महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-257
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मणमहिमप्रकाशनाय कार्तवीर्यार्जुनकथाकथनारम्भः।। 1 ।। दत्तात्रेयाद्वरलाभगर्वितेन तेन दिग्जययात्रायां क्वापि पुरुषे स्वसाम्याभावकथने अशरीरवाण्या ब्राह्मणानामुत्कर्षकथनम्।। 2 ।। तेन दर्पात्तदवज्ञाने वायुनापि ब्राह्मणानामेवोत्कर्षे कथते तेन वायुंप्रति तत्प्रकाशनप्रार्थना।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-257-1x |
कां तु ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं दृष्ट्वा जनाधिप। कं वा धर्मोदयं मत्वा तानर्चसि महामते।। | 13-257-1a 13-257-1b |
भीष्म उवाच। | 13-257-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। पवनस्य च संवादमर्जुनस्य च भारत।। | 13-257-2a 13-257-2b |
सहस्रभुजभृच्छ्रीमान्कार्तवीर्योऽभवत्प्रभुः। अस्य लोकस्य सर्वस्य माहिष्मत्यां महाबलः।। | 13-257-3a 13-257-3b |
स तु रत्नाकरवतीं सप्तद्वीपां ससागराम्। शशास पृथिवीं सर्वां हैहयः सत्यविक्रमः।। | 13-257-4a 13-257-4b |
स्ववित्तं तेन दत्तं तु दत्तात्रेयाय कर्मणे। क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य विनयं श्रुतमेव च।। | 13-257-5a 13-257-5b |
आराधयामास च तं कृतवीर्यात्मजो मुनिम्। न्यमन्त्रयत संतुष्टो द्विजश्चैनं वरैस्त्रिभिः।। | 13-257-6a 13-257-6b |
स वरैश्छन्दितस्तेन नृपो वचनमब्रवीत्। सहस्रबाहुता मेऽस्तु यूपमध्ये ग्रहो यथा।। | 13-257-7a 13-257-7b |
मम बाहुसहस्रं तु पश्यन्तां सैनिका रणे। विक्रमेणि महीं कृत्स्नां जयेयं संशितव्रत।। | 13-257-8a 13-257-8b |
तां च धर्मेण सम्प्राप्य पालयेयमतन्द्रितः। चतुर्थं तु वरं याचे त्वामहं द्विजसत्तम।। | 13-257-9a 13-257-9b |
तं ममानुग्रहकृते दातुमर्हस्यनिन्दित। अनुशाशन्तु मां सन्तो मिथ्यावृत्तं त्वदाश्रयम्।। | 13-257-10a 13-257-10b |
इत्युक्तः स द्विजः प्राह तथास्त्विति नराधिपम्। एवं समभवंस्तस्य वरास्ते दीप्ततेजसः।। | 13-257-11a 13-257-11b |
गतः स रथमास्थाय ज्वलनार्कसमद्युतिम्। अब्रवीद्वीर्यसंमोहात्को वाऽस्ति सदृशो मम।। | 13-257-12a 13-257-12b |
धैर्यैर्वीर्यैर्यशःशौर्यौर्विक्रमेणौजसाऽपि वा। तद्वाक्यान्ते चान्तरिक्षे वागुवाचाशरीरिणी।। | 13-257-13a 13-257-13b |
न त्वं मूढ विजानीषे ब्राह्मणं क्षत्रियाद्वरम्। सहितो ब्राह्मणेनेह क्षत्रियः शास्ति वै प्रजाः।। | 13-257-14a 13-257-14b |
अर्जुन उवाच। | 13-257-15x |
कुर्यां भूतानि तुष्टोऽहं क्रुद्धो नाशं तथा नये। कर्म्णा मनसा वाचा न मत्तोस्ति वरो द्विजः।। | 13-257-15a 13-257-15b |
पूर्वो ब्रह्मोत्तरो वादो द्वितीयः क्षत्रियोत्तरः। त्वयोक्तौ हेतुयुक्तौ तौ विशेषस्तत्र दृश्यते।। | 13-257-16a 13-257-16b |
ब्राह्मणाः संश्रिताः क्षत्रं न क्षत्रं ब्राह्मणाश्रितम्। श्रिता ब्रह्मोपधा विप्राः खादन्ति क्षत्रियान्भुवि।। | 13-257-17a 13-257-17b |
क्षत्रियेष्वाश्रितो धर्मः प्रजानां परिपालनम्। क्षत्राद्वृत्तिर्ब्राह्मणानां तैः कथं ब्राह्मणो वरः।। | 13-257-18a 13-257-18b |
सर्वभूतप्रधानांस्तान्भैक्षवृत्तीनहं सदा। आत्मसम्भावितान्विप्रान्स्थापयाम्यात्मनो वशे।। | 13-257-19a 13-257-19b |
कथितं त्वनयाऽसत्यं गायन्त्या कन्यया दिवि। विजेष्याम्यवशान्सर्वान्ब्राह्मणांश्चर्मवाससः।। | 13-257-20a 13-257-20b |
न च मां च्यावयेद्राष्ट्रात्त्रिषु लोकेषु कश्चन। देवो वा मानुषो वाऽपि तस्माज्ज्येष्ये द्विजानहम्।। | 13-257-21a 13-257-21b |
अद्य ब्रह्मोत्तरं लोकं करिष्ये क्षत्रियोत्तरम्। नहि मे संयुगे कश्चित्सोढुमुत्सहते बलम्।। | 13-257-22a 13-257-22b |
अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा वित्रस्ताऽभून्निशाचरी। अथैनमन्तरिक्षस्थस्ततो वायुरभाषत।। | 13-257-23a 13-257-23b |
त्यजैनं कलुषं भावं ब्राह्मणेभ्यो नमस्कुरु। एतेषां कुर्वतः पापं राष्ट्रक्षोभो भविष्यति।। | 13-257-24a 13-257-24b |
अथ च त्वां महीपाल शमयिष्यन्ति वै द्विजाः। निरसिष्यन्ति ते राष्ट्राद्धतोत्साहा महाबलाः।। | 13-257-25a 13-257-25b |
तं राजा कस्त्वमित्याह ततस्तं प्राह मारुतः। वायुर्वै देवदूतोस्मि हितं त्वां प्रब्रवीम्यहम्।। | 13-257-26a 13-257-26b |
अर्जुन उवाच। | 13-257-27x |
अहो त्वयाऽयं विप्रेषु भक्तिरागः प्रदर्शितः। यादृशं पृथिवीभूतं तादृशं ब्रूहि मे द्विजम्।। | 13-257-27a 13-257-27b |
वायोर्वा सदृशं किञ्चिद्ब्रूहि त्वं ब्राह्मणोत्तमम्। अपां वै सदृशं वह्नेः सूर्यस्य नभसोऽपि वा।। | 13-257-28a 13-257-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। |
13-257-1 व्युष्टिं समृद्धिं फलं वा। कं वा कर्मोदयं मत्वा इति ङ.झ. पाठः।। 13-257-4 स च रक्षार्थमवनिं सप्तद्वीपां इति क.पाठः।। 13-257-5 दत्तात्रेयाय कारणे इति ङ.झ.पाठः।। 13-257-7 सहस्रबाहुर्भूयां वै चमूमध्ये गृहेऽन्यथा इति ङ.झ.पाठः।। 13-257-16 पूर्वो वादो ब्रह्मोत्तरः ब्राह्मणाधिक्यवचनं पूर्वपक्षः क्षत्रियाधिक्यं सिद्धान्त इत्यर्थः। हेतुयुक्तौ प्रजापालनेन हेतुना युक्तौ सहितौ तौ ब्राह्मणक्षत्रियौ पूर्वं ब्रह्मोत्तरो वादः क्षत्रियः क्षत्रियोत्तरः मयोक्तो हेतुयुक्तौ चेति क.पाठः।। 13-257-17 ब्रह्मा वेदो यज्ञश्च अध्यापनयाजनार्थ एव उपधा च्छलं येषां ते तथा क्षत्रियान्खादन्ति उपजीवन्ति।। 13-257-20 चर्मवाससः अजिनवस्त्रान्। गायत्र्या कन्यया दिवीति झ.पाठः।। 13-257-22 ब्रह्मोत्तरं सन्तम्।। 13-257-23 निशाचरी अन्तर्हिता सरस्वती।। 13-257-27 पृथिवीभूतं पृथिव्यात्मकं भूतम्।।
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