महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-201
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दानस्य पञ्चविधत्वकथनपूर्वकं तत्तल्लक्ष्यप्रदर्शनम्।। 1 ।।
[युधिष्ठिर उवाच। | 13-201-1x |
श्रुतं मे भवतस्तात सत्यव्रतपराक्रम। दानधर्मेण महता ये प्राप्तास्त्रिदिवं नृपाः।। | 13-201-1a 13-201-1b |
इमांस्तु श्रोतुमिच्छामि ध्रमान्धर्मभृतांवर। दानं कतिविधं देयं किं तस्य च फलं लभेत्।। | 13-201-2a 13-201-2b |
कथं केभ्यस्च धर्म्यं च दानं दातव्यमिष्यते। कैः कारणैः कतिविधं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।। | 13-201-3a 13-201-3b |
भीष्म उवाच। | 13-201-4x |
शृणु तत्त्वेन कौन्तेय दानं प्रति ममानघ। यथा दानं प्रदातव्यं सर्ववर्णेषु भारत।। | 13-201-4a 13-201-4b |
धर्मादर्थाद्भयात्कामात्कारुण्यादिति भारत। दानं पञ्चविधं ज्ञेयं कारणैर्यैर्निबोध तत्।। | 13-201-5a 13-201-5b |
इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्। इति दानं प्रदातव्यं ब्राह्मणेभ्योऽनसूयता।। | 13-201-6a 13-201-6b |
ददाति वा दास्यति वा मह्यं दत्तमनेन वा। इत्यर्तिभ्यो निशम्यैव सर्वं दातव्यमर्थिने।। | 13-201-7a 13-201-7b |
नास्याहं न मदीयोऽयं पापं कुर्याद्विमानितः। इति दद्याद्भयादेव दृढं मूढाय पण्डितः।। | 13-201-8a 13-201-8b |
प्रियो मे यं प्रियोऽस्याहमिति सम्प्रेक्ष्य बुद्धिमान्। वयस्यायैवमक्लिष्टं दानं दद्यादतन्द्रितः।। | 13-201-9a 13-201-9b |
दीनश्च याचते चायमल्पेनापि हि तुष्यति। इति दद्याद्दरिद्राय कारुण्यादिति सर्वथा।। | 13-201-10a 13-201-10b |
इति पञ्चविधं दानं पुण्यकीर्तिविवर्धनम्। यथाशक्त्या प्रदातव्यमेवमाह प्रजापतिः।।] | 13-201-11a 13-201-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 201 ।। |
13-201-6 धर्मद्दानं व्याचष्टे इहेति।। 13-201-7 अर्थादित्यस्य लक्षणमाह ददातीति।।
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