महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-248
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति सश्लाघं स्त्रीधर्मकथनचोदना।। 1 ।। पार्वत्या गङ्गादिमहानदीषु तन्निवेदनम्।। 2 ।। गङ्गया तदनुमोदनपूर्वकं भगवति तत्कथनाभ्यनुज्ञानम्।। 3 ।।
नारद उवाच। | 7-248-1x |
एवमुक्त्वा महादेवः श्रोतुकामः स्वयं प्रभुः। अनुकूलां प्रियां भार्यां पार्श्वस्तामभ्यभाषत।। | 7-248-1a 7-248-1b |
महेश्वर उवाच। | 7-248-2x |
परावरज्ञे धर्माणां तपोवननिवासिनाम्। दीक्षाविधिदमोपेते सततं व्रतचारिणि। पृच्छामि त्वां वरारोहे पृष्टा वद ममेप्सितम्।। | 7-248-2a 7-248-2b 7-248-2c |
सावित्री ब्रह्मणः पत्नी कौशिकस्य शची शुभा। लक्ष्मीर्विष्णोः प्रिया भार्या धृतिर्भार्या यमस्य तु।। | 7-248-3a 7-248-3b |
मार्कण्डेयस्य धूमोर्णा ऋद्धिर्वैश्रवणस्य तु। वरुणस्य प्रिया गौरी सवितुश्च सुवर्चला।। | 7-248-4a 7-248-4b |
रोहिणी शशिनो भार्या स्वाहा चाग्नेरनिन्दिता। काश्यपस्यादितिश्चैव वसिष्ठस्याप्यरुन्धती।। | 7-248-5a 7-248-5b |
एताश्चान्याश्च देव्यस्तु सर्वास्ताः पतिदेवताः। श्रूयन्ते लोकविख्यातास्त्वया चैव सहोषिताः।। | 7-248-6a 7-248-6b |
ताभिश्च पूजिताऽपि त्वमनुवृत्त्यनुभाषणैः। तस्मात्तु परिपृच्छामि धर्मज्ञे लोकसम्मते।। | 7-248-7a 7-248-7b |
स्त्रीधर्मं श्रोतुमिच्छामि त्वयैव समुदाहृतम्। सध्रमचारिणी मे त्वं लोकसन्धारिणी तथा।। | 7-248-8a 7-248-8b |
अयं हि स्त्रीगणस्त्वां तु अनुयाति न मुञ्चति। त्वत्प्रसादाद्धितं श्रोतुं स्त्रीवृत्तं शुभलक्षणम्।। | 7-248-9a 7-248-9b |
त्वया चोक्तं विशेषेण गुणभूतं हि तिष्ठति। स्त्रिय एव सदा लोके स्त्रीगणस्य गतिः प्रिये।। | 7-248-10a 7-248-10b |
शश्वद्गौर्गोषु गच्छेत नान्यत्र रमते नरः। एवं लोकगतिर्देवि आदिप्रभृति वर्तते।। | 7-248-11a 7-248-11b |
प्रमदोक्तं तु यत्किञ्चित्तत्स्त्रीषु बहुमन्यते। न तथा मन्यते स्त्रीषु पुरुषोक्तमनिन्दिते।। | 7-248-12a 7-248-12b |
त्वयैष विदितो ह्यर्थः स्त्रीणां धर्मः सनातनः। तस्मात्त्वां प्रति पृच्छामि पृष्टा वद ममेप्सितम्।। | 7-248-13a 7-248-13b |
नारद उवाच। | 7-248-14x |
एवमुक्ता तदा देवी महादेवेन शोभना। सोद्वेगा च सलज्जा च नावदत्तत्र किञ्चन। पुनः पुनस्तदा देवी देवः किमिति चाब्रवीत्।। | 7-248-14a 7-248-14b 7-248-14c |
उमोवाच। | 7-248-15x |
भगवन्देवदेवेश सुरासुरनमस्कृत। त्वदन्तिके मया वक्तुं स्त्रीणां धर्मः कथं भवेत्।। | 7-248-15a 7-248-15b |
महेश्वर उवाच। | |
मन्नियोगादवश्यं तु वक्तव्यं तु मम प्रिये।। | 7-248-16a |
उमोवाच। | 7-248-17x |
इमा नद्यो महादेव सर्वतीर्थोदकान्विताः। उपस्पर्शनहेतोस्त्वां न त्यजन्ति समीपतः।। | 7-248-17a 7-248-17b |
एताभिः सह सम्मन्त्र्य प्रवक्ष्यामि तवेप्सितम्। अयुक्तं सत्सु तन्त्रेषु तानतिक्रम्य भाषितुम्।। | 7-248-18a 7-248-18b |
मया सम्मानिताश्चैव भविष्यन्ति सरिद्वराः।। | 7-248-19a |
नारद उवाच। | 7-248-20x |
इति मत्वा महादेवी नदीर्देवीः समाह्वयत्। विपाशां च वितस्त्यां च चन्द्रभागां सरस्वतीम्।। | 7-248-20a 7-248-20b |
शतद्रुं देविक्तां सिन्धुं गौतमीं कौशिकीं तथा। यमुनां नर्मदां चैव कावेरीमथ निम्नगाम्।। | 7-248-21a 7-248-21b |
तथा देवनदीं गङ्गां श्रेष्ठां त्रिपथगां शुभाम्। सर्वतीर्थोदकवहां सर्वपापविनाशिनीम्। एता नदीः समाहूय समुद्वीक्ष्येदमब्रवीत्।। | 7-248-22a 7-248-22b 7-248-22c |
उमोवाच। | 7-248-23x |
हे पुण्याः सरितः श्रेष्ठाः सर्वपापविनाशिकाः। ज्ञानविज्ञानसम्पन्नाः शृणुध्वं वचनं मम।। | 7-248-23a 7-248-23b |
अयं भगवता प्रश्न उक्तः स्त्रीधर्ममाश्रितः। न चैकया मया साद्यं तस्माद्वस्त्वानयाम्यहम्।। | 7-248-24a 7-248-24b |
युष्माभिस्तद्विचार्यैवं वक्तुमिच्छामि शोभनाः। तत्कथं देवदेवाय वाच्यः स्त्रीधर्म उत्तमः।। | 7-248-25a 7-248-25b |
नारद उवाच। | 7-248-26x |
इति पृष्टास्तथा देव्या महानद्यश्चकम्पिरे। तासां श्रेष्ठतमा गङ्गा वचनं त्ववेमब्रवीत्।। | 7-248-26a 7-248-26b |
धन्याश्चानुगृहीताः स्म अनेन वचनेन ते। या त्वं सुरासुरैर्मान्या नदीराद्रियसेऽनघे।। | 7-248-27a 7-248-27b |
तवैवार्हति कल्याणि एवं सान्त्वप्रसादनम्। अशक्यमपि ये मूर्खाः स्वात्मसम्भावनायुताः। वाक्यं वदन्ति संसत्सु स्वयमेव यथेष्टतः।। | 7-248-28a 7-248-28b 7-248-28c |
शक्तो यश्चानहंवादी सुदुर्लभतमो मतः।। | 7-248-29a |
त्वं हि शक्ता सती देवी वक्तुं प्रश्नमशेषतः। व्याहर्तुं नेच्छसि स्त्रीत्वात्संपूजयति नस्तथा।। | 7-248-30a 7-248-30b |
त्वं हि देवि महादेवी ऊहापोहविशारदा। दिव्यज्ञानयुता देवि दिव्यज्ञानेन्धनैधिता।। | 7-248-31a 7-248-31b |
त्वमेवार्हसि तद्वक्तुं स्त्रीणां वृत्तं शुभाशुभम्। याचामहे वयं श्रोतुममृतं त्वन्मुखोद्गतम्। कुरु देवप्रियं देवि वद स्त्रीधर्ममुत्तमम्।। | 7-248-32a 7-248-32b 7-248-32c |
नारद उवाच। | 7-248-33x |
एवं प्रसादिता देवी गङ्गया लोकपूज्यया। प्राह धर्ममशेषेण स्त्रीधर्मं सुरसुन्दरी।। | 7-248-33a 7-248-33b |
उमोवाच। | 7-248-34x |
भगवन्देवदेवेश सुरेश्वर महेश्वर। त्वत्प्रसादात्सुरश्रेष्ठ तवैव प्रियकाम्यया। तमहं कीर्तयिष्यामि यथावच्छ्रोतुमिच्छसि।। | 7-248-34a 7-248-34b 7-248-34c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 248 ।। |
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