महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-215
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ईश्वरेण पार्वतींप्रति राज्ञां मृगयायां मृगहिंसाया धर्मत्वप्रतिपादनम्।। 1 ।। तथा सदृष्टान्तप्रदर्शनं ब्राह्मणमहिमप्रशो सनपूर्वकं तेषाभदण्ड्यत्वकथनम्।। 2 ।। तथा सामान्येन राजधर्मकथनम्।। 3 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-215-1x |
मृगयात्रां तु वक्ष्यामि शृणु तां धर्मिचारिणि। मृगान्हत्वा महीपालो यथा पापैर्न लिप्यते।। | 13-215-1a 13-215-1b |
निर्मानुषामिमां सर्वे मृगा इच्छन्ति मेदिनीम्। भक्षयन्ति च सस्यानि शासितव्या नृपेण ते।। | 13-215-2a 13-215-2b |
दुष्टानां शासनं धर्मः शिष्टानां परिपालनम्। कर्तव्यं भूमिपालेन नित्यं कार्येषु चार्जवम्। स्वर्गं मृगाश्च गच्छन्ति स्वयं नृपतिना हताः।। | 13-215-3a 13-215-3b 13-215-3c |
यथा गावो ह्यगोपालास्तथा राष्ट्रमनायकम्। तस्मादंशास्तु देवानां गन्धर्वोरगरक्षसाम्। राज्ये नियुक्ता राष्ट्रेषु प्रजापालनकारणात्।। | 13-215-4a 13-215-4b 13-215-4c |
अशिष्टशासने चैव शिष्टानां परिपालने। तेषां चर्यां प्रवक्ष्यामि श्रूयतामनुपूर्वशः।। | 13-215-5a 13-215-5b |
यथा प्रचरतां तेषां पार्थिवानां यशस्विनाम्। राष्ट्रं धर्मो धनं चैव यशः कीर्तिश्च वर्धते।। | 13-215-6a 13-215-6b |
नृपाणां पूर्वमेवायं धर्मो धर्मभृतांवर। सभाप्रपातटाकानि देवतायतनानि च। ब्राह्मणावसथाश्चैव कर्तव्या नृपसत्तमैः।। | 13-215-7a 13-215-7b 13-215-7c |
ब्राह्मणा नावमन्तव्या भस्मच्छन्ना इवाग्नयः। कुलमुत्सादयेयुस्ते क्रोधाविष्टा द्विजातयः।। | 13-215-8a 13-215-8b |
ध्मायमानो यता ह्यग्निर्निर्दहेत्सर्वमिन्धनम्। तथा क्रोधाग्निना विप्रा दहेयुः पृथिवीमिमाम्। न हि विप्रेषु क्रुद्धेषु राज्यं भुञ्जन्ति भूमिपाः।। | 13-215-9a 13-215-9b 13-215-9c |
परिभूय द्विजान्मोहाद्वातापिनहुषादयः। सबन्धुमित्रा नष्टास्ते दग्धा ब्राह्मणमन्युभिः। शरीरं चापि शक्रस्य कृतं भगनिरन्तरम्।। | 13-215-10a 13-215-10b 13-215-10c |
ततो देवगणाः सर्वे इन्द्रस्यार्थे महामुनिम्। प्रसादं कारयामासुः प्रणासस्तुतिवन्दनैः।। | 13-215-11a 13-215-11b |
तेन प्रीतेन सुश्रोणि गौतमेन महात्मना। तच्छरीरं तु शक्रस्य सहस्रभगचिह्नितम्। कृतं नेत्रसहस्रेण क्षणेनैव निरन्तरम्।। | 13-215-12a 13-215-12b 13-215-12c |
छित्त्वा मेषस्य वृषणौ गौतमेनाभिमन्त्रितौ। इन्द्रस्य वृषणौ भूत्वा क्षिप्रं वै श्लेषमागतौ।। | 13-215-13a 13-215-13b |
एवं विप्रेषु क्रुद्धेषु देवराजः शतक्रतुः। अशक्तः शासितुं राज्यं किंपुनर्मानुषा भुवि।। | 13-215-14a 13-215-14b |
क्रोधाविष्टो दहेद्विप्रः शुष्केन्धनमिवानलः। भस्मीकृत्य जगत्सर्वं सृजेदन्यज्जगत्पुनः।। | 13-215-15a 13-215-15b |
अदेवानपि देवान्स कुर्याद्देवानदेवताः। तस्मान्नोत्पादयेन्मन्युं मन्युप्रहरणा द्विजाः।। | 13-215-16a 13-215-16b |
महत्स्वप्यपराधेषु शासनं नार्हति द्विजः। न च शस्त्रनिपातानि न च प्राणैर्वियोजनम्। दृश्यते त्रिषु लोकेषु ब्राह्ममानामनिन्दिते।। | 13-215-17a 13-215-17b 13-215-17c |
क्रोधाश्च विपुला घोराः प्रसादाश्चाप्यनुत्तमाः। तस्मान्नोत्पादयेत्क्रोधं नित्यं पूज्या द्विजातयः।। | 13-215-18a 13-215-18b |
दृश्यते न स लोकेऽस्मिन्भूते वाऽथ भविष्यति। क्रुद्धेषु यो वै विप्रेषु राज्यं भुङ्क्ते नराधिपः।। | 13-215-19a 13-215-19b |
न चैवापहसेद्विप्रान्नि चैवोपालभेच्च तान्। कालमासाद्य कुप्येच्च काले कुर्यादनुग्रहम्।। | 13-215-20a 13-215-20b |
सम्प्रहासश्च भृत्येषु न कर्तव्यो नराधिपैः। लघुत्वं चैव प्राप्नोति आज्ञा चास्य निवर्तते।। | 13-215-21a 13-215-21b |
भृत्यानां सम्प्रहासेन पार्थिवः परिभूयते। अयाच्यानि च याचन्ति अवक्तव्यं ब्रुवन्ति च।। | 13-215-22a 13-215-22b |
पूर्वमप्यर्पितैर्लोभैः परितोषं न यान्ति ते। तस्माद्भृत्येषु नृपतिः सम्प्रहासं विवर्जयेत्।। | 13-215-23a 13-215-23b |
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्। सगोत्रेषु विशेषेण सर्वोपायैर्न विश्वसेत्।। | 13-215-24a 13-215-24b |
विश्वासाद्भयमुत्पन्नं हन्याद्वृक्षमिवाशनिः। प्रमादाद्धन्यते राजा लोभेन च वशीकृतः। तस्मात्प्रमादं लोभं च न च कुर्यान्न विश्वसेत्।। | 13-215-25a 13-215-25b 13-215-25c |
भयार्तानां भयत्राता दीनानुग्रहकारणात्। कार्याकार्यविशेषज्ञो नित्यं राष्ट्रहिते रतः।। | 13-215-26a 13-215-26b |
सत्यसन्धः स्थितो राज्ये प्रजापालनतत्परः। अलुब्धो न्यायवादी च षड्भागमुपजीवति।। | 13-215-27a 13-215-27b |
कार्याकार्यविशेषज्ञः सर्वं धर्मेण पश्यति। स्वराष्ट्रेषु दयां कुर्यादकार्ये न प्रवर्तते।। | 13-215-28a 13-215-28b |
ये चैवैनं प्रशंसन्ति ये च निन्दन्ति मानवाः। शत्रुं च मित्रवत्पश्येदपराधविवर्जितम्। | 13-215-29a 13-215-29b |
अपराधानुरूपेण दुष्टं दण्डेन शासयेत्। धर्मः प्रवर्तते तत्र यत्र दण्डरुचिर्नृपः। न धर्मो विद्यते तत्र यत्र राजा क्षमान्वितः।। | 13-215-30a 13-215-30b 13-215-30c |
अशिष्टशासनं धर्मः शिष्टानां परिपालनम्। वध्यांश्च घातयेद्यस्तु अवध्यानपरिरक्षति।। | 13-215-31a 13-215-31b |
अवध्या ब्राह्मणा गावो दूताश्चैव पिता तथा। विद्यां ग्राहयते यश्च ये च पूर्वोपकारिणः। स्त्रियश्चैव न हन्तव्या यच्च सर्वातिथिर्नरः।। | 13-215-32a 13-215-32b 13-215-32c |
धरणीं गां हिरण्यं च सिद्धान्नं च तिलान्घृतम्। ददन्नित्यं द्विजातिभ्यो मुच्यते राजकिल्बिषात्।। | 13-215-33a 13-215-33b |
एवं चरति यो नित्यं राजा राष्ट्रहिते रतः। तस्य राष्ट्रं धनं धर्मो यशः कीर्तिश्च वर्धते। न च पापैर्न चानर्थैर्युज्यते स नराधिपः।। | 13-215-34a 13-215-34b 13-215-34c |
षड्भागमुपभुञ्जानः प्रजा राजा न रक्षति। स्वचक्रपरचक्राभ्यां धर्मैर्वा विक्रमेण वा।। | 13-215-35a 13-215-35b |
निरुद्योगो नृपो यश्च परराष्ट्रनिघातने। स्वराष्ट्रं निष्प्रतापस्य परचक्रेण हन्यते।। | 13-215-36a 13-215-36b |
यत्पापं सकलं राजा हतराष्ट्रः प्रपद्यते।। मातुलं भागिनेयं वा मातरं श्वशुरं गुरुम्। | 13-215-37a 13-215-37b |
पितरं वर्जयित्वैकं हन्याद्धातकमागतम्।। | 13-215-38a |
स्वस्य राष्ट्रस्य रक्षार्थं युद्यमानश्च यो हतः। सङ्ग्रामे परचक्रेण श्रूयतां तस्य या गतिः।। | 13-215-39a 13-215-39b |
विमानेन वरारोहे अप्सरोगणसेवितः। शक्रलोकमितो याति सङ्ग्रामे निहतो नृपः।। | 13-215-40a 13-215-40b |
यावन्तो रोमकूपाः स्युस्तस्य गात्रेषु सुन्दरि। तावद्वर्षसहस्राणि शक्रलोके महीयते।। | 13-215-41a 13-215-41b |
यदि वै मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते। राजा वा राजमात्रो वा भूयो भवति वीर्यवान्।। | 13-215-42a 13-215-42b |
तस्माद्यत्नेन कर्तव्यं स्वराष्ट्रपरिपालनम्। व्यवहाराश्च चारश्च सततं सत्यसन्धता।। | 13-215-43a 13-215-43b |
अप्रमादः प्रमोदश्च व्यवसायेऽप्यचण्डता। भरणं चैव भृत्यानां वाहनानां च पोषणम्।। | 13-215-44a 13-215-44b |
योधानां चैव सत्कारः कृते कर्मण्यमोघता। श्रेय एव नरेन्द्राणामिह चैव परत्र च।। | 13-215-45a 13-215-45b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 215 ।। |
13-215-23 पूर्वमप्युचितैर्लाभैरिति ठ.पाठः।। 13-215-30 नाधर्मो विद्यते तत्रेति थ.पाठः।। 13-215-31 यो घातयेत् तस्याशिष्टशासनं धर्मं इत्यन्वयः।।
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