महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-043
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बदरीनारायणेन गरुडंप्रति स्वमहिमोक्तिः।। 1 ।। गरुडेन मुनिगणान्प्रति स्वानुभूतनारायणमहिमोक्तिः।। 2 ।।
`भगवानुवाच। | 13-43-1x |
मां न देवा न गन्धर्वा नासुरा न व राक्षसाः। विदुस्तत्वेन सत्वस्थं सूक्ष्मात्मानमवस्थितम्।। | 13-43-1a 13-43-1b |
चतुर्धाऽहं विभक्तात्मा लोकानां हितकाम्यया। भूतभव्यभविष्यादिरनादिर्विश्वकृत्तमः।। | 13-43-2a 13-43-2b |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्। मनो बुद्धिश्च चेतश्च तमः सत्वं रजस्तथा।। | 13-43-3a 13-43-3b |
प्रकृतिर्विकृतिश्चैव विद्याविद्ये शुभाशुभे। मत्त एतानि जायन्ते नाहमेभ्यः कथञ्चन।। | 13-43-4a 13-43-4b |
यत्किंचिच्छ्रेयसा युक्तं श्रेयस्करमनुत्तमम्। धर्मयुक्तं च पुण्यं च सोऽहमस्मि निरामयः।। | 13-43-5a 13-43-5b |
यत्स्वभावात्मतत्वज्ञैः कारणैरुपलक्ष्यते। अनादिमध्यनिधनः सोन्तरात्माऽस्मि शाश्वतः।। | 13-43-6a 13-43-6b |
यत्तु मे परमं गुह्यं रूपं सूक्ष्मार्थदर्शिभिः। गृह्यते सूक्ष्मभावज्ञैः सोऽविभाव्योस्मि शाश्वतः।। | 13-43-7a 13-43-7b |
तत्तु मे परमं गुह्यं येन व्याप्तमिदं जगत्। सोहङ्गतः सर्वसत्वः सर्वस्य प्रभवोऽव्ययः।। | 13-43-8a 13-43-8b |
मत्तो जायन्ति भूतानि मया धार्यन्त्यहर्निशम्। मय्येव विलयं यान्ति प्रलये पन्नगाशन।। | 13-43-9a 13-43-9b |
यो मां यथा वेदयति तथा तस्यास्मि काश्यप। मनोबुद्धिगतः श्रेयो विदधामि विहङ्गम।। | 13-43-10a 13-43-10b |
मां तु ज्ञातुं कृता बुद्धिर्भवता पक्षिसत्तम। शृणु योऽहं यतश्चाहं यदर्थश्चाहमुद्यतः।। | 13-43-11a 13-43-11b |
ये केचिन्नियतात्मानस्त्रेताग्निपरमार्चिताः। अग्निकार्यपरा नित्यं जपहोमपरायणाः।। | 13-43-12a 13-43-12b |
आत्मन्यग्नीन्समाधाय नियता नियतेन्द्रियाः। अनन्यमनसस्ते मां सर्वे वै समुपासते।। | 13-43-13a 13-43-13b |
यजन्तो जपयज्ञैर्मां मानसैश्च सुसंयताः। अग्नीनभ्युद्ययुः शश्वदग्निष्वेवाभिसंश्रिताः।। | 13-43-14a 13-43-14b |
अनन्यकार्याः शुचयो नित्यमग्निपरायणाः। य एवंबुद्ध्यो धीरास्ते मां गच्छन्ति तादृशाः।। | 13-43-15a 13-43-15b |
अकामहतसङ्कल्पा ज्ञाने नित्यं समाहिताः। आत्मन्यग्निं समाधाय निराहारा निराशिषः।। | 13-43-16a 13-43-16b |
विषयेषु निरारम्भा विमुक्ता ज्ञानचक्षुषः। अनन्यमनसो धीराः स्वभावनियमान्विताः।। | 13-43-17a 13-43-17b |
यत्तद्वियति दृष्टं तत्सरः पद्मोत्पलायुतम्। तत्राग्नयः सन्निहिता दीप्यन्ते स्म निरिन्धनाः।। | 13-43-18a 13-43-18b |
ज्ञानामलाशयास्तस्मिन्ये च चन्द्रांशुनिर्मलाः। उपासीना गृणन्तोऽग्निमस्पष्टाक्षरभाषिणः। आकाङ्क्षमाणाः शुचयस्तेष्वग्रिषु विहङ्गम।। | 13-43-19a 13-43-19b 13-43-19c |
ये मया भावितात्मानो मय्येवाभिरताः सदा। उपासते च मामेव ज्योतिर्भूता निरामयाः।। | 13-43-20a 13-43-20b |
तैर्हि तत्रैव वस्तव्यं नीरागादिभिरच्युतैः। निराहारा ह्यनिष्पन्दाश्चन्द्रांशुसदृशप्रभाः।। | 13-43-21a 13-43-21b |
निर्मला निरहङ्कारा निरालम्बा निराशिषः। मद्भक्ताः सततं तेवै भक्तांस्तानपि चाप्यहम्।। | 13-43-22a 13-43-22b |
चतुर्धाऽहं विभक्तात्मा चरामि जगतो हितः। लोकानां धारणार्थाय विधानं विदधामि च।। | 13-43-23a 13-43-23b |
यथावत्तदशेषेण श्रोतुमर्हति मे भवान्।। | 13-43-24a |
एका मूर्तिर्निर्गुणाख्या योगं परममास्थिता। द्वितीया सृजते तात भूतग्रामं चराचरम्।। | 13-43-25a 13-43-25b |
सृष्टं संहरते चैका जगत्स्थावरजङ्गमम्। ज्ञातात्मनिष्ठा क्षपयन्मोहयन्तीव मायया। क्षपयन्ती मोहयति आत्मनिष्ठा स्वमायया।। | 13-43-26a 13-43-26b 13-43-26c |
चतुर्थी मे महामूर्तिर्जगद्वृद्धिं ददाति सा। रक्षते चापि नियता सोहमस्मि नभश्वरः।। | 13-43-27a 13-43-27b |
मया सर्वमिदं व्याप्तं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्। अहं सर्वजगद्बीजं सर्वत्रगतिरव्ययः।। | 13-43-28a 13-43-28b |
यानि तान्यग्निहोत्राणि ये च चन्द्रांशुराशयः। गृणन्ति वेदं सततं तेष्वग्निषु विहङ्गम।। | 13-43-29a 13-43-29b |
क्रमेण मां समायान्ति सुखिनो ज्ञानसंयुताः। तेषामहं तपो दीप्तं तेजः सम्यक्समाहितम्। नित्यं ते मयि वर्तन्ते तेषु चाहमतन्द्रितः।। | 13-43-30a 13-43-30b 13-43-30c |
सर्वतो मुक्तसङ्गेन मय्यनन्यसमाधिना। शक्यः समासादयितुमहं वै ज्ञानचक्षुषा।। | 13-43-31a 13-43-31b |
मां स्थूलदर्शनं विद्धि जगतः कार्यकारणम्। मत्तश्च सम्प्रसूतान्वै विद्धि लोकान्सदैवतान्।। | 13-43-32a 13-43-32b |
मया चापि चतुर्धात्मा विभक्तः प्राणिषु स्यिथः। आत्मभूतो वासुदेवो ह्यनिरुद्धो मतौ स्यितः।। | 13-43-33a 13-43-33b |
सङ्कर्षणोऽहङ्कारे च प्रद्युम्नो मनसि स्यितः। अन्यथा च चतुर्दा यत्सम्यक्त्वं श्रोतुमर्हसि।। | 13-43-34a 13-43-34b |
यत्तत्पद्ममभूत्पूर्वं तत्र ब्रह्मा व्यजायत। ब्राह्मणश्चापि सम्भूतः शिव इत्यवधार्यताम्।। | 13-43-35a 13-43-35b |
शिवात्स्कन्दः संवभूव एतत्सृष्टिचतुष्टयम्। दैत्यदानवदर्पघ्नमेवं मां विद्धि नित्यशः।। | 13-43-36a 13-43-36b |
दैत्यदानवरक्षोभिर्यदा धर्मः प्रपीड्यते। तदाऽहं धर्मवृद्ध्यर्थं मूर्तिमान्भविताऽऽशुग।। | 13-43-37a 13-43-37b |
वेदव्रतपरा ये तु धीरा निश्चितबुद्ध्यः। योगिनो योगयुक्ताश्च ते मां पश्यन्ति नान्यथा।। | 13-43-38a 13-43-38b |
पञ्चभिः सम्प्रयुक्तोऽहं विप्रयुक्तश्च पञ्चभिः। वर्तमानश्च तेष्वेवं निवृत्तश्चैव तेष्वहम्।। | 13-43-39a 13-43-39b |
ये विदुर्जातसङ्कल्पास्ते मां पश्यन्ति तादृशाः।। | 13-43-40a |
स्वं वायुरापो ज्योतिश्च पृथिवी चेति पञ्चमम्। तदात्मकोऽस्मि विज्ञेयो न चान्योस्मीति निश्चितम्। | 13-43-41a 13-43-41b |
वर्तमानमतीतं च पञ्चवर्गेषु निश्चलम्। शब्दस्पर्शेषु रूपेषु रसगन्धेषु चाप्यहम्।। | 13-43-42a 13-43-42b |
रजस्तमोभ्यामाविष्टा येषां बुद्धिरनिश्चिता। ते न पश्यन्ति मे तत्वं तपसा महता ह्यपि।। | 13-43-43a 13-43-43b |
नोपवासैर्न नियमैर्न व्रतैर्विविधैरपि। द्रष्टुं वा वेदितुं वाऽपि न शक्या परमा गतिः।। | 13-43-44a 13-43-44b |
महामोहार्थपङ्के तु निमग्रानां गतिर्हरिः। एकान्तिनो ध्यानपरा यतिभावाद्ब्रजन्ति माम्।। | 13-43-45a 13-43-45b |
सत्वयुक्ता मतिर्येषां केवलाऽऽत्मविनिश्चिता। ते पश्यन्ति स्वमात्मानं परमात्मानमव्ययम्।। | 13-43-46a 13-43-46b |
अहिंसा सर्वभूतेषु तेष्ववस्तितमार्जवम्। तेष्वेव च समाधाय सम्यगेति च मामजम्।। | 13-43-47a 13-43-47b |
यदेतत्परमं गुह्यमाख्यानं परमाद्भुतम्। यत्तेन तदशेषेण यथावच्छ्रोतुमर्हसि।। | 13-43-48a 13-43-48b |
ये त्वग्निहोत्रनियता जपयज्ञपरायणाः। ते मामुपासते शश्वद्यांस्तांस्त्वं दृष्टवानसि।। | 13-43-49a 13-43-49b |
शास्त्रदृष्टविधानज्ञा असक्ताः क्वचिदन्यथा। शक्योऽहं वेदितुं तैस्तु यन्मे परममव्ययम्।। | 13-43-50a 13-43-50b |
ये तु सांख्यं च योगं च ज्ञात्वाऽप्यधृतनिश्चयाः। न ते गच्छन्ति कुशलाः परां गतिमनुत्तमाम्।। | 13-43-51a 13-43-51b |
तस्माज्ज्ञानेन शुद्धेन प्रसन्नात्माऽऽन्मविच्छुचिः। आसादयति तद्ब्रह्म यत्र गत्वा न शोचति।। | 13-43-52a 13-43-52b |
शुद्धाभिजनसम्पन्नाः श्रद्धायुक्तेन चेतसा। मद्भक्त्या च द्विजश्रेष्ठा गच्छन्ति परमां गतिं।। | 13-43-53a 13-43-53b |
यद्गह्यं परमं बुद्धेरलिङ्गग्रहणं च यत्। तत्सूक्ष्मं गृह्यते विप्रैर्यतिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।। | 13-43-54a 13-43-54b |
न वायुः पवते तत्र न तस्मिञ्ज्योतिषां गतिः। न चापः पृथिवी चैव नाकाशं न मनोगतिः।। | 13-43-55a 13-43-55b |
तस्माच्चैतानि सर्वाणि प्रजायन्ते विहङ्गम। सर्वेभ्यश्च स तेभ्यश्च प्रभवत्यमलो विभुः।। | 13-43-56a 13-43-56b |
स्थूलदर्शनमेतन्मे यद्दृष्टं भवताऽनघ। एतत्सूक्ष्मस्य तद्द्वारं कार्याणां कारणं त्वहम्।। | 13-43-57a 13-43-57b |
दृष्टो वै भवता तस्मात्सरस्यमितविक्रम। ब्रह्मणो यदहोरात्रसङ्ख्याभिज्ञैर्विभाव्यते।। | 13-43-58a 13-43-58b |
एष कालस्त्वया तत्र सरस्यहमुपागतः। मां यज्ञमाहुर्यज्ञज्ञा वेदं वेदविदो जनाः। मुनयश्चापि मामेव जपयज्ञं प्रचक्षते।। | 13-43-59a 13-43-59b 13-43-59c |
वक्ता मन्ता रसयिता घ्राता द्रष्टा प्रदर्शकः। बोद्धा बोधयिता चाहं गन्ता श्रोता चिदात्मकः।। | 13-43-60a 13-43-60b |
मामिष्ट्वा स्वर्गमायान्ति तथा चाप्नुवते महत्। ज्ञात्वा मामेव चैवान्ते निःसङ्गेनान्तरात्मना।। | 13-43-61a 13-43-61b |
अहं तेजो द्विजातीनां मम तेजो द्विजातयः। मम यस्तेजसो देहः सोग्निरित्यवगम्यताम्।। | 13-43-62a 13-43-62b |
प्राणपालः शरीरेऽहं योगिनामहमीश्वरः। सांख्यानामिदमेवाग्रे मयि सर्वमिदं जगत्।। | 13-43-63a 13-43-63b |
धर्ममर्तं च कामं च मोक्षं चैवार्जवं जपम्। तमः सत्वं रजश्चैव कर्मजं च भवाप्ययम्।। | 13-43-64a 13-43-64b |
स तदाऽहं तथारूपस्त्वया दृष्टः सनातनः। ततस्त्वहं परतरः शक्यः कालेन वेदितुम्।। | 13-43-65a 13-43-65b |
मम यत्परमं गुह्यं शाश्वतं ध्रुवमव्ययम्। तदेवं परमो गुह्यो देवो नारायणो हरिः। न तच्छक्यं भुजङ्गारे वेत्तुमभ्युदयान्वितैः।। | 13-43-66a 13-43-66b 13-43-66c |
निरारम्भनमस्कारा निराशीर्बन्धनास्तथा। गच्छन्ति तं महात्मानः परं ब्रह्म सनातनम्।। | 13-43-67a 13-43-67b |
स्थूलोऽहमेवं विहग त्वया दृष्टस्तथाऽनघ। एतच्चापि न वेत्त्यन्यस्त्वामृते पन्नगाशन।। | 13-43-68a 13-43-68b |
मा मतिस्तव गान्नाशमेषा गतिरनुत्तमा। मद्भक्तो भव नित्यं त्वं ततो वेत्स्यसि मे पदम्।। | 13-43-69a 13-43-69b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं रहस्यं दिव्यमानुषम्। एतच्छ्रेयः परं चैतत्पन्थानं विद्धि मोक्षिणाम्।। | 13-43-70a 13-43-70b |
एवमुक्त्वा स भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत। पश्यतो मे महायोगी जगामात्मगतिर्गतिम्।। | 13-43-71a 13-43-71b |
एतदेवंविधं तस्य महिमानं महात्मनः। अच्युतस्याप्रमेयस्य दृष्टवानस्मि यत्पुरा।। | 13-43-72a 13-43-72b |
एतद्वः सर्वमाख्यातं चेष्टितं तस्य धीमतः। मयाऽनुभूतं प्रत्यक्षं दृष्ट्वा चाद्भुतकर्मणः।।' | 13-43-73a 13-43-73b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।। |
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