महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-148
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति यतिशुश्रूषाप्रशंसनम्।। 1 ।।
पराशर उवाच। | 13-148-1x |
न तथा सम्प्रदानेन नोपवासादिभिस्तथा। इष्टां गतिमवाप्नोति यथा शुश्रूषकर्मणा।। | 13-148-1a 13-148-1b |
यादृशेन तु तोयेन शुद्धिं प्रकुरुते नरः। तादृग्भवति तद्धौतमुदकस्य प्रभावतः।। | 13-148-2a 13-148-2b |
शूद्रोप्येतेन मार्गेण यादृशं सेवते जनम्। तादृग्भवति संसर्गादचिरेण न संशयः।। | 13-148-3a 13-148-3b |
तस्मात्प्रयत्नतः सेव्या भिक्षवो नियतात्मना। उदकग्राहणाद्येन स्नपनोद्वर्तनैस्तथा।। | 13-148-4a 13-148-4b |
अध्वना कर्शितानां च व्याधितानां तथैव च। शुश्रूषां नियतं कुर्यात्तेषामापदि यत्नतः।। | 13-148-5a 13-148-5b |
दर्भाजिनान्यवेक्षेत भैक्षभाजनमेव च। यथाकामं च कार्याणि सर्वाण्येवोपसाधयेत्। प्रायश्चित्तं यता न स्यात्तथा सर्वं समाचरेत्।। | 13-148-6a 13-148-6b 13-148-6c |
व्याधितानां तु भिक्षूणां चेलप्रक्षालनादिभिः। प्रतिकर्मक्रिया कार्या भेषजानयनैस्तथा।। | 13-148-7a 13-148-7b |
पिंषणालेपनं चूर्णं कषायमथ साधनम्। नान्यस्य प्रतिचारेषु सुखार्थमुपपादयेत्।। | 13-148-8a 13-148-8b |
भिक्षाटनोऽभिगच्छेत भिषजश्च विपश्चितः। ततो विनिष्क्रियार्थानि द्रव्याणि समुपार्जयेत्।। | 13-148-9a 13-148-9b |
यश्च प्रीतमना दद्यादादद्याद्भेषजं नरः। अश्रद्धया हि दत्तानि तान्यभोक्ष्याणि भिक्षुभिः।। | 13-148-10a 13-148-10b |
श्रद्धया यदुपादत्तं श्रद्धया चोपपादितम्। तस्योपभोगाद्धर्मः स्याद्व्याधिभिश्च निवर्त्यते।। | 13-148-11a 13-148-11b |
आदेहपतनादेवं शुश्रूषेद्विधिपूर्वकम्। न त्वेवं धर्ममुत्सृज्य कुर्यात्तेषां प्रतिक्रियाम्।। | 13-148-12a 13-148-12b |
स्वभावतो हि द्वन्द्वानि विप्रयान्त्युपयान्ति च। स्वभावतः सर्वभावा भवन्ति नभवन्ति च। सागरस्योर्मिसदृशा विज्ञातव्या गुणात्मकाः।। | 13-148-13a 13-148-13b 13-148-13c |
विद्यादेवं हि यो धीमांस्तत्ववित्तत्वदर्शनः। न स लिप्येत पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।' | 13-148-14a 13-148-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 148 ।। |
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