महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-150
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पुरुषस्य मृतिसूचकलिङ्गैः स्वमरणनिश्चयेन भगवत्स्मरणादिपूर्वकं देहत्यागे स्वर्गभोगप्रकारस्य सुकृतशेषेण पुनर्भूलोके जननादिप्रकारादेश्च कथनम्।। 1 ।।
`पराशर उवाच। | 13-150-1x |
शुश्रूषानिरतो नित्यमरिष्टान्युपलक्षयेत्। त्रैवार्षिकं द्विवार्षिकं वा वार्षिकं वा समुत्थितम्।। | 13-150-1a 13-150-1b |
षाण्मासिकं मासिकं वा साप्तरात्रिकमेव वा। सर्वांस्तदर्थान्वा विद्यात्तेषां चिह्नानि लभयेत्।। | 13-150-2a 13-150-2b |
पुरुषं हिरण्मयं यस्तु तिष्ठन्तं दक्षिणामुखम्। लक्षयेदुत्तरेणैव मृत्युस्त्रैवार्षिको भवेत्।। | 13-150-3a 13-150-3b |
शुद्धमण्डलमादित्यमरश्मिं सम्प्रपश्यतः। संवत्सरद्वयेनैव तस्य मत्युं समादिशेत्।। | 13-150-4a 13-150-4b |
ज्योत्स्नायामात्मनश्छायां सच्छिद्रां यः प्रपश्यति। मृत्युं संवत्सरेणैव जानीयात्सुविचक्षणः।। | 13-150-5a 13-150-5b |
विशिरस्कां यदा छायां पश्येत्पुरुष आत्मनः। जानीयादात्मनो मृत्युं षाण्मासेनेह बुद्धिमान्।। | 13-150-6a 13-150-6b |
कर्णौ पिधाय हस्ताभ्यां शब्दं न शृणुते यदि। जानीयादात्मनो मृत्युं मासेनैव विचक्षणः।। | 13-150-7a 13-150-7b |
शवगन्धमुपाघ्राति अन्यद्वा सुरभिं नरः। देवतायतनस्थो वै सप्तरात्रेण मृत्युभाक्।। | 13-150-8a 13-150-8b |
कर्णनासापनयनं दन्यदृष्टिविरागता। लुप्तसंज्ञं हि करणं सद्यो मृत्युं समादिशेत्।। | 13-150-9a 13-150-9b |
एवमेषामरिष्टानां पश्येदन्यतमं यदि। न तं कालं परीक्षेत यथाऽरिष्टं प्रकल्पितम्।। | 13-150-10a 13-150-10b |
अभ्यासेन तु कालस्य गच्छेत पुलिनं शुचि। तत्र प्राणान्प्रमुञ्चेत तमीशानमनुस्मरन्।। | 13-150-11a 13-150-11b |
ततोऽन्यदेहमासाद्य गान्धर्वं स्थानमाप्नुयात्। तत्रस्थो वसते विंशत्पद्मानि सुहहाद्युतिः।। | 13-150-12a 13-150-12b |
गन्धर्वैश्चित्रसेनाद्यैः सहितः सत्कृतस्तथा। नीलवैडूर्यवर्णेन विमानेनावभासयन्।। | 13-150-13a 13-150-13b |
नभस्थलमदीनात्मा सार्धमप्सरसां गणैः। छन्दकामानुसारी च तत्रतत्र महीयते।। | 13-150-14a 13-150-14b |
मोदतेऽमरतुल्यात्मा सदाऽमरगणैः सह। पतितश्च क्षये काले क्षणेन विमलद्युतिः।। | 13-150-15a 13-150-15b |
वैश्यस्य बहुवित्तस्य कुलेऽग्र्ये बहुगोधने। अवाप्य तत्र वै जन्म स पूतो देवकर्मणा।। | 13-150-16a 13-150-16b |
छन्दसा जागतेनैव प्राप्तोपनयनं ततः। क्षौमवस्त्रोपकरणं द्विजत्वं समवाप्य तु।। | 13-150-17a 13-150-17b |
अधीयमानो वेदार्थान्गुरुशुश्रूषणे रतः। ब्रह्मचारी जितक्रोधस्तपस्वी जायते ततः।। | 13-150-18a 13-150-18b |
अधीत्य दक्षिणां दत्त्वा गुरवे विधिपूर्वकम्। कृतदारः समुपैति गृहस्थव्रतमुत्तमम्।। | 13-150-19a 13-150-19b |
ददाति यजते चैव चज्ञैर्विपुलदक्षिणैः। अग्निहोत्रमुपासन्वै जुह्वच्चैव यथाविधिः।। | 13-150-20a 13-150-20b |
धर्मं सञ्चिनुते नित्यं मृदुगामी जितेन्द्रियः। स कालपरिणामात्तु मृत्युना सम्प्रयुज्यते।। | 13-150-21a 13-150-21b |
संस्कृतश्चाग्निहोत्रेण कृतपात्रोपधानवान्। संस्कृतो देहमुत्सृज्य मरुद्भिरुपपद्यते।। | 13-150-22a 13-150-22b |
मरुद्भिः सहितश्चापि तुल्यतेजा महाद्युतिः। बालार्कसमवर्णेन विमानेन विराजता।। | 13-150-23a 13-150-23b |
सुखं चरति तत्रस्तो गन्थर्वाप्सरसां गणैः। विरजोम्बरसंवीतस्तप्तकाञ्चनभूषणः।। | 13-150-24a 13-150-24b |
छन्दकामानुसारी च द्विगुणं कालमावसेत्। सन्निवर्तेत कालेन स्थानादस्मात्परिच्युतः।। | 13-150-25a 13-150-25b |
अवितृप्तविहारार्थो दिव्यभोगान्विहाय तु। सञ्जायते नृपकुले गजाश्वरथसंकुले।। | 13-150-26a 13-150-26b |
पार्थिवीं श्रियमापन्नः श्रीमान्धर्मपतिर्यथा। जन्मप्रभृति संस्कारं चौलोपनयनानि च।। | 13-150-27a 13-150-27b |
प्राप्य राजकुले तत्र यथावद्विधिपूर्वकम्। छ्दसा त्रैष्टुभेनेह द्विजत्वमुपनीयते।। | 13-150-28a 13-150-28b |
अधीत्य वेदमखिलं धनुर्वेदं च मुख्यशः। समावृत्तस्ततः पित्रा यौवराज्येऽभिषिच्यते।। | 13-150-29a 13-150-29b |
कृतदारक्रियः श्रीमान्राज्यं सम्प्राप्य धर्मतः। प्रजाः पालयते सम्यक् षड्भागकृतसंविधिः।। | 13-150-30a 13-150-30b |
यज्ञैर्बहुभिरीजानः सम्यगाप्तार्थदक्षिणैः। प्रशासति महीं श्रीमान्राज्यमिन्द्रसमुद्युतिः।। | 13-150-31a 13-150-31b |
स्वधर्मनिरतो नित्यं पुत्रपौत्रसहायवान्। कालस्य वशमापन्नः प्राणांस्त्यजति संयुगे।। | 13-150-32a 13-150-32b |
देवराजस्य भवनमिन्द्रलोकमवाप्नुते। सम्पूज्यमानस्त्रिदिवैर्विचचार यथासुखम्।। | 13-150-33a 13-150-33b |
राजर्षिभिः पुण्यकृद्भिर्यथा देवपतिस्तथा। तैः स्तूयते बन्दिभिस्तु नानावाद्यैः प्रबोध्यते।। | 13-150-34a 13-150-34b |
दिव्यजाम्बूनदमयं भ्राजमानं समन्ततः। वराप्सरोभिः सम्पूर्णं देवगन्धर्वसेवितम्।। | 13-150-35a 13-150-35b |
यानमारुह्य विचरेद्यथा शक्रः शचीपतिः। स तत्र वसते षष्टिं पद्मानीह मुदान्वितः।। | 13-150-36a 13-150-36b |
सर्वाँल्लोकाननुचरन्महर्द्धिरवभासयन्। अथ पुण्यक्षयात्तस्मात्स्थाप्यते भुवि भारत। जायते च द्विजकुले वेदवेदाङ्गपारगे।।' | 13-150-37a 13-150-37b 13-150-37c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 150 ।। |
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