महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-105
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणस्वापहारस्यानर्थहेतुतायां दृष्टान्ततया नृगोपाख्यानकथनम्।। 1
भीष्म उवाच। | 13-105-1x |
अत्रैव कीर्त्यते सद्भिर्ब्राह्मणस्वाभिमर्शने। नृगेण सुमहत्कृच्छ्रुं यदवाप्तं कुरूद्वह।। | 13-105-1a 13-105-1b |
निविशन्त्यां पुरा पार्थ द्वारवत्यामिति श्रुतिः। अदृश्यत महाकूपस्तृणवीरुत्समावृतः। | 13-105-2a 13-105-2b |
प्रयत्नं तत्र कुर्वाणास्तस्मात्कूपाज्जलार्थिनः। श्रमेण महता युक्तास्तस्मिंस्तोये सुसंवृते।। | 13-105-3a 13-105-3b |
ददृशुस्ते महाकायं कृकलासमवस्थितम्। तस्य चोद्धरणे यत्नमकुर्वंस्ते सहस्रशः।। | 13-105-4a 13-105-4b |
प्रग्रहैश्चर्मपट्टैश्च तं बद्ध्वा पर्वतोपमम्। नाशक्नुवन्समुद्धर्तुं ततो जग्मुर्जनार्दनम्।। | 13-105-5a 13-105-5b |
खमावृत्योदपानस्य कृकलासः स्थितो महान्। तस्य नास्ति समुद्धर्तेत्येतत्कृष्णे न्यवेदयन्।। | 13-105-6a 13-105-6b |
स वासुदेवेन समुद्धृतश्च पृष्टश्च कामान्निजगाद राजा। नृगस्तदाऽऽत्मानमथो न्यवेदय- त्पुरातनं यज्ञसहस्रयाजिनम्।। | 13-105-7a 13-105-7b 13-105-7c 13-105-7d |
तथा ब्रुवाणं तु तमाह माधवः शुभं त्वया कर्म कृतं न पापकम्। कथं भवान्दुर्गतिमीदृशीं गतो नरेन्द्र तद्ब्रूहि किमेतदीदृशम्।। | 13-105-8a 13-105-8b 13-105-8c 13-105-8d |
शतं सहस्राणि गवां शतं पुनः पुनः शतान्यष्टशतायुतानि। नृप द्विजेभ्यः क्व नु तद्गतं तव।। | 13-105-9a 13-105-9b 13-105-9c |
नृगस्ततोऽब्रवीत्कृष्णं ब्राह्मणस्याग्निहोत्रिणः। प्रोषितस्य परिभ्रष्टा गौरेका मम गोधने।। | 13-105-10a 13-105-10b |
गवां सहस्रे संख्याता तदा सा पशुपैर्मम। सा ब्राह्मणाय मे दत्ता प्रेत्यार्थमभिकाङ्क्षता।। | 13-105-11a 13-105-11b |
अपश्यत्परिमार्गंश्च तां गां परगृहे द्विजः। ममेयमिति चोवाच ब्राह्मणो यस्य साऽभवत्।। | 13-105-12a 13-105-12b |
तावुभौ समनुप्राप्तौ विवदन्तौ भृशज्वरौ। भवान्दाता भवान्हर्तेत्यथ तौ मामवोचताम्।। | 13-105-13a 13-105-13b |
शतेन शतसङ्ख्येन गवां विनिमयेन वै। याचे प्रतिग्रहीतारं स तु मामब्रवीदिदम्।। | 13-105-14a 13-105-14b |
देशकालोपसम्पन्ना दोग्ध्री शान्ताऽतिवत्सला। स्वादुक्षीरप्रदा धन्या मम नित्यं निवेशने।। | 13-105-15a 13-105-15b |
कृशं च भरते सा गौर्मम पुत्रमपस्तनम्। न सा शक्या मया दातुमित्युक्त्वा स जगाम ह।। | 13-105-16a 13-105-16b |
ततस्तमपरं विप्रं याचे विनिमयेन वै। गवां शतसहस्रं हि तत्कृते गृह्यतामिति।। | 13-105-17a 13-105-17b |
ब्राह्मण उवाच। | 13-105-18x |
न राज्ञां प्रतिगृह्णामि शक्तोऽहं स्वस्य मार्गणे। सैव गौर्दीयतां शीघ्रं ममेति मधुसूदन।। | 13-105-18a 13-105-18b |
रुक्ममश्वांश्च ददतो रजतस्यन्दनांस्तथा। न जग्राह ययौ चापि तदा स ब्राह्मणर्षभः।। | 13-105-19a 13-105-19b |
एतस्मिन्नेव काले तु चोदितः कालधर्मणा। पितृलोकमहं प्राप्य धर्मराजमुपागमम्।। | 13-105-20a 13-105-20b |
यमस्तु पूजयित्वा मां ततो वचनमब्रवीत्। नान्तः सङ्ख्यायते राजंस्तव पुण्यस्य कर्मणः।। | 13-105-21a 13-105-21b |
अस्ति चैव कृतं पापमज्ञानात्तदपि त्वया। चरस्व पापं पश्चाद्वा पूर्वं वा त्वं यथेच्छसि।। | 13-105-22a 13-105-22b |
रक्षितास्मीति चोक्तं ते प्रतिज्ञा चानृता तव। ब्राह्मणस्वस्य चादानं द्विविधस्ते व्यतिक्रमः।। | 13-105-23a 13-105-23b |
पूर्वं कृच्छं चरिष्येऽहं पश्चाच्छुभमिति प्रभो। धर्मराजं ब्रुवन्नेवं पतितोस्मि महीतले।। | 13-105-24a 13-105-24b |
अश्रौषं पतितश्चाहं यमस्योच्चैः प्रभाषतः। वासुदेवः समुद्धर्ता भविता ते जनार्दनः।। | 13-105-25a 13-105-25b |
पूर्णे वर्षसहस्रान्ते क्षीणे कर्मणि दुष्कृते। प्राप्लस्यसे शाश्वताँल्लोकाञ्जितान्स्वेनैव कर्मणा।। | 13-105-26a 13-105-26b |
कूपेऽऽत्मानमधःशीर्षमपश्यं पतितं च ह। तिर्यग्योनिमनुप्राप्तं न च मामजहात्स्मृतिः।। | 13-105-27a 13-105-27b |
त्वया तु तारितोऽस्म्यद्य किमन्यत्र तपोबलात्। अनुजानीहि मां कृष्ण गच्छेयं दिवमद्य वै।। | 13-105-28a 13-105-28b |
अनुज्ञातः स कृष्णेन नमस्कृत्य जनार्दनम्। विमानं दिव्यमास्थाय ययौ दिवमरिन्दमः।। | 13-105-29a 13-105-29b |
ततस्तस्मिन्दिवं याते नृगे भरतसत्तम। वासुदेव इमाञ्श्लोकाञ्जगाद कुरुनन्दन।। | 13-105-30a 13-105-30b |
ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं पुरुषेण विजानता। ब्राह्मणस्वं हृतं हन्ति नृगं ब्राह्मणगौरिव।। | 13-105-31a 13-105-31b |
सतां समागमः सद्भिर्नाफलः पार्थ विद्यते। विमुक्तं नरकात्पश्य नृगं साधुसमागमात्।। | 13-105-32a 13-105-32b |
प्रदानं फलवत्तत्र द्रोहस्तत्र तथाऽफलः। अपहारं गवां तस्माद्वर्जयेत युधिष्ठिर।। | 13-105-33a 13-105-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।। 105 ।। |
13-105-23 प्रतिज्ञा च कृता त्वयेति, त्रिविधस्ते व्यतिक्रम इति च.थ.ध. पाठः।। 13-105-24 कृच्छ्रं चरिष्ये पापफलं भोक्ष्ये।। 13-105-31 न हर्तव्यं क्षत्रियेण विशेषत इति थ.ध.पाठः।।
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