महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-057
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति सतीनामसतनां गुणदोषप्रतिपादकनारदमार्कण्डेयसंवादानुवादः।। 1 ।।
`मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-1x |
श्रुता भार्याश्च पुत्राश्च विस्तरेण महामुने। आश्रमस्थाः कथं नार्यो न दुष्यन्तीति ब्रूहि भो।। | 13-57-1a 13-57-1b |
नारद उवाच। | 13-57-2x |
आश्रमस्थासु नारीषु बान्धवत्वं प्रणश्यति। नष्टवंश्या भवन्त्येता बन्धूनामथ भर्तृणाम्।। | 13-57-2a 13-57-2b |
परदारा मुक्तदोषास्ता नार्योऽऽश्रमसंस्थिताः। स्वयमीशाः स्वदेहानां काम्यास्तद्गतमानसाः।। | 13-57-3a 13-57-3b |
एवं नार्यो न दुष्यन्ति नराणां तत्प्रसूतिषु। धर्मपत्न्यो भवन्त्येताः सपुत्रा हव्यकव्यदाः।। | 13-57-4a 13-57-4b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-5x |
परस्य भार्या या पूर्वं मृते भर्तरि या पुनः। अन्यं भजति भर्तारं ससुता असुता कथम्।। | 13-57-5a 13-57-5b |
नारद उवाच। | 13-57-6x |
असुता वा प्रसूता वा गृहस्थानां परस्त्रियः। परामृष्टेति ता वर्ज्या धर्माचारेषु दूषिताः।। | 13-57-6a 13-57-6b |
न चासां हव्यकव्यानि प्रतिगृह्णन्ति देवताः। यस्तासु जनयेत्पुत्रान्न तैः पुत्रमवाप्नुयात्।। | 13-57-7a 13-57-7b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-8x |
परक्षेत्रेषु यो बीजं चापलाद्विसृजेन्नरः। कथं पुत्रफलं तस्य भवेत्तदृषिसत्तम।। | 13-57-8a 13-57-8b |
नारद उवाच। | 13-57-9x |
अस्वामिके परक्षेत्रे यो नरो बीजमुत्सृजेत्। स्वयंवृतोऽऽश्रमस्थायां तद्बीजं न विनश्यति।। | 13-57-9a 13-57-9b |
परक्षेत्रेषु यो बीजं नरो दर्पात्समुत्सृजेत्। क्षेत्रिकस्यैव तद्बीजं न बीजी लभते फलम्।। | 13-57-10a 13-57-10b |
नातः परमधर्म्यं चाप्ययशस्यं तथोत्तरम्। गर्भादीनां च बहुभिस्ताश्च त्याज्याः समेष्वपि।। | 13-57-11a 13-57-11b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-12x |
अथ ये परदारेषु पुत्रा जायन्ति नारद। कस्य ते बन्धुदायादा भवन्ति परमद्युते।। | 13-57-12a 13-57-12b |
नारद उवाच। | 13-57-13x |
परदारेषु जायेते द्वौ पुत्रौ कुण्डगोलकौ। जीवत्यथ पतौ कुण्डो मृते भर्तरि गोलकः।। | 13-57-13a 13-57-13b |
ते च जाताः परक्षेत्रे देहिनां प्रेत्य चेह च। दत्तानि हव्यकव्यानि नाशयन्त्यथ दातृणाम्।। | 13-57-14a 13-57-14b |
पितुहि नरकायैते गोलकस्तु विशेषतः। चण्डालतुल्यौ तज्जौ हि परत्रेह च नश्यतः।। | 13-57-15a 13-57-15b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-16x |
कस्य ते गर्हिताः पुत्राः पितॄणां हव्यकव्यदाः। यस्य क्षेत्रे प्रसूयन्ते यो वा ताञ्जनयेत्सुतान्।। | 13-57-16a 13-57-16b |
नारद उवाच। | 13-57-17x |
क्षेत्रिकश्चैव बीजी च द्वावेतौ निरयं गतौ। न रक्षति च यो दारान्परदाराश्च गच्छति।। | 13-57-17a 13-57-17b |
गर्हितास्ते नरा नित्यं धर्माचारबहिष्कृताः। कुण्डो भोक्ता च भोगी च कुत्सिताः पितृदैवतैः।। | 13-57-18a 13-57-18b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-19x |
तथैते गर्हिताः पुत्रा हव्यकव्यानि नारद। कस्य नित्यं प्रयच्छन्ति धर्मो वा तेषु किं फलं।। | 13-57-19a 13-57-19b |
नारद उवाच। | 13-57-20x |
यातुधानाः पिशाचाश्च प्रतिगृह्णन्ति तैर्हुतम्। हव्यं कव्यं च तैर्दत्तं ये च भूता निशाचराः।। | 13-57-20a 13-57-20b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-21x |
अथ ते राक्षसाः प्रीताः किं प्रयच्छन्ति दातृणाम्। किं वा धर्मफलं तेषां भवेत्तदृषिसत्तम।। | 13-57-21a 13-57-21b |
नारद उवाच। | 13-57-22x |
न दत्तं नश्यते किञ्चित्सर्वभूतेषु दातृणाम्। प्रेत्य चेह च तां पुष्टिमुपाश्नन्ति प्रदायिनः।। | 13-57-22a 13-57-22b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-57-23x |
अथ गोलककुण्डाभ्यां सन्ततिर्या भविष्यति। तयोर्ये बान्धवाः केचित्प्रदास्यन्ति कथं नु तं।। | 13-57-23a 13-57-23b |
नारद उवाच। | 13-57-24x |
साध्वीजाताः सुतास्तेषां तां वृत्तिमनुतिष्ठताम्। प्रीणन्ति पितृदैवत्यं हव्यकव्यसमाहिताः।। | 13-57-24a 13-57-24b |
एवं गोलककुण्डाभ्यां ये च वर्णापदेशिनः। हव्यं कव्यं च शुद्धानां प्रतिगृह्णन्ति देवताः।।' | 13-57-25a 13-57-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।। 57 ।। |
13-57-3 परमं मुक्तदोषास्ता या नार्योऽऽश्रमसंस्थिता इति ध. पाठः।।
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