं प्रवक्ष्यामि देवि गुह्यं शुभानने।। | 13-224-9a 13-224-9b |
पूर्वदेहकृतं कर्म भुञ्जते तदिह प्रजाः। इहैव यत्कृतं पुंसां तत्परत्र फलिष्यतै। एषा व्यवस्थितिर्देवि मानुषेष्वेव दृश्यते।। | 13-224-10a 13-224-10b 13-224-10c |
देवानामसुराणां च अमरत्वात्तपोबलात्। एकेनैव शरीरेण भुज्यते कर्मणां फलम्। मानुषैर्न तथा देवि अन्तरं त्वेतदिष्यते।। | 13-224-11a 13-224-11b 13-224-11c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुर्विंसत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 224 ।। |
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