महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-154
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गृहस्थधर्मप्रतिपादकपृथिवीवासुदेवसंवादानुवादः।। 1 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-154-1x |
गार्हस्थ्यं धर्ममखिलं प्रब्रूहि भरतर्षभ। ऋद्धिमाप्नोति किं कृत्वा मनुष्य इह पार्थिव।। | 13-154-1a 13-154-1b |
भीष्म उवाच। | 13-154-2x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि पुरावृत्तं जनाधिप। वासुदेवस्य संवादं पृथिव्याश्चैव भारत।। | 13-154-2a 13-154-2b |
संस्तुत्य पृथिवीं देवीं वासुदेवः प्रतापवान्। पप्रच्छ भरतश्रेष्ठ मां त्वं यत्पृच्छसेऽद्य वै।। | 13-154-3a 13-154-3b |
वासुदेव उवाच। | 13-154-4x |
गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रित्य मया वा मद्विधेन वा। किमवश्यं धरे कार्यं किं वा कृत्वा सुखं भवेत्।। | 13-154-4a 13-154-4b |
पृथिव्युवाच। | 13-154-5x |
ऋषयः पितरो देवा मनुष्याश्चैव माधव। पूज्याश्चैवार्चनीयाश्च यथा चैव निबोध मे।। | 13-154-5a 13-154-5b |
सदा यज्ञेन देवांश्च सदाऽऽतिथ्येन मानुषान्। छन्दतस्तर्पणेनापि पितॄन्युञ्जन्ति नित्यशः।। | 13-154-6a 13-154-6b |
तेन ह्यृषिगणाः प्रीता ब्रह्मचयेणि चानघ। नित्यमग्निं परिचरेदभुक्त्वा बलिकर्म च।। | 13-154-7a 13-154-7b |
कुर्यात्तथैव देवान्वै प्रियं मे मधुसूदन। कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन च।। | 13-154-8a 13-154-8b |
पयोमूलफलैर्वाऽपि पितॄणां प्रीतिमावहेत्। सिद्धान्नाद्वैश्वदेवं वै कुर्यादग्नौ यथाविधि।। | 13-154-9a 13-154-9b |
आग्नीषोमं वैश्वदेवं धान्वन्तर्यमनन्तरम्। प्रजानां पतये चैव पृथग्घोमो विधीयते।। | 13-154-10a 13-154-10b |
तथैव चानुपूर्व्येण बलिकर्म प्रयोजयेत्। दक्षिणायां यमायेति प्रतीच्यां वरुणाय च।। | 13-154-11a 13-154-11b |
सोमाय चाप्युदीच्यां वै वास्तुमध्ये प्रजापतेः। धन्वन्तरेः प्रागुदीच्यां प्राच्यां शक्राय माधव।। | 13-154-12a 13-154-12b |
मनुष्येभ्य इति प्राहुर्बलिं द्वारि गृहस्य वै। मरुद्भ्यो दैवतेभ्यश्च बलिमन्तर्गृहे हरेत्।। | 13-154-13a 13-154-13b |
तथैव विश्वेदेवेभ्यो बलिमाकाशतो हरेत्। निशाचरेभ्यो भूतेभ्यो बलिं नक्तं यथा हरेत्।। | 13-154-14a 13-154-14b |
एवं कृत्वा बलिं सम्यग्दद्याद्भिक्षां द्विजाय वै। अलाभे ब्राह्मणस्याग्नावग्रमुद्धृत्य निक्षिपेत्।। | 13-154-15a 13-154-15b |
यदा श्राद्धं पितृभ्योपि दातुमिच्छेत मानवः। तदा पश्चात्प्रकुर्वीत निवृत्ते श्राद्धकर्मणि।। | 13-154-16a 13-154-16b |
पितॄन्सन्तर्पयित्वा तु बलिं कुर्याद्विधानतः। वेश्वदैवं ततः कुर्यात्पश्चाद्ब्राह्म्णभोजनम्।। | 13-154-17a 13-154-17b |
ततोऽन्नेनावशेषेण भोजयेदतिथीनपि। अर्घ्यपूर्वं महाराज ततः प्रीणाति मानवान्। अनित्यं हि स्थितो यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते।। | 13-154-18a 13-154-18b 13-154-18c |
आचार्यस्य पितुश्चैव सख्युराप्तस्य चातिथेः। इदमस्ति गृहे मह्यमिति नित्यं निवेदयेत्।। | 13-154-19a 13-154-19b |
ते यद्वदेयुस्तत्कुर्यादिति धर्मो विधीयते। गृहस्थः पुरुषः कृष्ण शिष्टाशी च सदा भवेत्।। | 13-154-20a 13-154-20b |
राजर्त्विजं स्नातकं च गुरुं श्वशुरमेव च। अर्चयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरोषितान्।। | 13-154-21a 13-154-21b |
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।। | 13-154-22a |
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातर्विधीयते।। | 13-154-23a |
एतांस्तु धर्मान्गार्हस्थ्यान्यः कुर्यादनसूयकः। स इहर्द्धिं परां प्राप्य प्रेत्य लोके महीयते।। | 13-154-24a 13-154-24b |
भीष्म उवाच। | 13-154-25x |
इति भूमेर्वचः श्रुत्वा वासुदेवः प्रतापवान्। तथा चकार सततं त्वमप्येवं सदाऽऽचर।। | 13-154-25a 13-154-25b |
एतद्गृहस्थधर्मं त्वं चेष्टमानो जनाधिप। इह लोके यशः प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमवाप्स्यसि।। | 13-154-26a 13-154-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुःपञ्चाशददिकशततमोऽध्यायः।। 154 ।। |
13-154-1 गार्हस्थ्यं गृहस्थयोग्यम्।। 13-154-7 बलिकर्म वैश्वदेवः तत्र प्रागन्नमेव ग्राह्यम्।। 13-154-15 भिक्षाद्वयं तथेति थ.ध.पाठः।।
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