महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-082
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणादीनां दायविभजनविधिनिरूपणम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-82-1x |
सर्वशास्त्रविधानज्ञ राजधर्मविदुत्तम। अतीव संशयच्छेत्ता भवान्वै प्रथितः क्षितौ।। | 13-82-1a 13-82-1b |
कश्चित्तु संशयो मेऽस्ति तन्मे ब्रूहि पितामह। `अस्यामापदि कष्टायामन्यं पृच्छाम कं वयम्'।। जातेऽस्मिन्संशये राजन्नान्यं पृच्छेम कञ्चन।। | 13-82-2a 13-82-2b 13-82-2c |
यथा नरेण कर्तव्यं धर्ममार्गानुवर्तिना। एतत्सर्वं महाबाहो भवान्व्याख्यातुमर्हति।। | 13-82-3a 13-82-3b |
चतस्रो विहिता भार्या ब्राह्मणस्य पितामह। ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा च रतिमिच्छतः।। | 13-82-4a 13-82-4b |
तत्र जातेषु पुत्रेषु सर्वासां कुरुसत्तम। आनुपूर्व्येण कस्तेषां पित्र्यं दायाद्यमर्हति।। | 13-82-5a 13-82-5b |
केन वा किं ततो हार्यं पितृवित्तात्पितामह। एतदिच्छामि कथितं विभागस्तेषु कः स्मृतः।। | 13-82-6a 13-82-6b |
भीष्म उवाच। | 13-82-7x |
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः। एतेषु विहितो धर्मो ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर।। | 13-82-7a 13-82-7b |
वैषम्यादथवा लोभात्कामाद्वाऽपि परन्तप। ब्राह्मणस्य भवेच्छूद्रा न तु दृष्टा न तु स्मृता।। | 13-82-8a 13-82-8b |
शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणि यात्यधोगतिम्। प्रायश्चित्तीयते चापि विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 13-82-9a 13-82-9b |
तत्र जातेष्वपत्येषु द्विगुणं स्वाद्युधिष्ठिर। अतस्ते नियमं वित्ते सम्प्रवक्ष्यामि भारत।। | 13-82-10a 13-82-10b |
लक्षण्यं गोवृषो यानं यत्प्रधानतमं भवेत्। ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्पुत्र एकांशं वै पितुर्धनात्।। | 13-82-11a 13-82-11b |
एषं तु दशधा कार्यं ब्राह्मणस्वं युधिष्ठिर। तत्र तेनैव हर्तव्याश्चत्वारोंशाः पितुर्धनात्।। | 13-82-12a 13-82-12b |
त्रियायास्तु यः पुत्रो ब्राह्मणः सोप्यसंशयः। स तु मातुर्विशेषेण त्रीनंशान्हर्तुमर्हति।। | 13-82-13a 13-82-13b |
वर्णे तृतीये जातस्तु वैश्यायां ब्राह्मणादपि। द्विरंशस्तेन हर्तव्यो ब्राह्मणस्वाद्युधिष्ठिर।। | 13-82-14a 13-82-14b |
शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो नित्यादेयधनः स्मृतः। अल्पं चापि प्रदातव्यं शूद्रापुत्राय भारत।। | 13-82-15a 13-82-15b |
दशधा प्रविभक्तस्य धनस्यैव भवेत्क्रमः। सवर्णासु तु जातानां समान्भागान्प्रकल्पयेत्।। | 13-82-16a 13-82-16b |
अब्राह्मणं तु मन्यन्ते शूद्रापुत्रमनैपुणात्। त्रिषु वर्णेषु जातो हि ब्राह्मणाद्ब्राह्मणो भवेत्।। | 13-82-17a 13-82-17b |
स्मृताश्च वर्णाश्चत्वारः पञ्चमो नाधिगम्यते। हरेच्च दशमं भागं शूद्रापुत्रः पितुर्धनात्।। | 13-82-18a 13-82-18b |
तत्तु दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति। अवश्यं हि धनं देयं शूद्रापुत्राय भारत।। | 13-82-19a 13-82-19b |
आनृशंस्यं परो धर्म इति तस्मै प्रदीयते। यत्रतत्र समुत्पन्नं गुणायैवोपपद्यते।। | 13-82-20a 13-82-20b |
यद्यप्येष सुपुत्रः स्यादपुत्रो यदि वा भवेत्। नाधिकं दशमाद्दद्याच्छूद्रापुत्राय भारत।। | 13-82-21a 13-82-21b |
`स्मृत एकश्चतुर्भागः कन्याभागस्तु धर्मतः। अभ्रातृका समग्राहा चार्धास्येत्यपरे विदुः।।' | 13-82-22a 13-82-22b |
त्रैवार्विकाद्यदा भक्तादधिकं स्याद्द्विजस्य तु। यजेत तेन द्रव्येण न वृथा साधयेद्धनम्।। | 13-82-23a 13-82-23b |
त्रिसहस्रपरो दायः स्त्रियै देयो धनस्य वै। भर्त्रा तच्च धनं दत्तं यथार्हं भोक्तुमर्हति।। | 13-82-24a 13-82-24b |
स्त्रीणां तु पतिदायाद्यमुपभोगफलं स्मृतम्। नापहारं स्त्रियः कुर्युः पितृवित्तात्कथञ्चन।। | 13-82-25a 13-82-25b |
स्त्रियास्तु यद्भवेद्वित्तं पित्रा दत्तं युधिष्ठिर। ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्कन्या यथा पुत्रस्तथाऽस्य सा।। | 13-82-26a 13-82-26b |
सा हि पुत्रसमा राजन्विहिता कुरुनन्दन। एवमेव समुद्दिष्टो धर्मो वै भरतर्षभ। एवं धर्ममनुस्मृत्य न वृथा साधयेद्धनम्।। | 13-82-27a 13-82-27b 13-82-27c |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-82-28x |
शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो यद्यदेयधनः स्मृतः। केन प्रतिविशेषेण दशमोऽप्यस्य दीयते।। | 13-82-28a 13-82-28b |
ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः। क्षत्रियायां तथैव स्याद्वैश्यायामपि चैव हि।। | 13-82-29a 13-82-29b |
कस्मात्तु विषमं भागं भजेरन्नृपसत्तम। यदा सर्वे त्रयो वर्णास्त्वयोक्ता ब्राह्मणा इति।। | 13-82-30a 13-82-30b |
भीष्म उवाच। | 13-82-31x |
दारा इत्युच्यते लोके नाम्नैकेन परन्तप। प्रोक्तेनि चैव नाम्नाऽयं विशेषः सुमहान्भवेत्।। | 13-82-31a 13-82-31b |
तिस्रः कृत्वा पुरो भार्याः पश्चाद्विन्देत ब्राह्मणीम्। सा ज्येष्ठा सा च पूज्या स्यात्सा च ताभ्यो गरीयसी | 13-82-32a 13-82-32b |
स्नानं प्रसाधनं भर्तुर्दन्तधावनमुञ्जनम्। हव्यं कव्यं च यच्चान्यद्धर्मयुक्तं गृहे भवेत्।। | 13-82-33a 13-82-33b |
न तस्यां जातु तिष्ठन्त्यामन्या तत्कर्तुमर्हति। ब्राह्मणीत्वेव कुर्याद्वा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर।। | 13-82-34a 13-82-34b |
अन्नं पानं च माल्यं च वासांस्याभरणानि च। ब्राह्मण्यैतानि देयानि भर्तुः सा हि गरीयसी।। | 13-82-35a 13-82-35b |
मनुनाऽभिहितं शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन। तत्राप्येष महाराज दृष्टो धर्मः सनातनः।। | 13-82-36a 13-82-36b |
अथ चेदन्यथा कुर्याद्यदि कामाद्युधिष्ठिर। यथा ब्राह्मणचाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः।। | 13-82-37a 13-82-37b |
ब्राह्मण्याः सदृशः पुत्रः क्षत्रियायाश्च यो भवेत्। राजन्विशेषो यस्त्वत्र वर्णयोरुभयोरपि।। | 13-82-38a 13-82-38b |
न तु जात्या समा लोके ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत्। ब्राह्मण्याः प्रथमः पुत्रो भूयान्स्याद्राजसत्तम।। | 13-82-39a 13-82-39b |
भूयोभूयोपि संहार्यः पितृवित्ताद्युधिष्ठिर। यथा न सदृशी जातु ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत्।। | 13-82-40a 13-82-40b |
क्षत्रियायास्तथा वैश्या न जातु सदृशी भवेत्। श्रीश्च राज्यं च कोशश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।। | 13-82-41a 13-82-41b |
विहितं दृश्यते राजन्सागरान्तां च मेदिनीम्। क्षत्रियो हि स्वधर्मेण श्रियं प्राप्नोति भूयसीम्। राजा दण्डधरो राजन्रक्षा नान्यत्र क्षत्रियात्।। | 13-82-42a 13-82-42b 13-82-42c |
ब्राह्मणा हि महाभाग देवानामपि देवताः। तेषु राजा प्रवर्तेत पूजया विधिपूर्वकम्।। | 13-82-43a 13-82-43b |
प्रणीतमृषिभिर्ज्ञात्वा धर्मं शाश्वतमव्ययम्। लुप्यमानं स्वधर्मेण क्षत्रियो रक्षति प्रजाः।। | 13-82-44a 13-82-44b |
दस्युभिर्ह्रियमाणं च धनं दारांश्च सर्वशः। सर्वेषामेव वर्णानां त्राता भवति पार्थिवः।। | 13-82-45a 13-82-45b |
भूयान्स्यात्क्षत्रियापुत्रो वैश्यापुत्रान्न संशयः। भूयस्तेनापि हर्तव्यं पितृवित्ताद्युधिष्ठिर।। | 13-82-46a 13-82-46b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-82-47x |
उक्तं ते विधिवद्राजन्ब्राह्मणस्य पितामह। इतरेषां तु वर्णानां कथं वै नियमो भवेत्।। | 13-82-47a 13-82-47b |
भीष्म उवाच। | 13-82-48x |
क्षत्रियस्यापि भार्ये द्वे विहिते कुरुनन्दन। तृतीया च भवेच्छूद्रा न तु दृष्टा न तु स्मूता।। | 13-82-48a 13-82-48b |
एष एव क्रमो हि स्यात्क्षत्रियाणां युधिष्ठिर। अष्टधा तु भवेत्कार्यं क्षत्रियस्वं जनाधिप।। | 13-82-49a 13-82-49b |
क्षत्रियाया हरेत्पुत्रश्चतुरोंशान्पितुर्धनात्। युद्धावहारिकं यच्च पितुः स्वात्स हरेत्तु तत्।। | 13-82-50a 13-82-50b |
वैश्यापुत्रस्तु भागांस्त्रीञ्शूद्रापुत्रस्तथाष्टमम्। एकैव हि भवेद्भार्या वैश्यस्य कुरुनन्दन। | 13-82-51a 13-82-51b |
द्वितीया तु भवेच्छूद्रा न तु दृष्टा न तु स्मृता।। वैश्यस्य वर्तमानस्य वैश्यायां भरतर्षभ। | 13-82-52a 13-82-52b |
शूद्रायां चापि कौन्तेय तयोर्विनियमः स्मृतः।। पञ्चधा तु भवेत्कार्यं वैश्यस्वं भरतर्षभ। | 13-82-53a 13-82-53b |
तयोरपत्ये वक्ष्यामि विभागं च जनाधिप।। वैश्यापुत्रेण हर्तव्याश्चत्वारोंशाः पितुर्धनात्। | 13-82-54a 13-82-54b |
पञ्चमस्तु स्मृतोः भागः शूद्रापुत्राय भारत।। सोपि दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति। | 13-82-55a 13-82-55b |
त्रिमिर्वर्णैः सदा जातः शूद्रो देयधनो भवेत्।। 0 | 13-82-56a 13-82-56b |
शूद्रस्य स्यात्सवर्णैव भार्या नान्या कथञ्चन। समभागाश्च पुत्राः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत्।। | 13-82-57a 13-82-57b |
जातानां समवर्णायाः पुत्राणामविशेषतः। सर्वेषामेव वर्णानां समभागो धनात्स्मृतः।। | 13-82-58a 13-82-58b |
ज्येष्ठस्य भागो ज्येष्ठः स्यादेकांशो यः प्रधानतः। एष दायविधिः पार्थ पूर्वमुक्तः स्वयंभुवा।। | 13-82-59a 13-82-59b |
समवर्णासु जातानां विशेषोऽस्त्यपरो नृप। विवाहवैशिष्ट्यकृतः पूर्वपूर्वो विशिष्यते।। | 13-82-60a 13-82-60b |
हरेज्ज्येष्ठः प्रधानांशमेकभार्यासुतेष्वपि। मध्यमो मध्यमं चैव कनीयांस्तु कनीयसम्।। | 13-82-61a 13-82-61b |
एवं जातिषु सर्वासु सवर्णः श्रेष्ठतां गतः। महर्षिरपि चैतद्वै मारीचः काश्यपोऽब्रवीत्।। | 13-82-62a 13-82-62b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।।। 82 ।। |
13-82-3 एवमृत्विगात्मस्त्रीशुद्धिमुक्त्वा धनशुद्ध्यर्थं दायविभागं प्रस्तौति।। 13-82-4 रतिमिच्छत एव विहिता नतु धर्मम्।। 13-82-6 किं कियत्प्रमाणम्।। 13-82-9 प्रायश्चित्तमात्मन इच्छति प्रायश्चित्तीयते।। 13-82-10 द्विगुणं प्रायश्चित्तम्।। 13-82-11 एकांशं मुख्यांशम्।। 13-82-12 तेनैव ब्राह्मणीपुत्रेणैव।। 13-82-20 समुत्पन्नं आनृशंस्यम्।। 13-82-23 वृथा यज्ञादिप्रयोजनंविना न साधयेत्।। 13-82-24 स्त्रियोऽधिको दायो न देय इत्यर्थः। तच्चतुर्धा धनं दत्तं नादत्तंभोक्तुमर्हतीति थ.ध. पाठः।। 13-82-25 कुर्युः पुत्रा इति शेषः। पतिवित्तात्कथं चनेति झ.पाठः। पतिवितात्पत्या दत्ताद्वित्तात्।। 13-82-27 धर्मो विभागप्रकारः। वृथा अन्यायेन।। 13-82-31 आद्रियन्ते त्रिधर्गार्तिमिरिति दारपदप्रवृत्तिनिमित्तमादरः। यतश्च भर्षा आदरस्तासु वर्णक्रमेण यथायोग्यं तारतम्यक्रमेण क्रियत इति तात्पुत्राणां भागवैषम्यं चास्तीत्यभिप्रायः।। 13-82-40 भूयोभूयोपि अधिकमधिकम्।। 13-82-47 उक्तं दायविभागादि।। 13-82-50 युद्धेऽवहियते तद्रथगजायुधकवचादिकं युद्धावहारिकम्।। 13-82-53 सवर्णाज्येष्ठतां गतेति थ.ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-081 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-083 |