महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-238
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति श्राद्धविधानादिकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-238-1x |
पितृमेधः कथं देव तन्मे शंसितुमर्हसि। सर्वेषां पितरः पूज्याः सर्वसम्पत्प्रदायिनः।। | 13-238-1a 13-238-1b |
महेश्व उवाच। | 13-238-2x |
पितृमेधं प्रवक्ष्यामि यथावत्तन्मना शृणु। देशकालौ विधानं च तत्क्रियायाः शुभाशुभम्।। | 13-238-2a 13-238-2b |
लोकेषु पितरः पूज्या देवतानां च देवताः। शुचयो निर्मलाः पुण्या दक्षिणां दिशमाश्रिताः।। | 13-238-3a 13-238-3b |
यथा वृष्टिं प्रतीक्षन्ते भूमिष्ठाः सर्वजन्तवः। पितरश्च तथा लोके पितृमेधं शुभेक्षणे।। | 13-238-4a 13-238-4b |
तस्य देशाः कुरुक्षेत्रं गया गङ्गा सरस्वती। प्रभासं पुष्करं चेति तेषु दत्तं महाफलम्।। | 13-238-5a 13-238-5b |
तीर्थानि सरितः पुण्या विविक्तानि वनानि च। नदीनां पुलिनानीति देशाः श्राद्धस्य पूजिताः।। | 13-238-6a 13-238-6b |
माघप्रोष्ठपदौ मासौ श्राद्धकर्मणि पूजितौ। पक्षयोः कृष्णपक्षश्च पूर्वपक्षात्प्रशस्यते।। | 13-238-7a 13-238-7b |
अमावास्यां त्रयोदश्यां नवम्यां प्रतिपत्सु च। तिथिष्वेतासु तुष्यन्ति दत्तेनेह पितामहाः।। | 13-238-8a 13-238-8b |
पूर्वाह्णे शुक्लपक्षे च रात्रौ जन्मदिनेषु वा। युग्मेष्वहस्सु च श्राद्धं न च कुर्वीत पण्डितः।। | 13-238-9a 13-238-9b |
एष कालो मया प्रोक्तः पितृमेधस्य पूजितः। यस्मिंश्च ब्राह्म्णं पात्रं पश्येत्कालः स च स्मृतः।। | 13-238-10a 13-238-10b |
अपाङ्क्तेया द्विजा वर्ज्या ग्राह्यास्ते पङ्क्तिपावनाः। भोजयेद्यदि पापिष्ठाञ्श्राद्धेषु नरकं व्रजेत्।। | 13-238-11a 13-238-11b |
वृत्तश्रुतकुलोपेतान्सकलत्रान्गुणान्वितान्। तदर्हाञ्श्रोत्रियान्विद्धि ब्राह्मणानयुजः शुभे।। | 13-238-12a 13-238-12b |
एतान्निमन्त्रयोद्विद्वान्पूर्वेद्युः प्रातरेव वा। तत्र श्राद्धक्रियां पश्चादारभेत यथाविधि।। | 13-238-13a 13-238-13b |
त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः। त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचमक्रोधमत्वरा।। | 13-238-14a 13-238-14b |
कुतपः खङ्गपात्रं च कुशा दर्भास्तिला मधु। कालशाकं गजच्छाया पवित्रं श्राद्धकर्मसु।। | 13-238-15a 13-238-15b |
तिलानवकिरेत्तत्र नानावर्णान्समन्ततः। अशुद्धं पितृयज्ञश्च तिलैः शुध्यति शोभने।। | 13-238-16a 13-238-16b |
नीलकाषायवस्त्रं च भिन्नवर्णं नवव्रणम्। हीनाङ्गमशुचिं वाऽपि वर्जयेत्तत्र दूरतः।। | 13-238-17a 13-238-17b |
कुक्कुटांश्च वराहांश्च नग्नं क्लीबं रजस्वलाम्। आयसं त्रपुसीसं च श्राद्धकर्मणि वर्जयेत्।। | 13-238-18a 13-238-18b |
मांसैः प्रीणन्ति पितरो मुद्गमाषयवैरिह। शशरौरवमांसेन षण्मासं तृप्तिरिष्यते।। | 13-238-19a 13-238-19b |
संवत्सरं च गव्येन हविषा पायसेन च। वार्ध्रीणसस्य मांसेन तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी।। | 13-238-20a 13-238-20b |
आनन्त्याय भवेद्दत्तं खङ्गमांसं पितृक्षये। पायसं सतिलं क्षौद्रं खङ्गमांसेन सम्मितम्।। | 13-238-21a 13-238-21b |
महाशकलिनो मस्याश्छागो वा सर्वलोहितः। कालशाकमितीत्येव तदानन्त्याय कल्पितम्।। | 13-238-22a 13-238-22b |
सापूपं सामिषं स्निग्धमाहारमुपकल्पयेत्। उपकल्प्य तदाहारं ब्राह्मणानर्चयेत्ततः।। | 13-238-23a 13-238-23b |
श्मश्रुकर्मशिरः स्नातान्समारोप्यासनं क्रमात्। सुगन्धमाल्याभरणैः स्नग्भिरेतान्विभूषयेत्।। | 13-238-24a 13-238-24b |
अलङ्कृत्योपविष्टांस्तान्पिण्डावापं निवेदयेत्।। | 13-238-25a |
ततः प्रस्तीर्य दर्भाणां प्रस्तरं दक्षिणामुखम्। तत्समीपेऽग्निमिद्ध्वा च स्वधां च जुहुयात्ततः। समीपे त्वग्नीषोमाभ्यां पितृभ्यो जुहुयात्तदा।। | 13-238-26a 13-238-26b 13-238-26c |
तथा दर्भेषु पिण्डांस्त्रीन्निर्वपेद्दक्षिणामुखः। अपसव्यमपाङ्गुष्ठं नामधेयपुरस्कृतम्।। | 13-238-27a 13-238-27b |
एतेन विधिना दत्तं पितॄणामक्षयं भवेत्। ततो विप्रान्यथाशक्ति पूजयेन्नियतः शुचिः। सदक्षिणं ससम्भारं यथा तुष्यन्ति ते द्विजाः।। | 13-238-28a 13-238-28b 13-238-28c |
यत्र तत्क्रियते तत्र न जल्पन्न जपेन्मिथः। नियम्य वाच्यं देहं च श्राद्धकर्म समारभेत्।। | 13-238-29a 13-238-29b |
ततो निर्वपने वृत्ते तान्पिण्डांस्तदनन्तरम्। ब्राह्मणोऽग्निरजो गौर्वा भक्षयेदप्सु वा क्षिपेत्।। | 13-238-30a 13-238-30b |
पत्नीं वा मध्यमं पिण्डं पुत्रकामो हि प्राशयेत्। आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्करस्रजम्।। | 13-238-31a 13-238-31b |
तृप्तानुत्थाप्य तान्विप्रानन्नशेषं निवेदयेत्। तच्छेषं बहुभिः पश्चात्सभृत्यो भक्षयेन्नरः।। | 13-238-32a 13-238-32b |
एष प्रोक्तः समासेन पितृयज्ञः सनातनः। पितरस्तेन तुष्यन्ति कर्ता च फलमाप्नुयात्।। | 13-238-33a 13-238-33b |
अहन्यहनि वा कुर्यान्मासेमासेऽथवा पुनः। संवत्सरं द्विः कुर्याच्च चतुर्वाऽपि स्वशक्तितः।। | 13-238-34a 13-238-34b |
दीर्घायुश्च भवेत्स्वस्थः पितृमेधेन वा पुनः। सपुत्रो बहुभृत्यश्च प्रभूतधनधान्यवान्।। | 13-238-35a 13-238-35b |
श्राद्धदः स्वर्गमाप्नोति निर्मलं विविधात्मकम्। अप्सरोगणसंघुष्टं विरजस्कमनन्तरम्।। | 13-238-36a 13-238-36b |
श्राद्धानि पुष्टिकामा वै ये प्रकुर्वन्ति पण्डिताः। तेषां पुष्टिं प्रजां चैव दास्यन्ति पितरः सदा।। | 13-238-37a 13-238-37b |
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं शत्रुविनाशनम्। कुलसन्धारकं चेति श्राद्धमाहुर्मनीषिणः।। | 13-238-38a 13-238-38b |
उमोवाच। | 13-238-39x |
भगवन्देवदेवेश मृतास्ते भुवि जन्तवः। नानाजातिषु जायन्ते शीघ्रं कर्मवशात्पुनः।। | 13-238-39a 13-238-39b |
पितरः स्वस्ति ते तत्र कथं तिष्ठन्ति देववत्। पितॄणां कतमो देशः पिण्डानश्नन्ति वै कथम्।। | 13-238-40a 13-238-40b |
अन्ने दत्ते मृतानां तु कथमाप्यायनं भवेत्। एवं मया संशयितं भगवन्वक्तुमर्हसि।। | 13-238-41a 13-238-41b |
नारद उवाच। | 13-238-42x |
एतद्विरुद्धं पृच्छन्त्यां रुद्राण्यां परिषद्भृशम्। बभूव सर्वा मुदिता श्रोतुं हि परमं हितम्।। | 13-238-42a 13-238-42b |
महेश्वर उवाच। | 13-238-43x |
स्थाने संशयितं देवि शृणु कल्याणि तत्वतः। गुह्यानां परमं गुह्यं हितानां परमं हितम्।। | 13-238-43a 13-238-43b |
यथा देवगणा देवि तथा पितृगणाः प्रिये। दक्षिणस्यां दिशि शुभे सर्वे पितृगणाः स्थिताः।। | 13-238-44a 13-238-44b |
प्रेतानुद्दिश्य या पूजा क्रियते मानुषैरिह। तेन तुष्यन्ति पितरो न प्रेताः पितरः स्मृताः।। | 13-238-45a 13-238-45b |
उत्तरस्यां यथा देवा रमन्ते यज्ञकर्मभिः। दक्षिणस्यां तथा देवि तुष्यन्ति विविधैर्मखैः।। | 13-238-46a 13-238-46b |
द्विविधं क्रियते कर्म हव्यकव्यसमाश्रितम्। तयोर्हव्यक्रिया देवान्कव्यमाप्यायते पितॄन्। | 13-238-47a 13-238-47b |
प्रसव्यं मङ्गलैर्द्रव्यैर्हव्यकर्म विधीयते। अपसव्यममङ्गल्यैः कव्यं चापि विधीयते।। | 13-238-48a 13-238-48b |
सदेवासुरगन्धर्वाः पितॄनभ्यर्चयन्ति च। आप्यायन्ते च ते श्राद्धैः पुनराप्याययन्ति तान्।। | 13-238-49a 13-238-49b |
अनिष्टा च पितॄन्पूर्वं यः क्रियां प्रकरोति चेत्। रक्षांसि च पिशाचाश्च फलं भोक्ष्यन्ति तस्य तत्।। | 13-238-50a 13-238-50b |
हव्यकव्यक्रियास्तस्मात्कर्तव्या भुवि मानुषैः। कर्मक्षेत्रं हि मानुष्यं तदन्यत्र न विद्यते।। | 13-238-51a 13-238-51b |
कव्येन सन्ततिर्दृष्टा हव्ये भूतिः पृथग्विधाः। इति ते कथितं देवि देवगुह्यं सनातनम्।। | 13-238-52a 13-238-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 238 ।। |
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