महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-236
← अनुशासनपर्व-235 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-236 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-237 → |
महेश्वरेणोमांप्रति तिलदानप्रकारतत्फलयोः कथनम्।। 1 ।। तथा जलान्नादिनानादानफलकथनम्।। 2 ।। तथा सेतुकूपतटाकनिर्मापणादिधर्मफलकथनम्।। 3 ।।
उमोवाच। | 13-236-1x |
भगवन्देवदेवेश कथं देयं तिलान्वितम्। तस्य तस्य फलं ब्रूहि दत्तस्य च कृतस्य च।। | 13-236-1a 13-236-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-236-2x |
तिलकल्पविधिं देवि तन्मे शृणु समाहिता।। | 13-236-2a |
समृद्धैरसमृद्धैर्वा तिला देया विशेषतः। तिलाः पवित्राः पापघ्नाः सुपुण्या इति संस्मृताः।। | 13-236-3a 13-236-3b |
न्यायतस्तु तिलाञ्शुद्धान्संहृत्याथ स्वशक्तिनः। तिलराशिं पुनः कुर्यात्पर्वाताभं सुरस्नकम्। महान्तं यदि वा स्तोकं नानाद्रव्यसमन्वितम्।। | 13-236-4a 13-236-4b 13-236-4c |
सुवर्णरजताभ्यां च मणिमुक्ताप्रवालकैः। अलङ्कृत्य यथायोगं सपताकं सवेदिकम्। सभूषणं सवस्त्रं च शयनासनसंमितम्।। | 13-236-5a 13-236-5b 13-236-5c |
प्रायशः कौमुदीमासे पौर्णमास्यां विशेषतः। भोजयित्वा च विधिवद्ब्राह्म्णानर्हतो बहून्।। | 13-236-6a 13-236-6b |
स्वयं कृतोपवासश्च वृत्तशौचसमन्वितः। दद्यात्प्रदक्षिणीकृत्य तिलराशिं सदक्षिणम्।। | 13-236-7a 13-236-7b |
एकस्यापि बहूनां वा दातव्यं भूतिमिच्छता। तस्य दानफलं देवि अग्निष्टोमेन संयुतम्।। | 13-236-8a 13-236-8b |
केवलं वा तिलैरेव भूमौ कृत्वा गवाकृतिम्। सवस्त्रकं सरत्नं च पुंसा गोदानकाङ्क्षिणा। तदर्हाय प्रदातव्यं तस्य गोदानतः फलम्।। | 13-236-9a 13-236-9b 13-236-9c |
शरावांस्तिलसम्पूर्णान्सहिरण्यान्सचम्पकान्। नृपोऽददद्ब्राह्मणाय सु पुण्यफलभाग्भवेत्।। | 13-236-10a 13-236-10b |
एवं तिलमयं देयं नरेण हितमिच्छता। नानादानफलं भूयः शृणु देवि समाहिता।। | 13-236-11a 13-236-11b |
बलमायुष्यमारोग्यमन्नदानाल्लभेन्नरः। पानीयदस्तु सौभाग्यं रसज्ञानं लभेन्नरः।। | 13-236-12a 13-236-12b |
वस्त्रदानाद्वपुःशोभामलङ्कारं लभेन्नरः। दीपदो बुद्धिवैशद्यं द्युतिशोभां लभेन्नरः।। | 13-236-13a 13-236-13b |
राजपीडाविमोक्षं तु छत्रदो लभते फलम्। दासीदासप्रदानात्तु भवेत्कर्मान्तभाङ्नरः। दासीदासं च विविधं लभेत्प्रेत्य गुणान्वितम्।। | 13-236-14a 13-236-14b 13-236-14c |
यानानि वाहनं चैव तदर्हाय ददन्नरः। पादरोगपरिक्लेशान्मुक्तः श्वसनवाहवान्। विचित्र रमणीयं च लभते यानवाहनम्।। | 13-236-15a 13-236-15b 13-236-15c |
प्रतिश्रयप्रदानं च तदर्हाय तदिच्छते। वर्षाकाले तु रात्रौ वा लभेत्पक्षबलं शुभम्।। | 13-236-16a 13-236-16b |
सेतुकूपतटाकानां कर्ता तु लभते नरः। दीर्घायुष्यं च सौभाग्यं तता प्रेत्य गतिं शुभां।। | 13-236-17a 13-236-17b |
वृक्षसंरोपको यस्तु छायापुष्पफलप्रदः। प्रेत्यभावे लभेत्पुण्यमभिगम्यो भवेन्नरः।। | 13-236-18a 13-236-18b |
यस्तु सङ्क्रमकृल्लोके नदीषु जलहारिणाम्। लभेत्पुण्यफलं प्रेत्य व्यसनेभ्यो विमोक्षणम्।। | 13-236-19a 13-236-19b |
मार्गकृत्सततं मर्त्यो भवेत्सन्तानवान्नरः। कायदोषविमुक्तस्तु तीर्थकृत्सततं भवेत्।। | 13-236-20a 13-236-20b |
औषधानां प्रदानात्तु सततं कृपयाऽन्वितः। भवेद्व्याधिविहीनश्च दीर्घायुश्च विशेषतः।। | 13-236-21a 13-236-21b |
अनाथान्पोषयेद्यस्तु कृपणान्धकपङ्गुकान्। स च पुण्यफलं प्रेत्य लभते कृच्छ्रमोक्षणम्।। | 13-236-22a 13-236-22b |
वेदगोष्ठाः शुभाः शाला भिक्षूणां च प्रतिश्रयम्। यः कुर्याल्लभते नित्यं नरः प्रेत्य फलं शुभम्।। | 13-236-23a 13-236-23b |
प्रासादवासं विविधं यक्षशोभां लभेत्पुनः। विविधं विविधाकारं भक्ष्यभोज्यगुणान्वितम्।। | 13-236-24a 13-236-24b |
रम्यं तं दैवगोवाटं यः कुर्याल्लभते नरः। प्रेत्य भावे शुभां जातिं व्याधिमोक्षं तथैव च।। | 13-236-25a 13-236-25b |
एवं नानाविधं द्रव्यं दानकर्ता लभेत्फलम्।। | 13-236-26a |
उमोवाच। | 13-236-27x |
कृतं दत्तं यथा यावत्तस्य तल्लभते फलम्। एतन्मे देवदेवेश तत्र कौतूहलं महत्।। | 13-236-27a 13-236-27b |
महेश्वर उवाच। | 13-236-28x |
प्रेत्यिभावे शृणु फलं दत्तस्य च कृतस्य च। दानं षङ्गुणयुक्तं तु तदर्हाय यथाविधिः। यथाविभवतो दानं दातव्यमिति मानवैः।। | 13-236-28a 13-236-28b 13-236-28c |
बुद्धिमायुष्यमारोग्यं बलं भाग्यं तथाऽऽगमम्। रूपेण सप्तधा भूत्वा मानुष्यं फलति ध्रुवम्।। | 13-236-29a 13-236-29b |
इदं दत्तमिदं देयमित्येवं फलकाङ्क्षया। यद्दत्तं तत्तदेव स्यान्न तु किञ्चन लभ्यते।। | 13-236-30a 13-236-30b |
ध्रुवं देव्यत्तमे दानं मध्यमे त्वधमं फलम्।। | 13-236-31a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 236 ।। |
= =
7-236-10 सहिरण्यान्सवस्त्रकानिति थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-235 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-237 |