महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-247
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति स्वमाहात्म्यकथनपूर्वकं दीक्षया शिवलिङ्गार्चनाफलकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-247-1x |
त्रियक्ष त्रिदशश्रेष्ठ त्र्यम्बक त्रिदशाधिप। त्रिपुरान्तक कामाङ्गहर त्रिपथगाधर।। | 13-247-1a 13-247-1b |
दक्षयज्ञप्रशमन सूलपाणेऽरिसूदन। नमस्ते लोकपालेश लोकपालवरप्रद।। | 13-247-2a 13-247-2b |
नैकशाखमपर्यन्तमध्यात्मज्ञानमुत्तमम्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं साङ्ख्ययोगसमन्वितम्।। | 13-247-3a 13-247-3b |
भवता परिपृष्टेन शृण्वन्त्या मम भाषितम्। इदानीं श्रोतुमिच्छामि सायुज्यं त्वद्गतं विभो।। | 13-247-4a 13-247-4b |
कथं परिचरन्त्येते भक्तास्त्वां परमेष्ठिनम्। आचारः कीदृशस्तेषां केन तुष्टो भवेद्भवान्। वर्ण्यमानं त्वया साक्षात्प्रीणयत्यधिकं हि मा।। | 13-247-5a 13-247-5b 13-247-5c |
महेश्वर उवाच। | 13-247-6x |
हन्त ते कथयिष्यामि मम सायुज्यमद्भुतम्। येन ते न निवर्तन्ते युक्ताः परमयोगिनः।। | 13-247-6a 13-247-6b |
अव्यक्तोऽहमचिन्त्योऽहं पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। साङ्ख्ययोगौ मया सृष्टौ सर्वं चापि चराचरम्।। | 13-247-7a 13-247-7b |
अर्चनीयोऽहमीशोऽहमव्ययोऽहं सनातनः। अहं प्रसन्नो भक्तानां ददाम्यमरतामपि।। | 13-247-8a 13-247-8b |
न मां विदुः सुरगणा मुनयश्च तपोधनाः। त्वत्प्रियार्थमहं देवि मद्विभूतिं ब्रवीमि ते।। | 13-247-9a 13-247-9b |
आश्रमेभ्यश्चतुर्भ्योऽहं चतुरो ब्राह्मणाञ्शुभे। मद्भक्तान्निर्मलान्पुण्यान्समानीय तपस्विनः।। | 13-247-10a 13-247-10b |
व्याचख्येऽहं तथा देवि योगं पाशुपतं महत्। गृहीतं तच्च तैः सर्वं मुखाच्च मम दक्षिणात्।। | 13-247-11a 13-247-11b |
श्रुत्वा तत्त्रिषु लोकेषु स्थापितं चापि तैः पुनः। इदानीं च त्वया पृष्टो वदाम्येकमनाः शृणु।। | 13-247-12a 13-247-12b |
अहं पसुपतिर्नाम मद्भक्ता ये च मानवाः। सर्वे पाशुपता ज्ञेया भस्मदिग्धतनूरुहाः।। | 13-247-13a 13-247-13b |
रक्षार्थं मङ्गलार्थं न पवित्रार्थं च भामिनि। लिङ्गार्थं चैव भक्तानां भस्म दत्तं मया पुरा।। | 13-247-14a 13-247-14b |
तेन संदिग्धसर्वाङ्गा भस्मना ब्रह्मचारिणः। जटिला मुण्डिता वाऽपि नानाकारशिखण्डिनः।। | 13-247-15a 13-247-15b |
विकृताः पिङ्गलाभिस्च नग्ना नानाप्रकारिणः। भैक्षं चरन्तः सर्वत्र निःस्पृहा निष्परिग्रहाः।। | 13-247-16a 13-247-16b |
मृत्पात्रहस्ता मद्भक्ता मन्निवेशितबुद्ध्यः। चरन्तो निखिलं लोकं मम हर्षविवर्धनाः।। | 13-247-17a 13-247-17b |
मम पाशुपतं दिव्यं योगशास्त्रमनुत्तमम्। सूक्ष्मं सर्वेषु लोकेषु विमृशन्तश्चरन्ति ते।। | 13-247-18a 13-247-18b |
एवं नित्याभियुक्तानां मद्भक्तानां तपस्विनाम्। उपायं चिन्तयाम्याशु येन मामुपयान्ति ते।। | 13-247-19a 13-247-19b |
स्थापितं त्रिषु लोकेषु शिवलिङ्गं मया मम। नमस्कारेण वा तस्य मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।। | 13-247-20a 13-247-20b |
इष्टं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः। शिवलिङ्गप्रणामस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। | 13-247-21a 13-247-21b |
अर्चया शिवलिङ्गस्य परितुष्याम्यहं प्रिये। शिवलिङ्गार्चनायां तु विदानमपि मे शृणु।। | 13-247-22a 13-247-22b |
गोक्षीरनवनीताभ्यामर्चयेद्यः शिवं मम। इष्टस्य हयमेधस्य यत्फलं तत्फलं भवेत्।। | 13-247-23a 13-247-23b |
घृतमण्डेन यो नित्यमर्चयेद्यः शिवं मम। स फलं प्राप्नुयान्मर्त्यो ब्राह्मणस्याग्निहोत्रिणः।। | 13-247-24a 13-247-24b |
केवलेनापि तोयेन स्नापयेद्यः शिवं मम। स चापि लभते पुण्यं प्रियं च लभते नरः।। | 13-247-25a 13-247-25b |
सघृतं गुग्गुलु सम्यग्धूपयेद्यः शिवान्तिके। गोसवस्य तु यज्ञस्य यत्फलं तस्य तद्भवेत्।। | 13-247-26a 13-247-26b |
यस्तु गुग्गुलपिण्डेन केवलेनापि धूपयेत्। तस्य रुक्मप्रधानस्य यत्फलं तस्य तद्भवेत्।। | 13-247-27a 13-247-27b |
यस्तु नानाविधैः पुष्पैर्मम लिङ्गं समर्चयेत्। स हि धेनुसहस्रस्य दत्तस्य फलमाप्नुयात्। | 13-247-28a 13-247-28b |
यस्तु देशान्तरं गत्वा शिवलिङ्गं समर्चयेत्। तस्मात्सर्वमनुष्येषु नास्ति मे प्रियकृत्तमः।। | 13-247-29a 13-247-29b |
एवं नानाविधैर्द्रव्यैः शिवलिङ्गं समर्चयेत्। मत्समानो मनुष्येषु न पुनर्जायते नरः।। | 13-247-30a 13-247-30b |
अर्चनाभिर्नमस्कारैरुपहारैः स्तवैरपि। भक्तो मामर्चयेन्नित्यं शिवलिङ्गेष्वतन्द्रितः।। | 13-247-31a 13-247-31b |
पलाशबिल्वपत्राणि राजवृक्षस्रजं तथा। अर्कपुष्पाणि मेध्यानि मत्प्रियाणि विशेषतः।। | 13-247-32a 13-247-32b |
फलं वा यदि वा शाकं पुष्पं वा यदि वा जलम्। दत्तं सम्प्रीणयेद्देवि भक्तैर्मद्गतमानसैः।। | 13-247-33a 13-247-33b |
ममाभिपरितुष्टस्य नास्ति लोकेषु दुर्लभम्। तस्मात्ते सततं भक्ता मामेवाभ्यर्चयन्त्युत।। | 13-247-34a 13-247-34b |
मद्भक्ता न विनश्यन्ति मद्भक्ता वीतकल्मषाः। मद्भक्ताः सर्वलोकेषु पूजनीया विशेषतः।। | 13-247-35a 13-247-35b |
मद्द्वेषिणश्चि ये मर्त्या मद्भक्तद्वेषिणश्च वा। यान्ति ते नरकं घोरमिष्ट्वा क्रतुशतैरपि।। | 13-247-36a 13-247-36b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं योगं पाशुपतं महत्। मद्भक्तैर्मनुजैर्देवि श्राव्यमेतद्दिनेदिने।। | 13-247-37a 13-247-37b |
शृणुयाद्यः पठेद्वाऽपि ममेदं धर्मनिश्चयम्। स्वर्गं कीर्तिं धनं धान्यं स लभेत नरोत्तमः।। | 13-247-38a 13-247-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 247 ।। |
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