महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-042
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ब्रह्मणा देवान्प्रति श्रीनारायणमहिमप्रतिपादकगरुडमुनिगणसंवादानुवादः।। 1 ।।
`सुपर्ण उवाच। | 13-42-1x |
एवं दत्ताभयस्तेन ततोऽहमृषिसत्तमाः। नष्टखेदश्रमभयः क्षणेन ह्यभवं तदा।। | 13-42-1a 13-42-1b |
स शनैर्याति भगवान्गत्या लघुपराक्रमः। अहं तु सुमहावेगमास्तायानुव्रजामि तम्।। | 13-42-2a 13-42-2b |
स गत्वा दीर्घमध्वानमाकाशममितह्युतिः। मनसाऽप्यगमं देवमाससादात्मतत्ववित्।। | 13-42-3a 13-42-3b |
अथ देवः समासाद्य मनसः सदृशं जवम्। मोहयित्वा च मां तत्र क्षणेनान्तरधीयत।। | 13-42-4a 13-42-4b |
तत्राम्बुधरधीरेण भोशब्देनानुनादिना। अयं भोऽहमिति प्राह वाक्यं वाक्यविशारदः।। | 13-42-5a 13-42-5b |
शब्दानुसारी तु ततस्तं देशमहमाव्रजम्। तत्रापश्यं ततश्चाहं श्रीमद्धंसयुतं सरः।। | 13-42-6a 13-42-6b |
स तत्सरः समासाद्य भगवानात्मवित्तमः। भोशब्दप्रतिसृष्टेन स्वरेण प्रतिवादिना।। | 13-42-7a 13-42-7b |
विवेश देवः स्वां योनिं मामिदं चाभ्यभाषत। विशस्व सलिलं सौम्य सुखमत्र वसामहे।। | 13-42-8a 13-42-8b |
ततश्च प्राविशं तत्र सह तेन महात्मना। दृष्टवानद्भुततरं तस्मिन्सरसि भास्वताम्।। | 13-42-9a 13-42-9b |
अग्नीनामप्रणीतानामिद्धानामिन्धनैर्विना। दीप्तानामाज्यसिक्तानां स्यानेष्वर्चिष्मतां सदा।। | 13-42-10a 13-42-10b |
दीप्तिस्तेषामनाज्यानां प्राप्ताज्यानामिवाभवत्। अनिद्धानामिव सतामिद्धानामिव भास्वताम्।। | 13-42-11a 13-42-11b |
अथाहं वरदं देवं नापश्यं तत्र सङ्गतम्। ततः सम्मोहमापन्नो विषादभगमं परम्।। | 13-42-12a 13-42-12b |
अपश्यं चाग्निहोत्राणि शतशोऽथ सहस्रशः। विधिना सम्प्रणीतानि धिष्ण्येष्वाज्यवतां तदा।। | 13-42-13a 13-42-13b |
असंभृष्टतलाश्चैव वेदीः कुसुमसंस्तृताः। कुशपद्मोत्पलासङ्गाः कलशांश्च हिरण्मयान्।। | 13-42-14a 13-42-14b |
अग्निहोत्राणि चित्राणि शतशोऽथ सहस्रशः। अग्निहोत्राय योग्यानि यानि द्रव्याणि कानिचित्। तानि चात्र समृद्धानि दृष्टवानस्म्यनेकशः।। | 13-42-15a 13-42-15b 13-42-15c |
मनोहृद्यतमश्चाग्निः सुरभिः पुण्यलक्षणः। आज्यगन्धो मनोग्राही घ्राणचक्षुस्सुखावहः।। | 13-42-16a 13-42-16b |
तेषां तत्राग्निहोत्राणामीडितानां सहस्रशः। समीपे त्वद्भुततममपश्यमहमव्ययम्।। | 13-42-17a 13-42-17b |
चन्द्रांशुकाशशुभ्राणां तुषारोद्भेदवर्चसाम्। विमलादित्यभासानां स्थण्डिलानि सहस्रशः। दृष्टान्यग्निसमीपे तु ध्युतिमन्ति महान्ति च।। | 13-42-18a 13-42-18b 13-42-18c |
एषु चाग्निसमीपेषु शुश्राव सुपदाक्षराः। प्रभावान्तरितानां तु प्रस्पष्टाक्षरभाषिणाम्। ऋग्यजुःसामगानां च मधुराः सुस्वरा गिरः।। | 13-42-19a 13-42-19b 13-42-19c |
सुसंमृष्टतलैस्तैस्तु बृहद्बिर्दीप्ततेजसैः। पावकैः पावितात्माहमभवं लघुविक्रमः।। | 13-42-20a 13-42-20b |
ततोऽहं तेषु धिष्ण्येषु ज्वलमानेषु यज्वनाम्। तं देशं प्रणमित्वाऽथ अन्वेष्टुमुपचक्रमे।। | 13-42-21a 13-42-21b |
तान्यनेकसहस्राणि पर्यटंस्तु महाजवात्। अपश्यमानस्तं देवं ततोऽहं व्यथितोऽभवम्।। | 13-42-22a 13-42-22b |
ततस्तेष्वग्निहोत्रेषु ज्वलत्सु विमलार्चिषु। भानुमत्सु न पश्यामि देवदेवं सनातनम्।। | 13-42-23a 13-42-23b |
ततोऽहं तानि दीप्तानि परीय व्यस्थितेन्द्रियः। नान्तं तेषां प्रपश्यामि खेदश्च सहसाभवत्।। | 13-42-24a 13-42-24b |
विसृत्य सर्वतो दृष्टिं भयमोहसमन्वितः। श्रमं परंममापन्नश्चिन्तयानस्त्वचेतनः।। | 13-42-25a 13-42-25b |
तस्मिन्न खलु वर्तेऽहं लोके यत्रैतदीदृशम्। ऋग्यजुस्सामनिर्घोषः श्रूयते न च दृश्यते।। | 13-42-26a 13-42-26b |
न च पश्यामि तं देवं येनाहमिह चोदितः। एवं चिन्तासभापन्नः प्रध्यातुमुपचक्रमे।। | 13-42-27a 13-42-27b |
ततश्चिन्तयतो मह्यं मोहेनाविष्टचेतसः। महाशब्दः प्रादुरासीत्सुभृशं मे व्यथाकरः।। | 13-42-28a 13-42-28b |
अथाहं सहसा तत्र शृणोमि विपुलध्वनिम्। अपश्यं च सुपर्णानां सहस्राण्ययुतानि च।। | 13-42-29a 13-42-29b |
अभ्यद्रवन्त मामेव विपुलद्युतिरंहसः। तेषामहं प्रभावेण सर्वथैवावरोऽभवम्।। | 13-42-30a 13-42-30b |
सोऽहं समन्ततः सर्वैः सुपर्णैरतितेजसैः। दृष्ट्वाऽऽत्मानं परिगतं सम्भ्रमं परमं गतः।। | 13-42-31a 13-42-31b |
विनयावनतो भूत्वा नमश्चक्रे महात्मने। अनादिनिधनायैभिर्नामभिः परमात्मने।। | 13-42-32a 13-42-32b |
नारायणाय शुद्धाय शाश्वताय ध्रुवाय च। भूतभव्यभवेशाय शिवाय शिवमूर्तये।। | 13-42-33a 13-42-33b |
शिवयोनेः शिवाद्यायि शिवपूज्यतमाय च। घोररूपाय महते युगान्तकरणाय च।। | 13-42-34a 13-42-34b |
विश्वाय विश्वदेवाय विश्वेशाय महात्मने। सहस्रोदरपादाय सहस्रनयनाय च।। | 13-42-35a 13-42-35b |
सहस्रबाहवे चैव सहस्रवदनाय च। शुचिश्रवाय महते ऋतुसंवत्सराय च।। | 13-42-36a 13-42-36b |
ऋग्यजुःसामवक्त्राय अथर्वशिरसे नमः। हृषीकेशाय कृष्णाय द्रुहिणोरुक्रमाय च।। | 13-42-37a 13-42-37b |
बृहद्वेगाय तार्क्ष्याय वराहायैकशृङ्गिणे। शिपिविष्टाय सत्याय हरयेऽथ शिखण्डिने।। | 13-42-38a 13-42-38b |
हुताशायोर्ध्ववक्त्राय रौद्रानीकाय साधवे। सिन्धवे सिन्धुवर्षघ्ने देवानां सिन्धवे नमः।। | 13-42-39a 13-42-39b |
गरुत्मते त्रिनेत्राय सुधर्माय वृषाकृते। सम्म्राडुग्रे संकृतये विरजे सम्भवे भवे।। | 13-42-40a 13-42-40b |
वृषाय वृषरूपाय विभवे भूर्भुवाय व। दीप्तसृष्टाय यज्ञाय स्थिराय स्थविराय च।। | 13-42-41a 13-42-41b |
अच्युताय तुषाराय वीराय च समाय च। जिष्णवे पुरुहूताय वसिष्ठाय वराय च।। | 13-42-42a 13-42-42b |
सत्येशाय सुरेशाय हरयेऽथ शिखण्डिने। बर्हिषाय वरेण्याय वसवे विश्ववेधसे।। | 13-42-43a 13-42-43b |
किरीटिने सुकेशाय वासुदेवाय शुष्मिणे। बृहदुक्थ्यसुषेणाय युग्ये दुन्दुभये तथा।। | 13-42-44a 13-42-44b |
भयेसखाय विभवे भरद्वाजेऽभयाय च। भास्कराय च चन्द्राय पद्मनाभाय भूरिणे।। | 13-42-45a 13-42-45b |
पुनर्वसुभृतत्वाय जीवप्रभविषाय च। वषट्काराय स्वाहाय स्वधाय निधनाय च।। | 13-42-46a 13-42-46b |
ऋचे च यजुषे साम्ने त्रैलोक्यपतये नमः। श्रीपद्मायात्मसदृशे धरणीधारिणे परे।। | 13-42-47a 13-42-47b |
सौम्यासौम्यस्वरूपाय सौम्ये सुमनसे नमः। विश्वाय च सुविश्वाय विश्वरूपधराय च।। | 13-42-48a 13-42-48b |
केशवाय सुकेशाय रश्मिकेशाय भूरिणे। हिरण्यगर्भाय नमः सौम्याय वृषरूपिणे।। | 13-42-49a 13-42-49b |
नारायणाग्र्यवपुषे पुरुहूताय वज्रिणे। वर्मिणे वृषसेनाय धर्मसेनाय रोधसे। मुनये ज्वरमुक्तायि ज्वराधिपतये नमः।। | 13-42-50a 13-42-50b 13-42-50c |
अनेत्राय त्रिनेत्राय पिङ्गलाय विडूर्मिणे। तपोब्रह्मनिधानाय युगपर्यायिणे नमः।। | 13-42-51a 13-42-51b |
शरणाय शरण्याय भक्तेष्टशरणाय च। नमः सर्वभवेशाय भूतभव्यभवाय च।। | 13-42-52a 13-42-52b |
पाहि मां देवदेवेश कोप्यजोसि सनातनः। एवं गतोस्मि शरणं शरण्यं ब्रह्मयोनिनम्।। | 13-42-53a 13-42-53b |
स्तव्यं स्तवं स्तुतवतस्तत्तमो मे प्रणश्यत। भयं च मे व्यपगतं पक्षिणोऽन्तर्हिताऽभवन्।। | 13-42-54a 13-42-54b |
शृणोमि च गिरं दिव्यामन्तर्धानगतां शिवाम्। मा भैर्गरुत्मन्दान्तोसि पुनः सेन्द्रान्दिवौकसः। स्वं चैव भवनं गत्वा द्रक्ष्यसे पुत्रबान्धवान्।। | 13-42-55a 13-42-55b 13-42-55c |
ततस्तस्मिन्क्षणेनैव सहसैव महाद्युतिः। प्रत्यदृश्यत तेजस्वी पुरस्तात्स ममान्तिके।। | 13-42-56a 13-42-56b |
समागम्य ततस्तेन शिवेन परमात्मना। अपश्यं चाहमायान्तं नरनारायणाश्रमे। चतुर्द्विगुणविन्यासं तं च देवं सनातनम्।। | 13-42-57a 13-42-57b 13-42-57c |
यजतस्तानृषीन्देवान्वदतो ध्यायतो मुनीन्। युक्तान्सिद्धान्नैष्ठिकांश्च जपतो यजतो गृहे।। | 13-42-58a 13-42-58b |
पुष्पपूरपरिक्षिप्तं धूपितं दीपितं हुतम्। वन्दितं सिक्तसम्मृष्टं नरनारायणाश्रमम्।। | 13-42-59a 13-42-59b |
तदद्भुतमहं दृष्ट्वा विस्मितोस्मि तदाऽनघाः। जगाम शिरसा देवं प्रयतेनान्तरात्मना।। | 13-42-60a 13-42-60b |
तदत्यद्भुतसङ्कासं किमेतदिति चिन्तयन्। नाध्यगच्छं परं दिव्यं तस्य सर्वभवात्मनः।। | 13-42-61a 13-42-61b |
प्रणिपत्य सुदुर्धर्षं पुनः पुनरुदीक्ष्य च। शिरस्यञ्जलिमाधाय विस्मयोत्फुल्ललोचनः। अवोचं तमदीनार्थं श्रेष्ठानां श्रेष्ठमुत्तमम्।। | 13-42-62a 13-42-62b 13-42-62c |
नमस्ते भगवन्देव भूतभव्यभवत्प्रभो। यदेतदद्भुतं देव मया दृष्टं त्वदाश्रयम्।। | 13-42-63a 13-42-63b |
अनादिमद्यपर्यन्तं किं तच्छंसितुमर्हसि। यदि जानासि सां भक्तं यदि वाऽनुग्रहो मयि। शंस सर्वमशेषेण श्रोतव्यं यदि चेन्मया।। | 13-42-64a 13-42-64b 13-42-64c |
स्वभावस्तव दुर्ज्ञेयः प्रादुर्भावो भवस्य च। भवद्भूतभविष्येश सर्वथा गहनं भवान्।। | 13-42-65a 13-42-65b |
ब्रूहि सर्वमशेषेण तदाश्चर्यं महामुने। किं तदत्यद्भुतं वृत्तं तेष्वग्निषु समन्ततः।। | 13-42-66a 13-42-66b |
कानि तान्यग्निहोत्राणि केषां शब्दः श्रुतो मया। शृण्वतां ब्रह्म सततमदृश्यानां महात्मनाम्।। | 13-42-67a 13-42-67b |
एतन्मे भगवन्कृष्ण ब्रूहि सर्वमशेषतः। गृणन्त्यग्निसमीपेषु के च ते ब्रह्मराशयः।।' | 13-42-68a 13-42-68b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। 42 ।। |
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