महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-089
← अनुशासनपर्व-088 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-089 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-090 → |
परेद्युः प्रभाते सभार्येण कुशिकेन च्यवनावलोकनाय वनप्रवेशः।। 1 ।। च्यवनेन कुशिकम्प्रति स्वयोगप्रभावसृष्टस्वर्गप्रदर्शनपूर्वकमभिमतवरवरणप्रेरणा।। 2 ।।
भीष्म उवाच। | 13-89-1x |
ततः स राजा रात्र्यन्ते प्रतिबुद्धो महामनाः। कृतपूर्वाह्णिकः प्रायात्सभार्यस्तद्वनं प्रति।। | 13-89-1a 13-89-1b |
ततो ददर्श नृपतिः प्रासादं सर्वकाञ्चनम्। मणिस्तम्भसहस्राढ्यं गन्धर्वनगरोपमम्। तत्र दिव्यानभिप्रायान्ददर्श कुशिकस्तदा।। | 13-89-2a 13-89-2b 13-89-2c |
पर्वतान्रूप्यसानूंश्च नलिनीश्च सपङ्कजाः। चित्रशालाश्च विविधास्तोरणानि च भारत। शाद्वलोपचितां भूमिं तथा काञ्चनकुट्टिमाम्।। | 13-89-3a 13-89-3b 13-89-3c |
सहकारान्प्रफुल्लांश्च केतकोद्दालकान्वरान्। अशोकान्सहकुन्दांश्च फुल्लांश्चैवातिमुक्तकान्।। | 13-89-4a 13-89-4b |
चम्पकांस्तिलकान्भव्यान्पनसान्वञ्जुलानपि। पुष्पितान्कर्णिकारांश्च तत्रतत्र ददर्श ह।। | 13-89-5a 13-89-5b |
श्यामान्वारणपुष्पांश्च तथाऽष्टपदिका लताः। तत्रतत्र परिक्लृप्ता ददर्श स महीपतिः।। | 13-89-6a 13-89-6b |
रम्यान्पद्मोत्पलधरान्सर्वर्तुकुसुमांस्तथा। विमानप्रतिमांश्चापि प्रासादाञ्शैलसन्निभान्।। | 13-89-7a 13-89-7b |
शीतलानि च तोयानि क्वचिदुष्णानि भारत। आसनानि विचित्राणि शयनप्रवराणि च।। | 13-89-8a 13-89-8b |
पर्यङ्कान्रत्नसौवर्णान्परार्ध्यास्तरणास्तृतान्। भक्ष्यं भोज्यमनन्तं च तत्रतत्रोपकल्पितम्।। | 13-89-9a 13-89-9b |
वाणीवादाञ्छुकांश्चैव शारिका भृङ्गराजकान्। कोकिलाञ्छतपत्रांश्च सकोयष्टिककुक्कुभान्।। | 13-89-10a 13-89-10b |
मयूरान्कुक्कुटांश्चापि दात्यूहाञ्जीवजीवकान्। चकोरान्वानरान्हंसान्सारसांश्चक्रसाह्वयान्।। | 13-89-11a 13-89-11b |
समन्ततः प्रणदतो ददर्श सुमनोहरान्। क्वचिदप्सरसां सङ्घान्गन्धर्वाणां च पार्थिव।। | 13-89-12a 13-89-12b |
कान्ताभिरपरांस्तत्र परिष्वक्रान्ददर्श ह। न ददर्श च तान्भूयो ददर्श च पुनर्नृपः।। | 13-89-13a 13-89-13b |
गीतध्वनिं सुमधुरं तथैवाध्ययनध्वनिम्। हंसानसुमधुरांश्चापि तत्र शुश्राव पार्थिवः।। | 13-89-14a 13-89-14b |
तं दृष्ट्वाऽत्यद्भुतं राजा मनसाऽचिन्तयत्तदा। स्वप्नोऽयं चित्तविभ्रंश उताहो सत्यमेव तु।। | 13-89-15a 13-89-15b |
अहो सह शरीरेण प्राप्तोस्मि परमां गतिम्। उत्तरान्वा कुरून्पुण्यानथवाऽप्यमरावतीम्।। | 13-89-16a 13-89-16b |
किञ्चेदं महदाश्चर्यं सम्पश्यामीत्यचिन्तयत्। एवं सञ्चिन्तयन्नेव ददर्श मुनिपुङ्गवम्।। | 13-89-17a 13-89-17b |
तस्मिन्विमाने सौवर्णे मणिस्तम्भसमाकुले। महार्हे शयने दिव्ये शयानं भृगुनन्दनम्।। | 13-89-18a 13-89-18b |
तमभ्ययात्प्रहर्षेण नरेन्द्रः सह भार्यया। अन्तर्हितस्ततो भूयश्च्यवनः शयनं व तत्।। | 13-89-19a 13-89-19b |
ततोऽन्यस्मिन्वनोद्देशे पुनरेव ददर्श तम्। कौश्यां बृस्यां समासीनं जपमानं महाव्रतम्।। | 13-89-20a 13-89-20b |
एवं योगबलाद्विप्रो मोहयामास पार्थिवम्।। | 13-89-21a |
क्षणेन तद्वनं चैव ते चैवाप्सरसां गणाः। गन्धर्वाः पादपाश्चैव सर्वमन्तरधीयत।। | 13-89-22a 13-89-22b |
निःशब्दमभवच्चापि गङ्गाकूलं पुनर्नृप। कुशवल्मीकभूयिष्ठं बभूव च यथा पुरा।। | 13-89-23a 13-89-23b |
ततः स राजा कुशिकः सभार्यस्तेन कर्मणा। विस्मयं परमं प्राप्तस्तद्दृष्ट्वा महदद्भुतम्।। | 13-89-24a 13-89-24b |
ततः प्रोवाच कुशिको भार्या हर्षसमन्वितः। पश्य भद्रे यथाभावाश्चित्रा दृष्टाः सुदुर्लभाः। प्रसादाद्भृगुमुख्यस्य किमन्यत्र तपोबलात्।। | 13-89-25a 13-89-25b 13-89-25c |
तपसा तदवाप्यं हि यन्न शक्यं मनोरथैः। त्रैलोक्यराज्यादपि हि तप एव विशिष्यते।। | 13-89-26a 13-89-26b |
तपसा हि सुतप्तेनि क्रीडत्येष तपोधनः। अहो प्रभावो ब्रह्मर्षेश्च्यवनस्य महात्मनः।। | 13-89-27a 13-89-27b |
इच्छयैष तपोवीर्यादन्याँल्लोकान्सृजेदपि। ब्राह्मणा एव जायेरन्पुण्यवाग्बुद्धिकर्मणा।। | 13-89-28a 13-89-28b |
उत्सहेदिह कृत्वैव कोऽन्यो वै च्यवनादृते। ब्राह्मण्यं दुर्लभं लोके राज्यं हि सुलभं नरैः।। | 13-89-29a 13-89-29b |
ब्राह्मण्यस्य प्रभावाद्धि रथे युक्तौ स्वधुर्यवत्। इत्येवं चिन्तयानः स विदितश्च्यवनस्य वै।। | 13-89-30a 13-89-30b |
सम्प्रेक्ष्योवाच नृपतिं क्षिप्रमागम्यतामिति। इत्युक्तः सहभार्यस्तु सोभ्यगच्छन्महामुनिम्।। | 13-89-31a 13-89-31b |
शिरसा वन्दनीयं तमवन्दत च पार्थिवः। तस्याशिषः प्रयुज्याथ स मुनिस्तं नराधिपम्। निषीदेत्यब्रवीद्धीमान्सान्त्वयन्पुरुषर्षभः।। | 13-89-32a 13-89-32b 13-89-32c |
ततः प्रकृतिमापन्नो भार्गवो नृपते नृपम्। उवाच श्लक्ष्णया वाचा तर्पयन्निव भारत।। | 13-89-33a 13-89-33b |
राजन्सम्यग्जितानीह पञ्चपञ्च स्वयं त्वया। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि कृच्छ्रान्मुक्तोसि तेन वै।। | 13-89-34a 13-89-34b |
सम्यगाराधितः पुत्र त्वयाऽहं वदतांवर। न हि ते वृजितं किञ्चित्सुसूक्ष्ममपि दृश्यते।। | 13-89-35a 13-89-35b |
अनुजानीहि मां राजन्गमिष्यामि यथागतम्। प्रीतोस्मि तव राजेन्द्र वरश्च प्रतिगृह्यताम्।। | 13-89-36a 13-89-36b |
कुशिक उवाच। | 13-89-37x |
अग्निमध्ये गतेनेव भगवन्सन्निधौ मया। वर्तितं भृगुशार्दूल यन्न दग्धोस्मि तद्बहु।। | 13-89-37a 13-89-37b |
एष एव वरो मुख्यः प्राप्तो मे भृगुनन्दन। यत्प्रीतोसि ममाचारैः कुलं त्रातं च मेऽनघ।। | 13-89-38a 13-89-38b |
एथ मेऽन्द्रग्रहो विप्र जीविते च प्रयोजनम्। एतद्राज्यफलं चैव तपसश्च फलं मम।। | 13-89-39a 13-89-39b |
यदि त्वं प्रीतिमान्विप्र मयि वै भृगुनन्दन। अस्ति मे संशयः कश्चित्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-89-40a 13-89-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89।। |
13-89-29 उत्साहमिह कृत्वेदं कोऽन्यो वै च्यवनादृते। ब्राह्मण्यं दुर्लभं लोके तल्लव्ध्वा दुर्लभं तपः। सिद्धिस्तत्रापि दुष्प्रापा सिद्धेरपि परा गतिः इति ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-088 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-090 |