महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-207
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ईश्वरेण पार्वतींप्रति स्वस्य श्मशानवासचन्द्रकलाधारणादेः कारणाभिधानम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-207-1x |
भगवन्सर्वभूतेश शूलपाणे वृषध्वज। आवासेषु विचित्रेषु रम्येषु च शुभेशु च।। | 13-207-1a 13-207-1b |
सत्सु चान्येषु भूतेषु श्मशाने रमसे कथम्। केशास्थिकलिले भीमे कपालशतसङ्कुले।। | 13-207-2a 13-207-2b |
सृगालगृध्रम्पूर्णे शवधूमसमाकुले। चिताग्निविषमे घोरे गहने च भयानके।। | 13-207-3a 13-207-3b |
एवं कलेवरक्षेत्रे दुर्दर्शे रमसे कथम्। एष मे संशयो देव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-207-4a 13-207-4b |
महादेव उवाच। | 13-207-5x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु देवि समाहिता। आवासार्थं पुरा देवि शुद्धान्वेषी शुचिस्मिते।। | 13-207-5a 13-207-5b |
नाध्यगच्छं चिरं कालं देशं शुचितमं शुभे। एष मेऽभिनिवेशोऽभूत्तस्मिन्काले प्रजापतिः।। | 13-207-6a 13-207-6b |
आकुलः सुमहाघोरः प्रादुरासीत्समन्ततः। सम्भूता भूतसृष्टिश्च घोरा लोकभयावहा।। | 13-207-7a 13-207-7b |
नानावर्णा विरूपाश्च तीक्ष्णदंष्ट्राः प्रहारिणः। पिशाचरक्षोवदनाः प्राणिनां प्राणहारिणः। इतश्चरन्ति निघ्नन्तः प्राणिनो भृशमेव च।। | 13-207-8a 13-207-8b 13-207-8c |
एवं लोके प्राणिहीने क्षयं याते पितामहः। चिन्तयंस्तत्प्रतीकारं मां च शक्तं हि निग्रहे।। | 13-207-9a 13-207-9b |
एवं ज्ञात्वा ततो ब्रह्मा तस्मिन्कर्मण्योजयत्। तच्च प्राणिहितार्थं तु मयाऽप्यनुमतं प्रिये।। | 13-207-10a 13-207-10b |
तस्मात्संरक्षिता देवि भूतेभ्यः प्राणिनो भयात्। अस्माच्छ्मशानान्मेध्यं तु नास्ति किञ्चिदनिन्दिते। निःसम्पातान्मनुष्याणां तस्माच्छुचितमं स्मृतं।। | 13-207-11a 13-207-11b 13-207-11c |
भूतसृष्टिं च तां चाहं श्मशाने संन्यवेशयम्। तत्रस्थः सर्वभूतानां विनिहन्मि प्रिये भयम्।। | 13-207-12a 13-207-12b |
न च भूतगणेनाहं विना वसितुमुत्सहे। तस्मान्मे सन्निवासाय श्मशाने रोचते मनः।। | 13-207-13a 13-207-13b |
मेध्यकामैर्द्विजैनित्यं मेध्यमित्यभिधीयते। आचरद्भिर्व्रतं नित्यं मोक्षकामैश्च सेव्यते।। | 13-207-14a 13-207-14b |
स्थानं मे तत्र विहितं वीरस्थानमिति प्रिये। कपालशतसम्पूर्णमभिरूपं भयानकम्।। | 13-207-15a 13-207-15b |
मध्याह्ने सन्ध्ययोस्तत्र नक्षत्रे रुद्रदेवते। आयुष्कामैरशुद्धैर्वा न गन्तव्यमिति स्थितिः।। | 13-207-16a 13-207-16b |
मदन्येन न शक्यं हि निहन्तुं भूतजं भयम्। तत्रस्थोऽहं प्रजाः सर्वाः पालयामि दिनेदिने।। | 13-207-17a 13-207-17b |
मन्नियोगाद्भूतसङ्घा न च घ्नन्तीह कञ्चन। तांस्तु लोकहितार्ताय श्मशाने रमयान्महम्। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-207-18a 13-207-18b 13-207-18c |
उमोवाच। | 13-207-19x |
भगवन्देवदेवेश त्रिनेत्र वृषभध्वज। पिङ्गलं विकृतं भाति रूपं ते तु भयानकम्।। | 13-207-19a 13-207-19b |
भस्मदिग्धं विरूपाक्षं तीक्ष्णदंष्ट्रं जटाकुलम्। व्याघ्रोदरत्वक्संवीतं कपिलश्मश्रुसंततम्।। | 13-207-20a 13-207-20b |
रौद्रं भयानकं घोरं शूलपट्टससंयुतम्। किमर्थं त्वीदृशं रूपं तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-207-21a 13-207-21b |
महेश्वर उवाच। | 13-207-22x |
तदहं कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता। द्विविधो लौकिको भावः शीतमुष्णमिति प्रिये।। | 13-207-22a 13-207-22b |
तयोर्हि ग्रसितं सर्वं सौम्याग्नेयमिदं जगत्।। | 13-207-23a |
सौम्यत्वं सततं विष्णौ मय्याग्नेयं प्रतिष्ठितम्। अनेन वपुषा नित्यं सर्वलोकान्बिभर्म्यहम्।। | 13-207-24a 13-207-24b |
रौद्राकृतिं विरूपाक्षं शूलपट्टससंयुतम्। आग्नेयमिति मे रूपं देवि लोकहिते रतम्।। | 13-207-25a 13-207-25b |
यद्यहं विपरीतः स्यामेतत्त्यक्त्वा शुभानने। तदैव सर्वलोकानां विपरीतं प्रवर्तते।। | 13-207-26a 13-207-26b |
तस्मान्मयेदं ध्रियते रूपं लोकहितैषिणा। इति ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-207-27a 13-207-27b |
उमोवाच। | 13-207-28x |
भगवन्देवदेवेश शूलपाणे वृषध्वज। किमर्थं चन्द्ररेखा ते शिरोभागे विरोचते। श्रोतुमिच्छाम्यहं देव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-207-28a 13-207-28b 13-207-28c |
महेश्वर उवाच। | 13-207-29x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्। पुराऽहं कारणाद्देवि कोपयुक्तः शुचिस्मिते। दक्षयज्ञवधार्याय भूतसङ्घैः समावृतः।। | 13-207-29a 13-207-29b 13-207-29c |
तस्मिन्क्रतुवरे घोरे यज्ञभागनिमित्ततः। देवा विभ्रंशितास्ते वै येषां भागः क्रतौ कृतः।। | 13-207-30a 13-207-30b |
सोमस्तत्र मया देवि कुपितेन भृशार्दितः। पश्यंश्चानपराधी सन्पादङ्गुष्ठेन ताडितः।। | 13-207-31a 13-207-31b |
तथापि विकृतेनाहं सामपूर्वं प्रसादितः। तन्मे चिन्तयतश्चासीत्पश्चात्तापः पुरा प्रिये।। | 13-207-32a 13-207-32b |
तदाप्रभृति सोमं वै शिरसा धारयाम्यम्। एवं मे पापहानिस्तु भवेदिति मतिर्मम। तदाप्रभृति वै सोमो मूर्ध्नि संदृश्यते सदा।। | 13-207-33a 13-207-33b 13-207-33c |
नारद उवाच। | 13-207-34x |
एवं ब्रुवति देवेशे विस्मिताः परमर्षयः। वाग्भिः साञ्जलिमालाभिरभितुष्टुवुरीश्वरम्।। | 13-207-34a 13-207-34b |
ऋषय ऊचुः। | 13-207-35x |
नमः शङ्कर सर्वेश नमः सर्वजगद्भुरो। नमो देवादिदेवाय नमः शशिकलाधर।। | 13-207-35a 13-207-35b |
नमो घोरतराद्धोर नमो रुद्राय शङ्कर। नमः शान्ततराच्छान्त नमश्चन्द्रस्य पालक।। | 13-207-36a 13-207-36b |
नमः सोमाय देवाय नमस्तुभ्यं चतुर्मुख। नमो भूतपते शंभो जह्नुकन्याम्बुशेखर।। | 13-207-37a 13-207-37b |
नमस्त्रिशूलहस्ताय पन्नगाभरणाय च। नमोस्तु विषमाक्षाय दक्षयज्ञप्रदाहक।। | 13-207-38a 13-207-38b |
नमोस्तु बहुनेत्राय लोकरक्षणतत्पर। अहो देवस्य महात्म्यमहो देवस्य वै कृपा। एवं धर्मपरत्वं च देवदेवस्य चार्हति।। | 13-207-39a 13-207-39b 13-207-39c |
एवं ब्रुवत्सु मुनिषु वचो देव्यब्रवीद्धरम्। सम्प्रीत्यर्थं मुनीनां सा क्षणज्ञा परमं हितम्।। | 13-207-40a 13-207-40b |
उमोवाच। | 13-207-41x |
भगवन्देवदेवेश सर्वलोकनमस्कृत। अस्यैव ऋषिसङ्घस्य मम च प्रियकाम्यया।। | 13-207-41a 13-207-41b |
वर्णाश्रमकृतं धर्मं वक्तुमर्हस्यशेषतः। न तृप्तिरस्ति देवेश श्रवणीयं हि ते वचः।। | 13-207-42a 13-207-42b |
सधर्मचारिणी चेयं भक्ता चेयमिति प्रभो। वक्तुमर्हसि देवेश लोकानां हितकाम्यया। याथातथ्येन तत्सर्वं वक्तुमर्हसि शंकर।। | 13-207-43a 13-207-43b 13-207-43c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्ताधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 207 ।। |
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